अपना पराया भाग-1 - Hindi Upanyas

बड़े ठाकुर आज भी अत्यंत व्यग्र थे। हाथ मलते हुए बैठक में टहल रहे थे। सदा ऐंठी रहने वाली मूंछें अभी नीची थीं। बदन पर रेशमी मिर्जई थी। हाथ की लाठी कोने में रखी हुई थी। उसी समय कारिन्दा ने प्रवेश किया।

‘मिला वह?’ ठाकुर ने पूछा।

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‘नहीं।’

‘नहीं?’

‘जी नहीं! जमींदारी का चप्पा-चप्पा ढूंढ लिया गया है…।’ कारिन्दा बोला—‘जोगीबीर की दरी, सेहटा, महुवारी कहीं भी उनका पता नहीं।’

‘वैदराज से पूछा था?’

‘जी हां! वे कहते थे कि उन्हें इस बात का जरा भी पता नहीं, सुनकर उन्हें बहुत रंज हुआ।’

ठाकुर यह अशुभ समाचार सुनकर अधीर हो गए। उनका मन मसोस उठा। अपने आपको धिक्कारने लगे।

राहत पाने के लिए वे भीतर आए तो उन्होंने देखा ठकुराइन गीली आंखें लिए हुए बैठी है।

‘कहीं पता न लग सका, ठकुराइन।’ उदास मन से बोले ठाकुर!

‘कहीं नहीं?’

‘लठैत और कारिन्दा खोजते-खोजते हार गए—।’ ठाकुर ने कहा—‘मगर कहीं न मिला वह। न जाने कहां चला गया?’

‘तुम्हीं ने सब कुछ किया है, ठाकुर तुम्हीं ने।’

‘मैंने? मैंने क्या किया? जो कुछ हुआ, इस बेईमान भीखम चौधरी और उसकी छोकरी घटा के कारण—।’

‘भीखम का इसमें क्या कसूर था?’

‘वह बेईमान सब-कुछ जानता था। मेरी मूंछें नीची करना चाहता था, ठाकुर घराने की मर्यादा पर दाग लगाना चाहता था—।’ ठाकुर ने दांत पीस लिये—‘देख लेना तुम। आलोक गया तो गया, वह भी इस गांव से जाएगा। बरबाद न कर दिया उसे तो असल ठाकुर नहीं।’

तेजी से ठाकुर बैठक में आए। देखा, वैदराज उपस्थित हैं।

‘हो चुका वैदराज। सत्यानाश हो चुका। इस आलोक ने मुझे कहीं का न रखा।’ ठाकुर व्यग्रतापूर्वक बोले।

‘वैदराज ने देखा—ठाकुर का चेहरा पीला पड़ गया है, आंखों से करुणा मिश्रित क्रोध झांक रहा है। बोले—‘धैर्य रखो ठाकुर!’

‘धैर्य रखूं?’ सूखी हंसी हंसे ठाकुर—‘कल से मुझे ऐसा मालूम हो रहा है, जैसे मैं मुर्दा हो गया हूं, जैसे मेरे शरीर में जान ही नहीं रह गईं है, जैसे सारी शक्ति क्षीण हो गईं है, अब तो खड़े होने से पैर भी कांपते हैं, वैदराज!’

‘सुना है कल से आपने एक दाना भी मुंह में नहीं रखा है?’

‘दाना-पानी कुछ भी अच्छा नहीं लगता। जिसने मेरी प्रतिष्ठा पर धूल उछालने का प्रयत्न किया है, उसको मैं दर-दर का भिखारी बना दूंगा वैदराज! तुम देखते रहना।’ ठाकुर गद्दी पर बैठ गए।

भीखम चौधरी पर उनका क्रोध चरम सीमा तक पहुंच गया था। उनका अनुमान था कि उसी ने अपनी बेटी को छोटे ठाकुर के पीछे लगाकर उनकी प्रतिष्ठा से खिलवाड़ किया है।

‘भीखम चौधरी को अभी बुलाओ—अभी।’ ठाकुर ने कारिन्दा को आज्ञा दी।

ठकुराइन, ठाकुर, वैदराज, शास्त्री जी तथा जैकरन को छोड़कर और किसी को भी असली कारण नहीं मालूम था। हां छोटे ठाकुर के गायब होने की खबर चारों और फैल गईं थी। जैकरन को बहुत दुख हुआ। सारे अनर्थों की जड़ वह ही है, ऐसे वह समझने लगा। यदि वह यह न सूचित करता कि छोटे ठाकुर घटा के साथ तालाब के किनारे हैं तो क्यों इतना अनर्थ होता? वह भी कितना कृतघ्न है कि जिस ठाकुर ने उसकी लगान माफ कर दी थी, उन्हीं की शिकायत की।

ठाकुर की आज्ञा की देर थी। भीखम तुरंत आ उपस्थित हुआ। उसने ठाकुर की जुहार की। ठाकुर ने कुछ उत्तर नहीं दिया।

‘वैदराज और भीखम को छोड़कर सब लोग बाहर जाओ।’ ठाकुर ने आज्ञा दी।

सब लोग बाहर चले गए।

‘भीखम चौधरी!’ पुकारा ठाकुर ने।

भीखम को लगा, जैसे ठाकुर के स्वर में निहित अग्नि की भयंकर ज्वाला शीघ्र ही प्रकट होकर उसे भस्म कर देगी। भयभीत स्वर में वह बोला—‘हुक्म बड़े सरकार!’

‘छोटे ठाकुर कल दोपहर से गायब हैं…।’

‘मालूम है, ठाकुर! बड़ा दुख हुआ सुनकर।’

‘दुख हुआ? क्यों किसलिए…?’—गरज पड़े ठाकुर—‘तुम्हारी इच्छा तो पूरी हो गईं न? ठाकुर घराने की मर्यादा तो तुमने लूट ली।’

‘यह आप क्या कहते हैं बड़े राजा?’

‘जैसे तुम्हें मालूम ही नहीं, कि मैं क्या कह रहा हूं, मेरे कहने का मतलब यह है कि, छोटे ठाकुर घर से रूठकर क्यों चले गए?’

‘मुझे कुछ नहीं मालूम सरकार! मुझे कुछ नहीं मालूम।’

‘तुमने और तुम्हारी जवान बेटी ने मुझे बरबाद कर डाला। छोटे ठाकुर को खूब फांसा तुम लोगों ने। झूठ नहीं कह रहा हूं। गांव के तीन आदमियों ने तालाब के किनारे यह घटना देखी और मुझे भिखमंगे की तरह उनके पैर छूकर अपनी इज्जत की भीख मांगनी पड़ीं, इसलिए आलोक रूठकर घर से चला गया… और यह सब हुआ है—तुम लोगों के कारण।’

‘नहीं बड़े राजा।’ बिलख कर बोला भीखम—‘ऐसी तोहमत (अपराध) न लगाओ, सरकार!’

‘मैं जानता हूं, छोटे ठाकुर कहीं गए नहीं हैं—या तो तुम्हारे घर में छिपे हैं या तुमने उन्हें कहीं छिपा रखा है।’

‘दुहाई हो ठाकुर की।’ भीखम ने ठाकुर के पर पकड़ लिए। ठाकुर ने उसे निर्दयतापूर्वक ढकेल दिया।

‘ठाकुर का क्रोध तुम जानते हो, भीखम। आलोक को जैसे भी हो, मेरे पास हाजिर करो, वर्ना मैं तुमको तबाह कर दूंगा।’

‘कहां से हाजिर करूं राजा? किधर जाकर खोजूं उन्हें?’

‘बेईमान कहीं का।’ तड़पकर उठ खड़े हुए ठाकुर—‘बहाना करता है।’

चट-चट कई तमाचे भीखम के गाल पर ठाकुर ने जड़ दिए।

‘सम्पत!’ चिल्लाकर पुकारा ठाकुर ने।

लठैत दौड़े हुए आए।

‘ले जाओ इस हरामखोर को!’ ठाकुर ने आज्ञा दी—‘हड्डी पसली तोड़ डालो इसकी, मारते-मारते बेदम कर दो।’

‘दुहाई बड़े ठाकुर की! दुहाई वैदराज की—।’ अर्तनाद कर पड़ा भीखम।

वैदराज चुप रहे। ठाकुर की इस भंगिमा देखकर उन्हें कुछ कहने का साहस न हुआ।

लठैत भी भीखम को दूसरे कमरे में घसीट ले गए। वहां उस गरीब कृषक पर लात, घूंसे और लाठियां पड़ने लगीं। भयानक आर्तनाद से हवेली गूंज उठी।

‘और जोरों से—।’ चिल्लाए ठाकुर!

वैदारज को ऐसा लगा, जैसे कोई निशाचर उनके सामने खड़ा होकर आदेश दे रहा हो।

भीखम के करुण चीत्कार को सुनकर वैदराज का कलेजा दहल उठा, पर उस दानव को दया नहीं आई। थोड़ी देर बाद ही चीत्कार एकदम बंद हो गईं शायद चेतनाहीन हो गया था वह बेचारा, फिर भी उस पर लात घूंसे पड़ते ही रहे।

‘बस करो…अब निकालकर बाहर कर दो।’ ठाकुर ने आज्ञा दी।

चेतनाहीन भीखम का शरीर घसीटकर हवेली के बाहर कर दिया गया। उस देहाती वातावरण में मानों कोई नियम या कानून था ही नहीं। बड़े ठाकुर को रोकने वाला कौन था? वह तो उस क्षेत्र के राजा थे।

बड़े ठाकुर का क्रोध अब भी शांत नहीं हुआ था। वैदराज ने उस समय चले जाना ही उचित समझा। धीरे से उठकर बाहर आए। पगडंडी पर ही भीखम पड़ा कराह रहा था। जगह-जगह से लहू टपक रहा था। वैदराज ने दांत पीसे और उसे धीरे से उठाकर खड़ा किया। सहारा देते हुए चलने लगे। भीखम की चेतना लौट आई थी।

घटा अपनी झोंपड़ी में ही थी। अपने काका को ऐसी अवस्था में वैदराज के साथ आते देखकर वह सन्न रह गईं। उसने झटपट खाट बिछाकर उस पर कवरी बिछा दी। वैदराज ने भीखम को उस पर लिटा दिया और घटा को सब बातें बता दीं, परंतु उसके मार खाने का कारण नहीं बताया। घटा ने बहुत पूछा, परंतु वैदराज और भीखम दोनों चुप रहे।

वैदराज ने अपने घर से दवा मंगवाकर, भीखम के तमाम बदन पर उसका लेप कर दिया। भीखम को प्रबल ज्वर हो आया था। बेचैनी से करवटें बदल रहा था। बेचारी घटा सिसक-सिसक कर रो रही थी। अपने काका के मार खाने का कोई भी कारण उसकी समझ में नहीं आ रहा था।

अभी आज प्रातःकाल ही, जब उसने सुना कि छोटे ठाकुर घर छोड़कर न जाने कहां चले गए, तो उसके हृदय पर गहरी चोट लगी थी। अब तक वह रोती ही रही थी, छोटे ठाकुर की सलोनी मूर्ति ने उसके प्रेम-संसार में भयानक बवंडर की सृष्टि कर दी थी।

आलोक और घटा—दोनों प्रेम-मार्ग के अनुभवहीन पथिक थे। उन्हें अपनी परिस्थितियों का तनिक भी ध्यान न आया! दोनों ने प्रेम बन्ध बनकर हृदय का आदान-प्रदान किया था। यह न सोचा था कि देहाती समाज में इस प्रकार का कार्य कितना घृणित समझा जाता है, यह न सोचा था कि ठाकुर और काछी का प्रणय-सम्बन्ध अन्यायी समाज कैसे स्वीकार करेगा?

भीखम घटा पर तनकि भी क्रोधित नहीं हुआ। घटा उसकी एकमात्र कन्या थी। घटा के सुख में ही उसका सुख था। वह जानता था कि जवानी की आंधी सभी को उड़ा ले जाती है। जवानी के दिन तूफान होते हैं।

उसी दिन शाम को—

कम्बल ओढ़े हुए तथा जूड़ी से थर-थर कांपते हुए उस लम्बी-दाढ़ी वाले, विचित्र रोगी ने वैदराज के यहां पुनः पदार्पण किया। अन्दर से किवाड़ बंद करके वैदराज उसके पास आकर बैठ गए।

‘क्या हाल है रे राज?’

‘अच्छा है, मामा!’ राजा बोला—‘परंतु छोटे ठाकुर के चले जाने की खबर मुझे मिली है, क्या यह बात सच है?’

‘सच है बेटे, छोटे ठाकुर सचमुच चले गए हैं।’

‘आखिर क्यों?’ पूछा राज ने।

एक बार तो वैदराज के मन में आया कि वह सारा भेद राज से कह दे और यह क्रांतिकारी राज उनकी हेकड़ी उनकी शेखी मिट्टी में मिला दे, पर दूसरे ही क्षण कुछ सोचकर केवल इतना ही कहा—‘शायद बड़े ठाकुर ने कुछ कहां-सुना होगा।’

‘तो शहर जाकर मैं उसकी खोज करूं?’ राज बोला।

‘ऐसा दुःस्साहस मत करना। यदि किसी ने पहचान लिया तो परिणाम भयंकर होगा। मैं छोटे ठाकुर की स्वयं खोज करूंगा।’ वैदराज बोले।

राज उठ खड़ा हुआ। पुनः उसी तरह रोगी के वेश में कांपते हुए, पगडंडी पर से जाते-जाते शून्य में अदृश्य हो गया।

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