Hindi Katha: पूर्वकाल में अग्नि के भाई जातवेदा देवताओं के पास हविष्य (भोग) पहुँचाया करते थे। एक बार गौतमी के तट पर ऋषि-मुनिगण यज्ञ कर रहे थे और जातवेदा देवताओं का हविष्य वहन कर रहे थे। उसी समय दिति के परम शक्तिशाली पुत्र मधु ने देखते-ही-देखते जातवेदा को मार डाला। उनके मरने से देवताओं को हविष्य मिलना बंद हो गया।
जब अग्निदेव को अपने भाई की मृत्यु का समाचार मिला तो वे क्रोधित होकर गौतमी गंगा के जल में समा गए। उनके जल में प्रवेश करने पर देवताओं और मनुष्यों का जीवन संकट में पड़ गया। तब देवगण, पितृ, ऋषि, मुनि आदि उस स्थान पर आए, जहाँ अग्निदेव जल में प्रविष्ट हुए थे और उनकी स्तुति करते हुए बोले “ अग्निदेव ! आप हविष्य द्वारा देवताओं को, श्राद्ध से पितृों को और अन्न को पचाने एवं बीजों को गलाने आदि के द्वारा मनुष्यों को जीवन दान दीजिए।
तब अग्निदेव जल के भीतर से ही बोले – “देवगण ! मेरा छोटा भाई, जो इस कार्य में सक्षम था, उसे आप सबके समक्ष ही मार डाला गया। आपका कार्य करते हुए जातवेदा की जो गति हुई है, वैसी गति मेरी भी हो सकती है। इसलिए मुझे आपके कार्य-साधन में उत्साह नहीं है । ‘
उनकी बात सुनकर देवगण विनती भरे स्वर में बोले अग्निदेव ! हम आयु, कर्म करने में उत्साह और सर्वत्र व्याप्त होने की शक्ति प्रदान करते हैं। आप ही देवताओं के श्रेष्ठ मुख होंगे। यज्ञ की प्रथम आहुति आपको ही मिलेगी। आप जो द्रव्य हमें देंगे, वही हम ग्रहण करेंगे।
इस प्रकार अग्निदेव निर्भय हो गए। जातवेदा, बृहद्भानु, सप्तार्चि, नीललोहित, जलगर्भ, शमीगर्भ और यज्ञगर्भ – इन नामों से प्रसिद्ध होकर वे जातवेदा और अग्नि – दोनों ही पदों पर सुशोभित हुए।
