बर्थ पर पहुंचते ही उन्होंने चारों ओर नजरें घुमाई, सभी यात्री अपनी दुनिया में खोये हुए थे। कोई लैपटॉप तो कोई फोन में व्यस्त था। 1-2 यात्री मोटे-मोटे इंग्लिश नावेल पर अपनी नजरें गड़ाए हुए थे। उनके साथ उनकी बेटी गिन्नी और उसके बच्चे स्पर्श और आरुष थे, जिनकी उम्र 6 और 4 वर्ष थी। बच्चे तो आखिर बच्चे ही थे, बस शुरू हो गई धमाचौकड़ी, कभी भूख लगी है, तो कभी पानी की प्यास तो कभी इधर भाग, उधर भाग। सन्नाटे को चीरते हुए कोलाहल से वह लज्जित हो उठी थीं। उन्होंने दोनों बच्चों को डांटने के अंदाज में इशारे से चुप बैठने को कहा। आंखों ही आंखों के इशारे से उन्होंने बेटी से भी बच्चों को शांत रखने के लिए कहा था।

वैसे इन बच्चों की बालसुलभ क्रीड़ायें सभी यात्रियों को मुस्कुराने पर मजबूर कर रही थी। फिर भी बच्चों का शोरगुल उन्हें अटपटा लग रहा था। सामने की बर्थ पर एक अभिजात्य वर्गीय दक्षिण भारतीय महिला बैठी हुई थी। उनकी उम्र लगभग 45 वर्ष, पक्का सांवला रंग, गोल्डेन फ्रेम के चश्मे से झांकती बड़ी-बड़ी आंखों, नुकीली नाक के बांई ओर हीरे की लौंग, लिपस्टिक से रंगे हुए होठ, घने काले घुंघराले केश। गले में लगभग 15 तोले की मोटी सोने की चेन और साथ में उतना ही लंबा और भारी मंगलसूत्र, कलाई में हीरे के कंगन, लाल चौड़े बॉर्डर की प्योर सिल्क की साड़ी, उनके धनी होने की कहानी कह रही थी। फर्राटेदार इंग्लिश में पड़ोसी यात्री से धीरे-धीरे कुछ बात कर रही थी।

उनके व्यक्तित्व से आतंकित होकर वह स्वयं में सिमट कर बैठी थीं। अनायास उन्होंने टूटी-फूटी हिन्दी में उनसे वार्तालाप आरंभ किया। वार्तालाप का माध्यम आरुष था। बातों ही बातों में वह कविताजी से घुल-मिल गई। वह हिन्दी भाषा समझ लेती थीं परंतु बोलने में कच्ची थीं।

लक्ष्मी अयंगर ने अपना परिचय देते हुए बताया कि वह आई.ए.एस. अधिकारी की पत्नी हैं। वह अपने भाई के पास बंगलौर जा रही हैं। वह बार-बार अपने पति वेंकट की बातें कर रही थीं। उनकी पसंद नापसंद का जिक्र कर रही थीं।

वह स्पर्श और आरुष के आकर्षण में बंध गई थीं। उनके साथ उन्मुक्त होकर बच्चों की तरह खेल रही थीं। कभी उनसे तुतला कर बात करती, कभी बॉल खेलती वह स्वयं बिल्कुल बच्ची बनी हुई थी। दोनों बच्चों के साथ खेलते हुए उनकी खुशी और उल्लास देखने लायक थी। कविताजी के मन में उत्कंठा हुई और वह लक्ष्मीजी से पूछ बैठी थी, ‘आपके बच्चे?’

कविताजी के शब्दों को सुनते ही उनकी खुशी काफूर हो गई थी, उनका चेहरा सफेद पड़ गया। वह एकदम से गंभीर हो उठी थीं। उन्हें लगा कि उन्होंने कोई गलती कर दी है। संभवत: उनकी दुखती रग छेड़ दी थी

कुछ क्षणों के लिए वह एकदम चुप हो गई थी। थोड़े अंतराल के बाद सामान्य होने की कोशिश करते हुए वह बोलीं, ‘वह उच्च शिक्षा प्राप्त गोल्ड मेडलिस्ट धनी महिला हैं। उनके पास कोठी, बंगला, कार, इज्जत, शोहरत, नौकर-चाकर सब कुछ है, नहीं है तो एक अदद बच्चा! एक बार कुछ उम्मीद हुई थी परंतु एक हादसे में सब कुछ समाप्त हो गया।

ससुराल पक्ष के दबाव में पति बच्चा गोद लेने को राजी नहीं हुए। कहते हैं पराया खून पराया ही होता है, कभी अपना नहीं हो सकता। इसलिए मन के किसी कोने में मां न बनने का दर्द कचोटता रहता है। धन, पद, प्रतिष्ठा सब कुछ होते हुए भी मातृत्व के बिना स्वयं को अधूरा मानती हूं। अपने जीवन से निराश समाज सेविका बन गई हूं। गरीब बच्चों की सेवा के माध्यम से अपनी कुंठा को भूलने का प्रयास करती रहती हूं।’

उनकी बातें कविताजी के दिल की गहराई में उतर गई। वह स्तंभित होकर सोचने को विवश हो गईं कि क्या स्त्री की पूर्णता सिर्फ मातृत्व में ही है।

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