gunahon ka Saudagar by rahul | Hindi Novel | Grehlakshmi
gunahon ka Saudagar by rahul

“अरे ! मुझे अन्दर जाने दो।”

“काहे के लिए ?”

“मैंने मनौती मानी थी कि जब मैं ग्रेजुएट हो जाऊंगी तो भगवान के चरणों में दीपक जलाऊंगी।”

“मगर तुम इस मन्दिर में नहीं जा सकतीं।”

गुनाहों का सौदागर नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1

“क्यों ? इस मन्दिर से क्या भगवान कहीं और चले गए हैं ?”

पण्डित ने गुस्से से कहा‒“बदतमीज लड़की ! पढ़-लिखकर क्या तेरी जाति बदल गई है ? तू भूल गई कि तेरी जाति क्या है ? तू हरिजन है…हरिजन…!”

दीपा हंस पड़ी और बोली‒“अच्छा, तो यूं क्यों नहीं कहते कि तुम पण्डितों के भगवान अलग होते हैं और हम हरिजनों के अलग।”

पण्डित ने आंखें निकालकर कहा‒“चली जा यहां से, वरना जबान खिंचवा लूंगा।”

अचानक दीपा का चेहरा बदल गया। उसने आंखें लाल करते हुए होंठ भींचकर कहा‒“पण्डितजी ! तुम भगवान के ठेकेदार नहीं हो। यह जातिगत ऊंच-नीच का भेद-भाव भगवान का बनाया हुआ नहीं, तुम्हारा है। तुम हमारे और भगवान के बीच दीवार बनकर खड़े हो गए हो। लेकिन हम भी पहले की तरह अनपढ़ नहीं रहे।

“हमें अपने अधिकार मालूम हैं। भारतीय संविधान में यह कहीं नहीं लिखा कि कोई हरिजन भगवान की पूजा करने मन्दिर में नहीं जा सकता।”

“अच्छा, तू मुझे कानून सिखाती है ?”

सीधी तरह सीख लो तो अच्छा है, वरना समय की मार बहुत बुरी होती है।”

मुझे धमकी देती है।”

“नहीं, तुम मेरे पिता के समान हो और बेटी बाप को धमकी नहीं दे सकती। लेकिन यह भी सुन लो कि आज मैं भगवान के चरणों में दीपक जलाकर ही जाऊंगी।”

दीपा आगे बढ़ने लगी तो पण्डित ने उसे चांटा मारने के लिए हाथ उठाया। मगर दूसरे ही पल उसकी कलाई अमृत के हाथ में थी।

उसने कहा‒“वाह, पण्डितजी ! हम हिन्दुओं में तो बेटी को लक्ष्मी समझकर उसके चरण तक छूते हैं। तुम कैसे पण्डित हो, जो लक्ष्मी पर हाथ उठा रहे हो ?”

पण्डित ने झटके से हाथ छुड़ाकर कहा‒“यह लड़की हरिजन है।”

अमृत ने आगे बढ़कर कहा‒“पण्डितजी, यह हरिजन क्या होता है ?”

पण्डित ने हैरत से कहा‒“छोटे लाला ! यह बात आप कह रहे हैं ? आप लाला सुखीराम के बेटे ?”

“क्या मैं गलत कह रहा हूं ?”

“छोटे लाला, इस मंदिर के निर्माण में तो आपके पिता का धन भी लगा हुआ है।”

अमृत ने व्यंग्य से मुस्कराकर कहा‒“तो फिर इस मंदिर की इमारत में हमारा भी कुछ हिस्सा है। भगवान की सम्पत्ति में हम भी भागीदार हैं। इस लड़की को हमारे हिस्से का भगवान ही पूजने दीजिए।”

“छोटे लाला ! अनर्थ हो जाएगा। मन्दिर की पवित्रता भंग हो जाएगी।”

“अगर किसी इन्सान की पूजा से मन्दिर की पवित्रता भंग हो जाती है तो फिर वह घर भगवान का हो ही नहीं सकता।”

“देखिए, छोटे लाला ! इस मंदिर की निगरानी और पवित्रता की जिम्मेदारी मुझ पर है। अगर आप इस अनर्थ पर अड़े रहेंगे तो फिर मैं मजबूर हो जाऊंगा।”

“किस बात पर ?”

“बुला लीजिए इस इलाके के सारे वासियों को। अगर वह आज्ञा दें तो मैं इस हरिजन लड़की को मंदिर में जाने से नहीं रोकूंगा।”

दीपा ने आंखें निकालकर कहा‒“ठीक है, पण्डितजी। आप ऊंची जाति वालों को बुलाकर लाइए। मैं अपनी जाति वालों को बुलाकर लाती हूं। आज मैं यह फैसला कराके ही रहूंगी कि भगवान के चरण छूने का अधिकार क्या ऊंची जाति वालों को ही है।”

अचानक अमर ने हाथ‒“ठहरिए दीपा जी ?”

दीपा रुक गई तो अमृत ने कहा‒“देखिए, एक छोटी-सी हठ से बहुत बड़ा हंगामा खड़ा हो सकता है। अगर दोनों तरफ के लोग आ गए तो दंगा-फसाद के सिवा और कुछ नहीं होगा और मारेे जाएंगे निर्दोष !”

दीपा ने अमर को घूरकर कहा‒“आप कौन हैं ?”

अमर ने जवाब दिया‒“मैं छोटे लाला का दोस्त हूं, जो आपकी तरफ से लड़ रहे हैं, लेकिन यह लड़ाई इतनी छोटी नहीं कि इसका फैसला इस एक मंदिर की सीढ़ियों पर हो जाए। लड़ाई में हमेशा निर्दोष ही मारे जाते हैं। हां, उन लोगों की दुकानें जरूर चमक उठेंगी, जो ऐसी लड़ाइयों का ही कारोबार करते हैं और मौकों की ताक में रहते हैं।

‘न तो आप, न मैं किसी को मार सकते हैं, न ही पंडितजी के समर्थक। मारने वाले तो वे कारोबारी बुलाते हैं और मारने वाले दानों तरफ के लोगों को मारते हैं, ताकि एक का आरोप दूसरे पर आ सके।”

दीपा का चेहरा तनिक नरम हो गया था।

उसने कहा‒“लेकिन मैंने सचमुच मनौती मानी थी कि अपनी सफलता पर भगवान के चरणों में दीपक जलाऊंगी।”

“दीपाजी ! सिर्फ आपकी सफलता आपकी पूरी बिरादरी की सफलता नहीं है। खुद को तब सफल समझिए, जब आपको बिरादरी का हर जवान, चाहे वह लड़का हो, चाहे लड़की, आपकी तरह डिग्री लेकर निकले और तब…बहुत सारे लोग भगवान के मंदिर में दीपक जलाने आएंगे तो उन्हें कोई नहीं रोक सकेगा।”

कुछ पल रुककर उसने कहा‒“फिलहाल, अगर आप उचित समझें तो आपकी तरफ से मैं यह दीपक भगवान के चरणों में जलाए देता हूं।”

दीपा ने कुछ बोले बिना चुपचाप थाली अमर की तरफ बढ़ा दी।

“आपने कौन-सी साइड से ग्रेजुएशन किया है, दीपाजी ?”

“कॉमर्स से। मैंने स्टेनोग्राफी का भी कोर्स किया है।”

“बहुत खूब ! आगे आपका क्या प्रोग्राम है ?”

“सर्विस करूंगी। मेरा ऐ छोटा भाई है। उसे भी अपनी ही तरह पढ़ाकर इस गंदे काम से निकालूंगी और जिस दिन नौकरी मिल गई। उस दिन ही मैं बापू और मां को तो यह काम करने ही नहीं दूंगी।”

अमर ने ठंडी सांस ली और बोला‒“दीपाजी ! काम कोई भी बुरा नहीं होता। किसी काम कोे बुरा समझना जरूर बुरा होता है। फिर भी अगर आप अपने भाई, अपनी मां और बाप के लिए ऐसा सोचती हैं। तो अपनी बिरादरी के लिए ऐसा सोचती हैं तो अपनी पूरी बिरादरी के लिए ही ऐसा क्यों नहीं सोचतीं ?”

“मैं समझी नहीं ?”

“क्या आप इस बात पर विश्वास नहीं रखतीं कि सिर्फ एक घर का परिवार बदलने से पूरे देश की व्यवस्था नहीं बदल सकती।”

दीपा ध्यान से उसे देखती रही।

अमर ने फिर से कहा‒“आप अमृत का और मेरा साथ दीजिए। हम लोग जो कुछ कर रहे हैं। शायद उससे आपको लगे कि ऐसा कुछ हुए बिना हमारे देश का कुछ भी नहीं बदल सकता।”

“मुझे नहीं मालूम, आप लोग क्या कर रहे हैं ?”

“हम आपको बताएंगे, लेकिन इस शर्त पर कि आप भगवान की सौगंध खाकर हमारी स्कीम को गुप्त रखने की शपथ लें।”

“मैं भगवान की सौगंध खाकर शपथ लेती हूं कि आपकी स्कीम मेरी सांसें निकलने तक मेरी ही छाती में दफन रहेगी।”

“तो आइए, उस पार्क में बैठते हैं।”

उन तीनों ने एक छोटे से पार्क में प्रवेश किया।

चौहान ने एकदम मोटरसाइकिल को ब्रेक लगाए और पीछे बैठे प्रेमप्रताप ने चौंककर पूछा‒“क्या हुआ ?”

चौहान ने जवाब दिया‒“अबे, देखा नहीं। उस लड़की ने आंख मारी है।”

“किस लड़की ने ?”

“वह जो पेड़ के नीचे खड़ी है।”

प्रेमप्रताप ने पलटकर देखा। सीटी बजाने के अंदाज में होंठ सिकोड़कर बोला‒“वाह, क्या गजब की चीज है।”

चौहान ने मोटरसाइकिल घुमाई और दीपा के करीब पहुंचकर बोला‒“हाए…बेबी…!”

दीपा ने मीठी-सी मुस्कान के साथ कहा‒“हाए…!”

“क्या इरादे हैं ?”

“एक या दोनों ?”

“अरे, हम दोनों तो साथ जीने-मरने वाले हैं।”

“दो हजार !”

“इन…!”

“लेकिन किसी होटल या आबाद जगह में नहीं। मैं पेशेवर नहीं हूं।”

“जहां तुम कहो।”

“रात को ठीक आठ बजे, जवाहर पार्क के बाहर मिलूंगी।”

“फिर तो जवाहर पार्क ही ठीक रहेगा।”

“मंजूर है, लेकिन एडवांस ?”

“कितना ?”

“सिर्फ सौ रुपए !”

प्रेमप्रताप ने जल्दी से सौ रुपए निकालकर दे दिए।

दिन ढलते ही अमर लगभग हांफता-दौड़ता हुआ हरिजनों की बस्ती में घुसा और जो नौजवान सबसे पहले नजर आया, उससे बोला‒“भाई साहब यहां…अशरफी की मां का घर कौन-सा है ?”

“कुशल तो है ?”

“जल्दी ले चलिए मुझे।”

नौजवान तेजी से अशरफी के घर लाया। दीपा के पिता लखन को अमर ने एक पर्चा देकर कहा‒“यह पर्चा मुझे जवाहर पार्क के बाहर सड़क पर मुड़ा-तुड़ा मिला था।”

दीपा के छोटे भाई ने पर्चा लेकर खोला तो उछल पड़ा‒“बापू ! यह तो दीपा दीदी का पर्चा है।”

“क्या लिखा है…जल्दी पढ़ो।”

छोटा भाई पढ़ने लगा‒

“मैं हाथ जोड़ती हूं। जिस किसी को यह पर्चा मिले मेरे घर हरिजनों की बस्ती, बाल्मीकि नगर में अशरफी मां के यहां पहुंचा दे।”

मां ! बापू, दो बदमाशों ने मेरा अपहरण करके जवाहर पार्क में रखा हुआ है। बड़ी मुश्किल से यह कागज ढूंढ़कर लिख रही हूं। आज रात को वे लोग मेरी लाज लूटेंगे और शायद मुझे मार डालेंगे। सवर्ण मालूम होते हैं।”

अचानक अशरफी रोने लगी, लेकिन अमर ने जल्दी से कहा‒“रोने का समय नहीं है। अपनी बेटी को बचाने का जतन कीजिए।”

“क्या जतन करें ? पुलिस भी बड़े लोगों का ही साथ देगी।”

“अगर आप अकेले हों। अरे, इस बस्ती की बेटी, सारी बस्ती की बेटी है। सब लोग मिलकर चलिए। फिर देखिए, कैसे आपकी नहीं चलती।”

अमर ने साथ आने वाले नौजवानों के कंधे पर हाथ रखकर कहा‒“और भाई, तुम साइकिल लेकर दौड़ जाओ। शहर में जहां-जहां तुम्हारी बिरादरी की बस्तियां हैं सबको खबर कर दो। यह एक लड़की की नहीं, पूरी बिरादरी की इज्जत का सवाल है।”

नौजवान दौड़ता चला गया।

ठीक पौने आठ बजे दीपा ने प्रेमप्रताप और चौहान को आते देखा।

कानाफूसी में बोली‒“शीऽऽऽ…मैं इधर हूं।”

दोनों झपटकर उसके पास आ गए।

प्रेमप्रताप ने हांफते हुए कहा‒“तुमने…तो, बाहर…मिलने को कहा था ?”

दीपा ने कहा‒“बाहर पुलिस वाले टहल रहे थे।”

“ऐसी की तेसी पुलिस वालों की‒वह क्या करते ?”

फिर उसने जल्दी से दीपा का हाथ पकड़ लिया। दूसरे ही पल दीपा के मुंह से एक तेज चीख निकली‒“बचाओ…बचाओ…!”

पप्पी ने हड़बड़ाकर कहा‒“अरे…अरे, यह क्या करती हो ?”

“बचाओ…बचाओ…पुलिस…पुलिस…”

चौहान ने जल्दी से उसका मुंह दबा लिया, तभी चारों तरफ से शोर की आवाजें आईं। साथ ही बहुत सारी रोशनियां।

चौहान ने तेज स्वर में कहा‒“भागो…गड़बड़ लगती है…।”

इससे पहले कि वह भागता, एक पेड़ के पीछे से अमृत ने निकलकर उसकी टांग में टांग अड़ा दी और वह औंधे मुंह गिरा।

दूसरी तरफ से अमर ने एक मोटी-सी शाखा को डंडा बनाकर चौहान की टांगों पर मारा और वह गिर पड़ा।

अमर ने उन दोनों को शाखा से मारते हुए तेज स्वर में कहा‒“जल्दी बांधो…।”

अमृत ने जल्दी-जल्दी दीपा को घास पर लिटाकर उसके हाथ-पांव बांध दिए। तब तक सैकड़ों आदमी अन्दर आ चुके थे। वह चिल्ला रहे थे‒

“मारो…मारो…”

“पकड़ो…पकड़ो…!”

“जान से मार दो…!”

फिर अमर और अमृत उन लोगों की भीड़ में ही मिल गए। उन लोगों ने प्रेमप्रताप और चौहान को मारना शुरू कर दिया। अमर और अमृत मौका पाकर भीड़ में से खिसक गए।

चौहान और प्रेमप्रताप पर घूंसे, लातें, थप्पड़, ठोकरें पड़ रही थीं और वे दोनों सीमा से अधिक बदहवास और बौखसलाए हुए सिर्फ मार खा रहे थे।

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