Bharat Katha Mala
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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

बड़े से घर के आंगन में दो बच्चियाँ भाग-भाग कर एक-दूसरे को पकड़ती, छुड़वाती फिर पकड़ने का प्रयास करती ऐसे लग रही थीं जैसे किसी बाग में दो तितलियां एक-दूसरे का अनुसरण कर अटखेलियाँ करती नज़र आती हैं। इन दोनों बच्चों में से एक है “मुस्कान” जो कि सात बरस की होगी और दूसरी है “चंचल” जो छह बरस की लगती है। खेलते हुए दोनों बाग की तितलियों की भांति बहुत मनमोहक लगतीं। खेलते-खेलते कभी दोनों आंगन के बगीचे की हरी-हरी घास पर बैठ “तोता उड़ कव्वा उड़” वाला खेल खेलतीं,

“चिड़िया उड़” बोलकर मुस्कान अपनी उंगली हवा में उठा देती।

“उड़” चंचल अपनी उंगली हवा में उठा देती।

“तोता उड़” मुस्कान की उंगली फिर हवा में उठती।

“उड़” चंचल फिर से अपनी उंगली उठा देती।

“कव्वा उड़” मुस्कान तेज़ी से बोलती।

“उड़” चंचल भी तेज़ी से उंगली उठा देती।

“गाय उड़” मुस्कान जितनी तेज़ी से उंगली उठाती उतनी ही तेज़ी से बोलती।

“उड़” कहकर चंचल हवा में उंगली तो उठा देती पर “गाय” शब्द का ध्यान आते ही “ना-ना” कहते हुए वापिस उंगली घास पर टिका देती।

“गाय उड़” पर चंचल का उंगली उठा देना दोनों बच्चियों को फिर से हंसा देता। उनकी चहकती हंसी से परे घर का वातावरण मधमय हो जाता। वहां काम कर रहा माली भी उनके खेल को सुन मुस्कुरा देता। दोनों का तकरीबन नित दिन इकट्ठ खेलना सबको खूब भाता। कभी दोनों माली से पौधों की बातें करतीं। पेड़-पौधों के नाम पूछती, फूल-पत्तों को अपने नाजुक हाथों से सहलातीं, उनकी खुशबू का आनंद लेतीं। माली को बगिया में काम करते बहुत ध्यान से देखतीं। बगिया का हर पौधा दोनों की उपस्थिति से मुस्कुराता नज़र आता। दोनों का इकट्ठे खेलने से मन ही ना भरा होता कि चंचल को वापिस भी जाना होता और थोड़े समय बाद ही घर के अंदर से बाहर निकलते चंचल की मम्मी की आवाज़ आती, “चंचल चलो, घर चलें।”

“बस थोड़ी देर और मां!”

“नहीं बेटा, देर हो जाएगी। देखो! अंधेरा भी होने वाला है।” चंचल की मम्मी हिदायत देती।

“आंटी थोड़ी देर और खेलने दो ना!” मुस्कान भी मचलते हुए कहती।

“अब जाने दो, बिटिया! कल फिर आ जाएगी।” चंचल की मम्मी मुस्कान के सिर को सहलाते हुए कहती और चंचल का हाथ पकड़ कर बाहर की तरफ चल देती। पीछे से मुस्कान कहती,

“चंचल! कल ज़रूर आना। हम “ड्रॉइंग बुक” में कलर करेंगे। ठीक है?”

“ठीक है।” कहकर चंचल गेट से बाहर चली जाती।

चंचल इस घर में गृह-कार्य सहायिका की बेटी है जो कभी-कभी अपनी मां के साथ शाम के वक्त मुस्कान के साथ खेलने आ जाती। चंचल गरीबों की बस्ती में एक कमरे के छोटे से घर में रहती थी पर वह हमेशा साफ-सुथरे कपड़ों में, करीने से बंधे बालों के साथ, होठों पर मुस्कान लिए बड़ी प्यारी लगती। बड़ों को नमस्ते करना, मुस्कान के साथ मिलजुल कर खेलना, खेलने के बाद खिलौनों को व्यवस्थित करने में मुस्कान की सहायता करना इत्यादि उसके अच्छे व्यवहार केद्योतक हैं।

मुस्कान इसी घर में अपने मम्मी-पापा के साथ रहती है। मुस्कान अपने माता-पिता की इकलौती संतान है पर वह बिगड़े बच्चों की श्रेणी में नहीं आती। मुस्कान एक मृदुभाषी और खुशमिज़ाज बच्ची है। अपना हर खिलौना चंचल के साथ मिलकर खेलना, खाने की चीजों को भी उसके साथ बांटना, अपने फालतू पड़े खिलौनों-कपड़ों, कापी-किताबों, पेंसिलों-रंगों इत्यादि को चंचल को देने में भी हिचक ना महसूस करना उसके अमीर होने के साथ-साथ व्यक्तित्व की अमीरी को भी दर्शाते हैं।

अच्छे संस्कारों की वजह से दोनों के व्यवहार में भी एकरूपता दिखाई देती और दोनों को आपस में खेलना-बैठना खूब भाता।

कभी जब दोनों अपने-अपने स्कूल की बातें एक-दूसरे को सुनाती तो उनकी भोली-भाली बातें सुनकर दोनों की माताएं भी हंस देती। कभी दोनों अपनी पढ़ाई की बातें सांझा करती तो कभी अपने सहपाठियों की शरारतों को सुनाती। मुस्कान की मम्मी जब दोनों को साथ बिठा पढ़ा दिया करती तो चंचल की मम्मी को बहुत अच्छा लगता। चंचल की मम्मी कुछ महीने पहले ही इस घर में सहायिका के रूप में नियक्त हई थी पर अपनी ईमानदारी और कर्मठता की वजह से वह जल्दी ही परिवार का हिस्सा जैसी बन गई।

सब अच्छा चल रहा था कि कोविड-19 की वैश्विक बीमारी ने दस्तक दी। बड़ी तेज़ी से इस भयानक बीमारी ने सारे संसार में अपने पांव पसारने शुरू कर दिए। भारत में भी अनियमित समय के लिए लॉक-डाउन हो गया। सब बाज़ार-व्यापार, स्कूल-कॉलेज, मॉल-पार्क इत्यादि सख्ती से बंद कर दिए गए। सब अपने-अपने घरों में कैद हो गए। गली-मोहल्ले सुने जान पड़ते थे। बीमारी का इतना ख़ौफ़ पसरा था कि घर से बाहर निकलने पर डर लगता। लोगों का कहीं आना-जाना बिल्कुल बंद था। इसी कारण घरों में जो कार्य-सहायक आते थे वह भी ना आ पा रहे थे।

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कुछ दिन तो सबके यूं ही निकल गए पर अब सब पर इस गृह-कारावास का असर दिखने लगा था। मुस्कान की मम्मी सारा दिन घर का काम करने में व्यस्त रहती और उसके पापा भी ऑनलाइन काम के चलते ज़्यादा व्यस्त रहने लगे। दोनों चाह कर भी मुस्कान को समय ना दे पाते। मुस्कान के पास वैसे तो ढेरों खिलौने थे पर खिलौनों के संग खेलने के लिए किसी सखी-सहेली का होना, खिलौनों से ज़्यादा मायने रखता है। पढ़ाई के लिए ऑनलाइन क्लास तो थी पर कैमरे में से सिखाती अध्यापिका से पढ़ने में वो मज़ा कहां? स्कूल में रहकर स्कूल की अतिरिक्त गतिविधियों में हिस्सा लेना, टिफिन-ब्रेक में बच्चों के साथ मिलकर खाना फिर खेलना, बच्चों में सार्वभौमिक विकास तो करता ही है साथ ही उनकी दिनचर्या को भी सुनिश्चित और सुनियमित करता है। पर अब वो नियमितता नहीं थी। चंचल भी खेलने नहीं आ पा रही थी तो मुस्कान बिल्कुल अकेली-सी हो गई थी। उसकी उदासी को भांप एक दिन मुस्कान की मम्मी ने दोनों की फोन पर बात करवाई,

“हैलो चंचल!”

“हां मुस्कान!”

“तू कब आएगी हमारे घर खेलने?” मुस्कान ने पूछा।

“मम्मी लेकर ही नहीं आती मुझे!” चंचल ने मुंह बनाते हुए जवाब दिया।

“मेरे पास नई ब्लॉक-गेम है। तू आजा। दोनों मिलकर उससे घर बनाएंगे।” मुस्कान ने थोड़ा उत्सुक होकर कहा।

“अच्छा! मैं मम्मी से बोलती हूं कि वह मुझे तुम्हारे यहां छोड़ आए।” चंचल ने प्रसन्नता जाहिर करते हुए कहा और अपनी मम्मी की तरफ मुड़कर मुस्कान के घर जाने की जिद्द करने लगी पर चंचल की मम्मी ने किसी बहाने से उसे शांत कर दिया।

दोनों बच्चियां अपने-अपने घरों में ऐसे कैद थीं जैसे बिल्ली के डर से चिडिया को पिंजरे में बंद कर दिया जाए। एक-दो दिन बीतते फिर से दोनों मिलने की जिद्द पकड़ लेतीं। मुस्कान के बड़े से घर के खुले आंगन में, पेड़ों की घनी छाया के नीचे, साफ-सुथरे माहौल में, चारदीवारी की निगरानी में उन्मुक्त खेलना दोनों को रह-रहकर याद आता। दोनों जब छुपन छुपाई खेलतीं तो कितना मज़ा आता था, यह याद कर चंचल रूआंसी सी हो गई,

“तू कहां छुप गई?, चंचल री!”

मुस्कान इधर-उधर ढूंढते चंचल को आवाज़ लगाती। चंचल जो कि पेड़ के पीछे छुपी खड़ी होती, अपनी हंसी को होठों पर हाथ रख छुपाने की कोशिश करती पर इस मद्धम सी आवाज़ की आहट से ही मुस्कान को उसके छुपने की जगह का पता चल जाता और वह कहती,

“चंचल देख! मैं तुझे ढूंढ ही लूंगी।”

और मुस्कान भाग कर उसे पेड़ के पीछे से निकाल अपनी बाहों में कस लेती। दोनों फिर खिलखिला कर हंस पड़ती। हवा में तैरती उन की हंसी से पेड़ों की शाखाएं भी जैसे हिलोरे लेती नज़र आतीं। बच्चों की बेफिक्र हंसी कहीं के भी वातावरण को आशावादी बना देती है।

पर अब घर में कैद होकर सब परेशान हो रहे थे। कोई तो काम कर कर के परेशान तो कोई बिना काम के, बिना कमाई के परेशान। “मुस्कान” और “चंचल” भी चिड़चिड़ी और जिद्दी बनती जा रही थीं। इसी बीच जब सरकार ने कयूं में कुछ ढील दी तो चंचल की मम्मी ने काम पर वापस जाने का मन बनाया। कशमकश में वह मुस्कान के घर की ओर चल दी। घंटी बजाई तो मुस्कान की मम्मी ने दरवाज़ा खोला,

“नमस्ते दीदी”

“नमस्ते! कैसी हो तुम?” मुस्कान की मम्मी ने जवाब दिया।

“ठीक हैं, दीदी! पर काम के बिना समय ही नहीं निकलता।” चंचल की मम्मी ने कुछ शिकायती लहजे से कहा।

“हां और मेरा काम ही खत्म नहीं होता।” मुस्कान की मम्मी थोड़ा हंस कर बोली।

“इतने में चंचल की मम्मी की आवाज़ सुन मुस्कान दौड़ी आई। चंचल को उनके साथ ना देख कर मुस्कान बोली,

“आंटी! आप चंचल को नहीं लाए अपने साथ?”

“नहीं बेटा! वह घर पर ही है।”

“आप उसको भी तो लाती ना अपने साथ!” मुस्कान ने थोड़ा मुंह बनाकर बोला।

“अगली बार लाऊंगी, गुड़िया!” चंचल की मम्मी ने पुचकारते हुए कहा और उसकी मम्मी से थोड़ा झेंपते हुए पूछा,

“क्या मैं काम पर आ जाया करूं? दीदी!”

मुस्कान की मम्मी ने (थोड़ा रुककर) बोलना शुरू किया,

“ना जाने यह बीमारी कब जाएगी। हालात समझ में ही नहीं आ रहे।”

“हां, यह तो है।” चंचल की मम्मी ने हल्की सांस छोड़ते हुए कहा।

“मुस्कान” को अपनी गोद में बिठाते हुए मुस्कान की मम्मी बोली,

“मैं इनसे बात करके तुम्हें फोन पर बताती हूँ। ठीक है?”

ठीक है, दीदी!”

“अब मैं चलती हूं।” चंचल की मम्मी उठ खड़ी हुई।

मुस्कान की मम्मी चाह कर भी चंचल की मम्मी को काम पर वापस बुलाने में हिचक रही थी। उसे डर था कि कहीं किसी दिन उसके साथ कोरोना की बीमारी उनके घर प्रवेश ना कर जाए।

उधर चंचल की मम्मी मायूस होकर वापस चली गई। जब से चंचल के पापा की नौकरी छूटी थी तो कमाई का कोई साधन ना होने से घर के हालात काफी ख़राब हो रहे थे।

चंचल की मम्मी के जाने के बाद मुस्कान उदास होकर चुपचाप अपने कमरे में जाकर गुमसुम बैठ गई। कोरोना शारीरिक ही नहीं मानसिक रूप से भी सबको बीमार कर रहा था और बच्चे इसके सबसे ज्यादा शिकार हो रहे थे। आए दिन नकारात्मक खबरों के चलते हर तरफ निराशावादी माहौल बन रहा था। इसी से उबरने के लिए एक दिन मुस्कान की मम्मी ने एक सुझाव मुस्कान के पापा से साझा किया।

“सुनो! अगर हम चंचल के परिवार को हमारे यहां ऊपर वाला कमरा दे तो “ऐसे हालात में?”

लैपटॉप से आंखें हटा मुस्कान के पापा ने उत्सुकता से पूछा।

“हां…., अगर वह लोग हमारे यहां ही रहेंगे तो काफी हद तक संभव है कि वे कोरोना से भी बचे रहें।” मुस्कान की मम्मी ने सुझाया।

“और जब वे राशन-पानी लेने बाहर जाएंगे तब?” मुस्कान के पापा ने सवाल किया।

“उसके लिए तो हम भी सहायता कर सकते हैं ना!” मुस्कान की मम्मी बिस्तर पर पड़ी चीजों को व्यवस्थित करते हुए बोली।

“दूसरा इस बीमारी में हर कोई अपना पूरा-पूरा ध्यान रखना चाहता है। यहां वे भीड़भाड़ वाले इलाके से दूर खुले और साफ वातावरण में रहेंगे तो जल्दी बीमार होने का भी डर नहीं।”

मुस्कान की मम्मी अपने सोचे पहलुओं पर बोलती जा रही थी।

“मुस्कान की हालत तो आप देख ही रहे हैं। दोनों बच्चे पास-पास रहेंगे तो इकट्ठे पढ-खेल भी लेंगे और खुश भी रह पाएंगे।”

“दूसरा मुझे भी गृह-कार्य में दो लोगों की सहायता मिल जाएगी।”

मुस्कान की मम्मी ने तकिए का गिलाफ़ चढ़ाते हुए थोड़ी राहत की सांस छोडते हए जवाब दिया

“हूं!” पूछ कर देख लो उन लोगों से!

मुस्कान के पापा ने संक्षिप्त-सा जवाब देकर दोबारा अपनी नज़रें लैपटॉप पर टिका दीं।

अगले दिन मुस्कान की मम्मी ने फोन पर चंचल की मम्मी को यह प्रस्ताव सुनाया। इस प्रस्ताव से चंचल की मम्मी को तो जैसे “मुंह मांगी मराद” मिल गई हो। चंचल के पापा ने भी अपनी सहमति दे दी। जल्दी ही वे लोग मुस्कान के घर शिफ्ट हो गए। अब दोनों बच्चियां फिर से इकट्ठ खेलने-पड़ने लगीं। घर भी सुव्यवस्थित हो गया। बड़ों को बड़ों का और बच्चों को बच्चों का साथ मिल गया। एक परिवार दूसरे परिवार का सहारा बना तो दोनों परिवार एक परिवार जैसे हो गए। बच्चों की स्वच्छंद हंसी से शांत खड़ा मकान आशावादिता से हरा-भरा लगने लगा। अपनी दोस्ती की महक से दो कलियां फिर से मुस्कुराने और महकने लगीं। सच है, बच्चों की खुशी से बढ़कर इस दुनिया में और कोई खुशी नहीं।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’

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