गृहलक्ष्मी की कहानियां: रितु कभी-कभी अपने मम्मा-पापा को घर बदलने के लिए कहती, “पापा, हम यहां क्यों रहते हैं? चलो, कहीं अच्छी जगह चलते हैं। इस गांव में तो कोई भी सुविधा नहीं है, न कोई ढंग की दुकान।” पापा की जगह अकसर मम्मा जवाब देते, ” बेटा, हमने बड़ी मेहनत से घर बनाया है।
अभी यहाँ ठीक हैं। फिर जब तुम्हें किसी शहर में नौकरी मिल जाएगी, तो हम वहां शिफ्ट हो जाएंगे, ठीक है…!” रितु अपनी सहेलियों को घर बुलाने में झिझकती थी क्योंकि जिस एरिया में वे रहते थे, वह घुमावदार था, गली आधी-पक्की थी, लेकिन हां, उनका घर बहुत अच्छा था। जब यूनिवर्सिटी में पुस्तक-मेला लगा, तो रितु ने वहाँ जाने का मन बनाया। क्योंकि पिछले करीब डेढ़ साल से उसकी आॉनलाइन कलासें ही चल रही थीं। और वह घर बैठी-बैठी बोर-सी हो गई थी। रितु ने छात्रावास में रहती अपनी एक सहेली से संपर्क किया और उसके जवाब के बाद वह दो दिनों के लिए यूनिवर्सिटी चली गई। हॉस्टल में रात्रि-विश्राम, एक ही रज़ाई में दो लोगों का सोना, नहाने के लिए ठंडा पानी, हाॅस्टल का बेस्वादा भोजन…. तीसरे दिन जब वह घर लौटी, तो वह मम्मा-पापा से ऐसे मिली, जैसे वह कई वर्षों के बाद मिली हो।
रात्रि को वह इतनी अच्छी तरह सोई कि अगले दिन सुबह दस बजे तक सोती रही। जब वह उठी, तो उसने मम्मा से कहा, “मम्मा, मैं आपसे कहती तो रहती हूं कि ‘घर बदलो, घर बदलो’, लेकिन अपने घर जैसा मज़ा कहां! यूनिवर्सिटी में तो हम दोनों एक ही पतली-सी रज़ाई में सोते थे, करीब तीनों टाइम बाहर-से टिक्कियां, समोसे, पूरियां खाते थे…अपना घर तो अपना ही होता है…हम तो यहां ही ठीक हैं….!”
