अपना पराया भाग-1 - Hindi Upanyas

यद्यपि आलोक की हार्दिक इच्छा घर जाने की न थी, फिर भी औरों की देखा-देखी उसने भी छुट्टी के लिए अर्जी दे दी। आश्चर्य! कि औरों की अर्जी नामंजूर हो गईं, परंतु आलोक को इक्कीस दिन की छुट्टी मिल गईं। फ़्री रेलवे पास भी मिल गया।

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मिर्जापुर आने के लिए आलोक कलकत्ता मेल पर सवार तो हो गया, पर यह निश्चय नहीं कर पाया था कि यह इक्कीस दिन की छुट्टी वह कहां व्यतीत करेगा, घर पर या कहीं बाहर?

दूसरे दिन आधी रात को मेल मिर्जापुर स्टेशन पर पहुंच गईं, आलोक ने एक कुली के सिर पर अपना सामान उठवाया और स्टेशन से बाहर आया।

‘धर्मशाला तक मेरा सामान पहुंचा दो।’ उसने कुली से कहा।

‘क्यों? घर नहीं जाओगे छोटे ठाकुर?’ कुली बोला।

एक कुली के मुंह से अपना नाम सुनकर आलोक चौंक पड़ा। उसने कुली की ओर देखा, देखकर विस्मय से चीख उठा—‘ओह! भीखम चौधरी, तुम?’

‘हां, छोटे राजा!’

‘तुम यहां कैसे, भीखम चौधरी?’ पूछा आलोक ने।

‘बड़ी लम्बी कहानी है, छोटे ठाकुर…!, फिर कभी सुन लेना।’ भीखम बोला।

‘शहर में कहां रहते हो?’

‘एक टूटे-फूटे मकान में।’

‘मेरा सामान भी वहीं ले चलो! इक्कीस दिन की छुट्टी तुम लोगों के साथ ही बिताऊंगा। घर न जाने का मैंने प्रण कर लिया है!’

कुछ न बोलकर भीखम चुपचाप आगे बढ़ चला! आलोक उसके पीछे-पीछे चला। राह में भीखम सोचता जा रहा था—यह इक्कीस दिन की छुट्टी कैसी? छुट्टी तो नौकरों को मिलती है, तो क्या इन्होंने नौकरी कर ली है? सहसा एक गंदी गली के टूटे-फूटे मकान के दरवाजे पर पहुंचकर उसने आवाज लगाई—

‘बिटिया…! ओ बिटिया—!’

‘आई काका!’ दरवाजा तुरंत खुल गया। भीखम के सिर पर काफी सामान देखकर घटा चौंक पड़ीं। पुनः उसकी दृष्टि उस मनुष्य पर पड़ीं, जो भीखम के पीछे खड़ा था। अपने हृदय की पीड़ा को, अपने धाराशायी हो गए अरमानों को, अपने प्रेमी को साकार रूप में वहां खड़ा देखकर वह चौंक पड़ीं।

‘बिटिया! छोटे ठाकुर आए हैं, बिस्तर लगा दो।’ भीखम बोला।

घटा का सारा शरीर हर्षोत्फुल हो उठा था। उसने जल्दी से चारपाई पर बिस्तर लगा दिया। पुनः रसोई बनाने में लग गईं। चटपट पराठा, तरकारी और चटनी तैयार कर ली। आलोक जब भोजन पर बैठा तो आज के भोजन में उसे अमृत जैसी मिठास का अनुभव हुआ।

हाथ-मुंह धो, विश्राम के लिए वह चारपाई पर जा लेटा, लेटे ही लेटे उसने पूछा—‘गांव क्यों छोड़ दिया, चौधरी काका?’

‘जाने दो छोटे राजा! जो भूल गया हूं, उसे, फिर से ताजा करने से मरा हुआ दुख, फिर से जी उठेगा।’

‘मगर मैं जानना चाहता हूं—! मुझे बताओ, चौधरी काका!’ आलोक ने आग्रह किया।

लाचार भीखम को सब-कुछ बताना पड़ा। सुनकर आलोक को बहुत दुख हुआ। अब तक उसके हृदय में पिता के प्रति जो नाम मात्र शेष आकर्षण था, वह भी निर्मूल हो गया। वह काफी रात गये तक सारी घटना पर विचार करता रहा। नींद जैसे आंखों से हवा हो गईं थी।

‘घर नहीं जाओगे, छोटे राजा?’ भीखम ने पुनः बात शुरू की।

‘नहीं!’ आलोक ने संक्षिप्त उत्तर दिया।

‘इधर मैं भी कई महीने से गांव नहीं गया। बेचारे वैदराज ने मेरी बड़ी मदद की थी। उन्हें भी नहीं मालूम होगा कि मैं कहां हूं?’ भीखम ने कहा।

भीखम ने अनुभव किया कि छोटे राजा अन्यमनस्क हैं, मुखाकृति पर करुण वेदना छाई है। अतः उसने उन्हें अधिक छेड़ना उचित नहीं समझा! करवट बदलकर सो गया।

प्रातःकाल उठकर भीखम स्टेशन पर चला गया। जब आलोक की नींद खुली तो उसकी नजर घटा पर पड़ीं।

वह आंखें मलता हुआ उठ बैठा और अर्ध-मुस्कान के बीच बोला—

‘अब तो तुम बहुत बदल गईं हो, घटा!’ उसने उलाहना दिया।

‘जब तुम बदल गए हो—जमाना बदल गया है, तो मेरी क्या गिनती, छोटे राजा।’

घटा के इस वाक्य में जो व्यंग्य, जो व्यथा निहित थी, उसे आलोक अच्छी तरह समझ गया। उसने बहुत ही स्नेह-सिक्त स्वर में कहा—

‘मेरे पिताजी ने तुम लोगों को बहुत दुख दिया है?’

‘दुख-सुख तो जीवन का चक्र हैं छोटे राजा, इसकी चिंता ही दुख है और इसकी मुक्ति ही सुख! घर से बिछुड़कर दुख हुआ। आज आपको पाकर सुख प्राप्त हो गया।’ कहकर वह अन्दर चली गईं।

घटा के मुख से सुख-दुख का अध्यात्मिक व्याख्यान सुन आलोक को महान आश्चर्य हुआ। आश्चर्य इस बात पर हुआ कि यह छोटी-सी उम्र वाली अनपढ़ बाला में यह अनुभव कैसे आया? कहां से आया?

काफी माथा-पच्ची करने पर वह इसी निष्कर्ष पर पहुंचा कि कष्ट सहन ही इस अनुभव के मूल में है।

उसने देखा, घटा भीतर रसोई के खटपट में लगी है, तो वह कपड़ा पहन घूमने चला गया।

भीखम स्टेशन से लौटकर आया, तब तक आलोक नहीं लौटा था। वह घटा से पूछने जा ही रहा था कि वह आ पहुंचा और उन लोगों के प्रश्न करने से पूर्व ही बोल उठा—‘बाहर एक ठेला और तांगा तैयार खड़ा है। अपना, मेरा, सब सामान ठेले पर रखो और तुम दोनों तांगे पर बैठ जाओ। हम लोग दूसरे मकान में चलेंगे।’

‘ऐसा क्यों छोटे ठाकुर?’

‘जल्दी करो, तांगे वाले ने जल्दी करने को कहां है।’ आलोक ने कहा।

आलोक ने जो मकान भाड़े पर लिया था, वह छोटा और सुंदर था। पानी-पखाने का प्रबंध उसमें बहुत अच्छा था। काम आने वाली आवश्यक वस्तुएं भी खरीदकर उसने उस मकान में रख दी थीं। एक नौकरानी को भी ठीक कर लिया था।

अब घटा और भीखम नये मकान में आए, तो बहुत प्रसन्न हुए। सब जरूरी सामान आलोक ने चार-पांच घंटे में ही जुटा लिया था। चूल्हा-चक्की, चारपाई, बर्तन आदि किसी वस्तु का अभाव न था।

शाम को जब भीखम पुनः स्टेशन जाने लगा, तो आलोक ने उसे रोकते हुए कहा—‘अब तुम्हें कुलीगिरी करने की जरूरत नहीं, चौधरी काका!’

‘कुछ-न-कुछ तो करना ही होगा, छोटे ठाकुर!’ भीखम बोला।

‘जब तक मैं हूं, कुछ करने की जरूरत नहीं।’

‘यह नहीं हो सकता, नहीं हो सकता छोटे राजा।’

‘होगा—वहीं होगा, जो मैं चाहूंगा।’

बेचारा भीखम विवश हो गया।

दूसरे दिन आलोक ने भीखम को एक महाजन के यहां अच्छी-सी नौकरी दिला दी। धीरे-धीरे दिन हंसी-खुशी से बीतने लगे। घटा के साथ रहने से आलोक नीनी की सुध भूल-सा गया, पर कभी-कभी उस छोकरी की क्षणिक याद आ ही जाती थी।

उस दिन भीखम नौकरी पर चला गया था। घर पर आलोक और घटा अकेले ही थे। आलोक कारपोल गिल की दी हुई ‘बण्डल’ नामक पुस्तक पढ़ रहा था। हरवर्ड जेकिन्स की लिखी हुई हास्य रस की यह उत्तम पुस्तक थी। कभी-कभी आलोक के मुख पर अनायास ही मुस्कराहट खेल उठती थी।

‘बहुत मुस्करा रहे हो छोटे राजा!’ घटा ने कमरे में प्रवेश करते हुए कहा।

‘मुस्कराना भी क्या अपराध है, घटा?’ आलोक ने पुस्तक पर से निगाह हटाते हुए कहा—‘आओ बैठो।’

‘छोटे राजा के साथ बैठने का मेरा मुंह कहो, जो बैठूं?’ कहकर घटा चारपाई के दूसरे सिरे पर बैठ गईं।

‘तुम अब बड़े हो गए हो, इसलिए मुझे बड़े राजा कहकर पुकारना चाहिए। क्यों, है न यही बात?’ घटा आलोक के और पास आकर, फिर बोली—‘नहीं, बड़े राजा भी नहीं, सिर्फ राजा कहकर पुकारूंगी मैं अब तो।’

‘तुम बहुत शोक होती जा रही हो, घटा।’ कहकर आलोक ने उसे घसीटकर अपने वक्ष में समेट लिया।

‘हम लोगों के लिए आपने बहुत कुछ किया, छोटे ठाकुर!’

‘यहां तक कि खुद अपने को भी तुम्हें सौंप दिया, है न?’ कहकर आलोक हंस पड़ा।

घटा की आंखें लज्जा से झुक गईं। काली-काली पुतलियों में न जाने कहां की लज्जा समा गईं। नेत्रों की मादकता गहरी होकर छलक उठी। उन्नत उरोजों पर मधुर कम्पन लहरा उठा। रक्तिम होंठ मुस्करा पड़े।

भूल गया आलोक अपने को, भूल गया नीनी को—सब कुछ भूल गया वह। घटा की रूप-माधुरी, की मदिरा का प्याला पीकर!

एक सप्ताह व्यतीत हो गया। आलोक के हृदय में अकथनीय द्वन्द्व उठा खड़ा हुआ था। घटा को वह प्यार करता था, परंतु नीनी को भी वह भूल नहीं सकता था। घटा उसके रग-रग में प्रवेश कर चुकी थी, परंतु नीनी की सुंदर आकृति भी उसके नेत्रों के समक्ष कसकती रहती थी। इससे परेशान था वह!

एक दिन उसने नीनी को पत्र लिखा। अपने हृदय की विवशता उसमें उसने व्यक्त कर दी। चन्द लाइनों में उस पत्र में, जैसे उसने हृदय की सारी व्यथा उंड़ेल दी थी।

पत्रोत्तर की प्रतीक्षा बेताबी से कर रहा था वह। उसे विश्वास था कि नीनी उसके पत्र का उत्तर अवश्य देगी, क्योंकि उत्तर के लिए उसने एक लिफाफा भी उसमें रख दिया था, परंतु उत्तर न मिलना था, न मिला।

छुट्टी समाप्त होने को आई। घटा का मुंह आंसुओं से तर था, रोते-रोते सूज गये थे।

आलोक घटा को रोता हुआ छोड़कर प्रतिमास पर्याप्त सहायता भेजने का वचन देकर, बम्बई रवाना हो गया।

भीखम स्टेशन तक पहुंचाने आया था।

घटा ने उस दिन न कुछ खाया, न पीया।

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