सुबह का भूला-गृहलक्ष्मी की कहानियां: Grehlakshmi ki Kahani
Subha ka Bhula

Grehlakshmi ki Kahani: हम वही बन जाते हैं जैसे माहौल में रहते हैं,या यूं कहें जैसा हम बनना चाहते है ,ये ज्यादा उपयुक्त होगा।कई बार,कोई परिस्थिति के आगे हथियार डाल देता है और फिर अपने जीवन ने हुई घटनाओं के लिए इन स्तिथियों को दोषी ठहराता रहता है जबकि कोई दूसरा उन विकट परिस्थिति से जूझकर अपना चरित्र निर्माण खुद करता है।पढ़ते हैं एक कहानी तीन घनिष्ठ सहेलियों की जो कहने को एक सी थीं, समान उम्र,परिवेश में पली बढ़ी पर बाद में वो क्या वैसी ही थीं जैसा की शुरू में।आइए देखें।

दया,रुपा और भावना,ये ही नाम थे इन तीनों सहेलियों के,बहुत पक्की दोस्ती थी उनकी आपस में…शुरू से संग संग पढ़ी थीं,खेली थीं और बढ़ीं थीं..रूप ,रंग,आदतों में भिन्न होते हुए भी तीन शरीर एक जान थी जैसे।क्लास वन से ट्वेल्थ तक फिर कॉलेज में साथ रहा ।

धीरे धीरे,तीनो का साथ छूटता गया,सबसे पहले दया की शादी हो गई किसी बैंक अधिकारी के साथ,वो खुश या नाखुश हो,ऐसा कुछ ऑप्शन ही नहीं था उसके पास,घर में उसके डिक्टेटर पापा जैसा कहते थे,सब को सिर झुका के मानना ही होता था,पढ़ी लिखी,कवि ह्रदय लड़की से किसी ने पूछना भी जरूरी न समझा कि वो क्या चाहती है..?

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उसने भी चुपचाप सिर झुका के,पिता की आज्ञा मान ली थी और फिर खुद को हवाले कर दिया था समय और हालातों के आगे।

वो एक रूढ़ीवादी परिवार की बड़ी बहू बनी जिसके सिर से पल्लू सरकना अपराध माना जाता था,सबको खिला कर खाना, पति से केवल रात को सोते हुए बिस्तर पर मुलाकात होना और बिना सवाल जबाव किए जो मिला है उसे अपनी नियति मान लेना ही उसका प्रथम कर्तव्य बन चुका था।

दूसरी तरह,रूपा थी,शुरू से ही शोख मिज़ाज,सुंदरता की जीती जागती मूरत सी,चुलबुली,मधुर गायिका और नृत्यांगना,उसका बचपन से सपना था कि बड़े होकर रुपहले पर्दे पर सब को दिखूंगी…और जी जान से उसने अपने सपने को पूरा भी किया…घर के सब बंधन तोड़ के वो फिल्म नगरी भाग गई थी और अब एक सफल अभिनेत्री भी थी।बहुत उतार-चढ़ाव देख लिए थे दुनिया में और अब काफी मंझ चुकी थी।

बाकी रही तीसरी…”भावना”,अपने नाम के अनुरूप,थोड़ी भावुक ह्रदय पर धुन की पक्की,भले ही घर की परिस्थिति अनुमति नहीं दे रही थीं पर वो जिद और हिम्मत से जुटी रही और अब डी आर डी ओ में प्रसिद्ध सांइटिस्ट थी।

तीनों ही अपनी दुनिया में व्यस्त और मस्त थीं कि एक विशेष अवसर पर तीनों मिल गईं,चातक पक्षी को स्वाति नक्षत्र की बूंद पाकर जो मजा मिलता हो,वो आनन्द वो तीनों पा गईं।
बहुत देर तक एक दूसरे के गले लिपटीं,सुख दुख की बातों का कुछ ऐसा दौर चला कि उनकी आंखें छलछला आईं।

दया: “अरे,रूपा,तू तो बड़ी प्रसिद्ध हो गई है,हमें लगा था कि शायद पहचानेगी भी नहीं,पर एक बात है तू बदली नहीं बिल्कुल भी…”
रूपा: “हाय,दिल तोड़ दिया जानेमन…तुम्हें भूलने का मतलब है,खुद को भूलना,तुम दोनों तो मेरी जान हो…।”

भावना (हंसते हुए) “किसी को असली जिंदगी में भी जान बनाया कि नहीं तूने…?”

रूपा: “अरे..ये चकाचौंध की रुपहली दुनिया है,यहां चमकने के लिए आप जो खो देते हैं,उससे घर नहीं बसते बस सौदे होते हैं।”

दया: “क्या….मतलब,तेरा कोई साथी नहीं..वो मैगजीन में तो तेरे संग…?”

रूपा (ठहाका लगाते हुए) बहुतों से अफेयर्स के किस्से छपे थे,यही न…सब झूठ है मेरी भोली दोस्त,कहते कहते उसकी आँखों की कोर गीली हो उठती है।

भावना: “और तू,दया…हमारे जीजाजी कैसे हैं?”

दया:( फीकी मुस्कराहट से) “चल रही है जिंदगी यार.. ।”

रूपा: “क्यों भई,तेरे मियां तो,सुना था,बड़े जेंटलमैन हैं…,तुम लोग कितने भाग्यशाली हो जो तुम्हारे सही वक्त पर घर बस गए..।”

दया,कुछ भावुक हो गई,”घर बस गए और लड़की सुखी हो गई..घर परिवार की जिम्मेदारी औढते हुए कब वो बूढ़ी हो जाती है,उसकी इच्छाएं ,भावनायें,शौक सब असमय दम तोड़ देते हैं,वो किसी को नहीं दिखता। तू मेरी दादी को तरह बात कर रही है अब।”

भावना: “ऐसा क्यों कहा रही है,अब तो समय और सोच बदल रही है लोगों की..देखो समाज में महिलाओं के लिए कितने अच्छे काम हो रहे हैं।”

रूपा: “ये तो तू सही कह रही है..मैंने भी ऐसे बहुत से आयोजन खुद करवाये हैं…माना,हमारी लाइन में लड़कियों को बहुत से समझौते करने पड़ते हैं,पर स्थिति बदल भी रहीं हैं,फिर औरतों का अपना भी कुछ चरित्र होता है…।”

दया(व्यंग्य में,हंसते हुए) “चरित्र…
औरतों का अपना कोई चरित्र नहीं होता
उनका चरित्र गढ़ा जाता है….
उनके वस्त्रों से,उनकी होठों की लाली से,
उनकी चाल ढाल से,उनकी बोली से,
उनके आंखों के काजल से…
कोई नहीं देखता,उनके जज्बात,उनके अहसास,
क्योंकि वो मनुष्य नहीं होतीं..
वो तो होती हैं चाबी भरी गुड़िया
जब चाहे हंसा दो,रुला दो,मन भर जाए
तो बिना नोटिस,घर से भगा दो।”

“अरे..अरे..कवियत्री महोदया..”,भावना बोली: इतना भी इमोशनल न हो जाओ,देखो,औरतों की स्थिति बदली जरूर है पर निराश होने की जरूरत नहीं है।”

वो बोलती गई…मेरे पति,मेरा पूरा सहयोग,सम्मान करते हैं,इसलिए मैं ऐसी बातें कह रही हूं ,बात वो नहीं है,दरअसल हमें खुद अपने बारे में सोचना शुरू करना होगा।

दोनों ध्यान से उसकी बातें सुनने लगीं…
वो कह रही थी….ज्यादातर लड़कियां शादी के वक्त,घर गृहस्थी में इतना व्यस्त हो जाती हैं कि अपनी पहचान ही भूल जाती हैं,जब घर परिवार की जिम्मेदारी कम होने लगती हैं,उन्हें इस बात का अहसास होता है लेकिन तब तक देर हो जाती है और वो नैराश्य के भंवर में डूब जाती हैं जैसे तुम… दया…बुरा मत मानना पर ये सच है।

तुम्हें,शुरू से,अपने शौक को जिंदा रखने के लिए कुछ करना चाहिए था।जहां तक बात रूपा की है,उसने जो जिंदगी चुनी है,वो हमारे समाज में महिलाओं के लिए बहुत सुरक्षित और अच्छी नहीं समझी जाती।जो कुछ उसके साथ हो रहा है,कहीं न कहीं उसके बीज उसने खुद ही बोए हैं।

तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात,हम हमारा चरित्र गढ़ने का अधिकार इस समाज को देते ही क्यों हैं,अगर हमें उनकी ये परिभाषा मान्य नहीं हैं तो हमें उनकी बातों को तवज्जो नहीं देनी चाहिए।

बताओ..मैंने कुछ गलत कहा हो तो?भावना ने उनकी आंखों में देखते हुए पूछा।

दया और रूपा को लगा कि शायद भावना सही कह रही है..कोई दूसरा हमारे चरित्र का निर्माता कैसे हो सकता है,हम खुद अपनी निगाहों में क्या है,ये ज्यादा जरूरी है और होना भी चाहिए।

कह तो तुम ठीक रही हो भावना लेकिन अब मैं क्या कर सकती हूं? दया मायूसी से बोली।

क्या नहीं कर सकती? सुबह का भूला अगर शाम को घर आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते,तुमने डर की वजह से अपने परिवार में सिर्फ उनकी मर्जी का ही किया,कभी खुद के लिए कुछ करोगी तो क्या वो रोक लेंगे?पहला कदम बढ़ा के तो देखो!

रूपा मुस्कराई…ठीक कहा भावना तुमने लेकिन अभी तो पहले कुछ खा पी लें…

हम्मम…वो मुस्कराई,श्योर!!

तीनों मुस्कराती हुई,कॉफ़ी शॉप में कॉफी पीने चल दीं।