षड्यंत्र-गृहलक्ष्मी की कहानियां: Hindi Story
Shandyatra

Hindi Story: “मां जी! घर में शादी है.. मेहमान आने शुरू हो गए हैं और …कल रात से मन्नू का बुखार उतर नहीं रहा ऐसे में मैं उसे देखूं या रसोई…कुछ समझ में नहीं आ रहा है ..” शुचिता की घबड़ाहट से लता जी बिल्कुल भी विचलित नहीं हुई।

”तू परेशान न हो शुचि ..दोनो भाईयों से स्नेह रखने वाली इनकी मुँहबोली बहन है न.. वही छोटे की शादी संभालेगी..!”

शुचिता समझ नहीं पाई तो कौतुहलवश पूछ बैठी,

“कौन मां जी..क्या मैं जानती हूं उन्हें?”

“हां हां! निम्मो को कौन नहीं जानता.. तू भी पहचानती है उसे!”

“अच्छा.. हां! भाई दूज पर आई तो थी..मगर वह तो ससुराल में होंगी न?”

“नहीं री…पिछले दिनों जब तू मायके में थी तभी उसके साथ एक बड़ा हादसा हो गया …ख़ैर फुर्सत से बताऊंगी अभी जाकर मेरे पोते को संभाल “ यह कहकर लता जी निम्मो के घर की ओर निकल पड़ीं।

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निम्मो जिसका असली नाम नीलिमा था। पिता की बड़ी लाडली थी। पिता हरिलाल गांव के प्रधान थे और मां पक्की गृहस्थन। उनका पूरा दिन अनाज खलिहान सहेजने व मजदूरों से काम लेने में निकलता था। तीन बड़े भाइयों की इकलौती बहन उम्र में सबसे छोटी थी जिसमें सबकी जान बसती थी। बड़े भाइयों और निम्मो की उम्र में बहुत फासला था। दरअसल पिता अधेड़ हो चले थे मगर बिटिया के शौक कारण ही उन्होंने पत्नी को एक बार फिर प्रसूति गृह का मार्ग दिखाया।

निम्मो का जन्म ईश्वर की असीम अनुकम्पा लगी। घर गृहस्थी से ऊब चुके दंपति के घर- आंगन में बेटी का खिलखिलाना जैसे किसी गरीब को दिवाली पर बोनस मिलने जैसा था। बिटिया को पूरे समय अपनी नज़रों के सामने रखते खूब लाड़ जताते। धीरे – धीरे निम्मों बड़ी होने लगी। भाइयों के साथ जब स्कूल पहुंचती तो मजाल था कि कोई उसकी ओर आँख उठाकर भी देख ले। लड़के तो लड़के लड़कियां भी बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पातीं। घर में काम काज के लिए भाभियां थीं। स्कूल से आते ही निम्मो बस्ता फेंक कर सो जाती तो मां या बाबा के जगाने पर ही जागती। इस तरह वह अल्हड़ किशोरी पहले हाई स्कूल फिर इंटर पास कर गई। नब्बे के दशक में छोटे गांव में कॉलेज था नहीं तो उसकी पढ़ाई लिखाई ठंडे बस्ते में चली गई। जवान बिटिया को अकेली शहर पढ़ने भेजने से श्रेयस्कर उसका विवाह करना लगा और हरिलाल जी ने धूमधाम से एक सुयोग्य वर देख कर उसका विवाह रचा दिया।

मगर सोचा हुआ कब होता है। विवाह के मास दिन भी न बीते कि सब कुछ बदल गया। बदलाव प्रकृति का नियम है मगर ऐसे क्रूर बदलाव पर तो रूह काँप जाती है। यही सब सोचती लता जी नीलिमा के आंगन जा पहुंची। नीलिमा के चेहरे पर नज़र पड़ते ही उन्होंने अपनी भीगी आँखें चुरा लीं। विवाह के दिन वह कितनी खुश थी। उसके सांवले- सलोने चेहरे पर सोने के बड़े बड़े झुमके कैसे डोल रहे थे। लाल बनारसी पहन कर जो लाली दुल्हनियां विदा हुई थी वह आज एक परित्यकता के रूप में अत्यंत दयनीय दिख रही थी। धुंधली आंखों में जो चेहरा नज़र आया वह उस रूपसी से कितना अलग था। लता ने थोड़ी हिम्मत जुटाई और कहने लगी,

“निम्मो.. मेरी प्यारी निम्मो सुन…तेरे जीतू भाई की शादी है ..मेहमान आने लगे हैं …थोड़ा संभाल देगी..भाभी का बच्चा छोटा है न उससे कुछ न किया जा रहा.…इसलिए तुझे यह जिम्मेदारी सौंप रही हूं।”

“हां काकी क्यों नहीं…आजकल मेरा वक्त नहीं कटता ऐसे भी घर में खटती ही रहती हूं! वहां कम से कम आप सभी का स्नेह मिलेगा।” उसकी बातों से निराशा साफ़ झलक रही थी पर लता जी ने उस वक्त कुछ भी बोलना ठीक न समझा।

गांव का समाज बदलते परिवेश से अछूता थोड़े ही था। भाई तो वैसे भी अपने परिवार की फ़िक्र में जीते हैं। माता पिता की भी एक उम्र ढ़लने के बाद अपनी मजबूरियां होती हैं। निम्मों जो एक मास पहले तक दुनियादारी से अंजान थी वह सहसा समझदार हो गई थी। जिसने कभी खुद पानी लेकर न पीया हो वह घर संभालना सीख गई थी।

खैर अगले दिन सुबह जब निम्मों घर आई तो सबसे पहले लता जी ने शुचिता को चाय बनाने के बहाने व्यस्त किया और उसे साथ लेकर अपने कमरे में चली आईं।

“तुझे बुरा न लगे बेटी इसलिए अबतक न पूछा था..सच- सच बता कि हुआ क्या था…खुशी खुशी शादी कर जो दूल्हा संग ले गया वह चंद दिनों में बदल कैसे गया…?”

“क्या बताऊं काकी…मैं तो जैसे घर में रहती थी वैसे ही रह रही थी। मुझे पता नहीं लगा कि किससे बात करूं किससे नहीं। मेरे ननदोई मुझे अक्सर चिढ़ाते रहते। मुझे उनमें अपने भैया नज़र आते थे। उस रोज घर में सत्यनारायण पूजा थी। पूजा की धोती लेने जब अपने कमरे में आई तो मुझे अकेली देख उन्होंने सामने से दबोच लिया। मेरी चीख ही निकल गई। मेरी आवाज पर जब रमेश कमरे में आए तो साथ ही ननद भी आ गई और फिर….” कहकर वह सुबकने लगी।

“बोल बच्चे क्या हुआ तेरे साथ..?” उसके आंसू सीने पर भार स्वरूप थे जिसे हटाना जरूरी हो गया था।

“ननद चिल्ला- चिल्लाकर रोने लगी तो ननदोई ने मौके पर चौका लगाया। सारा दोष मुझपर मढ़ दिया। रमेश बड़ी बहन की इज़्ज़त करते हैं। इससे पहले कि मैं कुछ सोच – समझ पाती माजरा पूरा ही बदल चुका था। बहनोई के बहकावे में आ चुके रमेश सबके सामने ऊटपटांग बोलने लगे।”

“तुमने समझाने की कोशिश नहीं की?”

“एक तरफ़ बहन की ज़िंदगी और दूसरी ओर मैं अकेली…उनकी भी क्या गलती है? वह मुझे जानते ही कितना थे। मेरे चरित्र पर लांछन लगाकर मुझे यहां भेज दिया और अपने परिवार को सहेज लिया। अब आप ही बताइए कि इसमें मैं क्या कर सकती थी…अब होश आ रहा है तो आस – पड़ोस को मदद कर मन लगा रही हूं। घर वालों का इतना आसरा ही बहुत है कि रहने खाने की दिक्कत नहीं है!”

“मन छोटा न करो बेटी और नई ज़िंदगी शुरू करो। जिसने तुम्हारी बात तक न सुनी उससे न्याय की उम्मीद बेकार है। जहां कद्र न हो उस राह जाना ही क्यों है। तुम अपने उत्थान में मन लगाओ।”

उसे ऐसा समझाया मगर उसकी दुख भरी बातें सुनकर सन्न रह गईं थीं। उन्हें सपने में भी अंदाज़ा नहीं था कि इतने नाजों पली लड़की के साथ ऐसा कुछ हो सकता है? यह भली प्रकार समझ गईं कि नीलिमा ननद नन्दोई के साजिश का शिकार हुई है। दोनों ने मिलकर एक षड्यंत्र रचा और नीलिमा पर चारित्रिक लांछन लगाकर घर से बेघर कर दिया। यह दोष मायके वालों को अपनी इज़्ज़त पर आँच लगी तो वे हाथ बांधकर बैठ गए। वैसे भी कोर्ट केस और पुलिस जायदाद दिला सकते थे प्रेम नहीं। सच ही कहा गया है कि स्त्री का जीवन दूध के कटोरे सा होता है। दो बूंद नींबू का रस उसके अस्तित्व को खराब कर सकता है।

उसे सुनकर मन में एक ख्याल बलवती हो गया कि क्यों न इस गांव की लड़कियों व महिलाओं के उत्थान के लिए उन्हें और शिक्षित किया जाए। उन्हें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाया जाए ताकि भविष्य में वह किसी किस्म की साजिश का शिकार न हों। वे अपने चरित्र के स्कैनिंग के लिए दूसरों पर निर्भर न हों। अपने भाग्य की निर्माता स्वयं बने।

जीतू के विवाह के कुछ दिनों बाद ही लता जी ने नीलिमा के पिता के सहयोग से “नीलिमा कार्यशाला” की स्थापना की जिसमें गांव की सभी लड़कियां सिलाई कढ़ाई एवं बुनाई की ट्रेनिंग करने लगीं। उनके बनाए सामान को बाजार तक पहुंचाने का कार्य लता जी के बेटे करने लगे। आखिर क्यों न करते वह उनकी मुँहबोली बहन जो थी। नीलिमा के साथ- साथ गांव की हर महिला आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होती चली गई।