Mulla Nasruddin
Mulla Nasruddin

Mulla Nasruddin ki kahaniya: छत पर बूढ़ा नयाज खाँसता, खरखर साँस लेता कुनमुनाया। उसने नींद भरी आवाज़ में को पुकारकर पानी माँगा ।
गुलजान ने धीरे से मुल्ला नसरुद्दीन को दरवाज़े की ओर हल्के से धकेल दिया। वह जीने से हल्के पाँव उतरा और मुँह-हाथ धोकर अपने लबादे के दामन से मुँह पोंछता हुआ फिर लौट आया और लकड़ी के फाटक को खटखटाने लगा।

अस्सलामवालेकुम नसरुद्दीन !’ नयाज ने छत से ही उसका स्वागत किया? पिछले कई दिनों से तुम बहुत तड़के उठने लगे हो। सोने का वक्त तुम्हें कब मिलता है। चलो काम शुरू करने से पहले कहवा पी लें। ‘

दोपहर में नसरुद्दीन गुलजान के लिए तोहफ़ा ख़रीदने बाज़ार की ओर चल पड़ा। उसने बदख्शा का रंगीन साफा बाँध लिया। नकली दाढ़ी लगा ली। इस तरह वेश बदलने पर वह पहचाना नहीं जाता था और जासूसों के डर के बिना दुकानों और कहवाख़ानों में चला जाता था।
वापसी में नसरुद्दीन ने बाज़ार की मस्जिद के पास भीड़ देखी। लोग घिचपिच खड़े गर्दनें उठाए एक-दूसरे के कंधों के पास कुछ देख रहे थे।
पास आने पर नसरुद्दीन को एक चिड़चिड़ी और ऊँची आवाज़ सुनाई दी-

‘ए मोमिनो! अपनी आँखों से देख लो। इसे लकवा मार गया है। दस साल से यह बिना हिले-डुले इसी तरह लेटा है। इसके बदन के हिस्से ठंडे और बेजान हो गए हैं। यह आँखें भी नहीं खोल पाता । बहुत दूर से हमारे शहर में आया है। इसके मेहरबान दोस्त और रिश्तेदार इसे यहाँ इसलिए लाए हैं कि जो एक इलाज् बच गया है, उसे भी आजमा लें। एक हफ्ते बाद इसे पाकवली बहाउद्दीन के उर्स के दिन मजार की सीढ़ियों पर लिटा दिया जाएगा। हज़ारों अंधे, लँगड़े, अपाहिज चंगे हो चुके हैं। ऐ मुसलमानो, दुआ करो कि पाक शेख इस पर करम करें और इस बदकिस्मत को चंगा कर दें । ‘

लोग दुआ करने लगे।

वही तेज़-तर्रार आवाज़ फिर सुनाई दी-
‘ऐ मोमिनो, अपनी आँखों से देख लो। यह आदमी दस साल से बिना हिले-डुले इसी तरह पड़ा है। ‘
नसरुद्दीन धक्का देकर भीड़ में आगे बढ़ गया। उसने पंजे के बल उचककर उसे लंबे, दुबले, पतले व्यक्ति को देखा, जिसकी आँखें छोटी और शरारत भरी थीं। चेहरे पर कच्ची दाढ़ी थी। वह चिल्ला-चिल्लाकर अपनी उँगली से अपने पैरों के पास पड़ी एक चारपाई की ओर इशारा कर रहा था, जिस पर लकवा मारा आदमी लेटा हुआ था।
ऐ मुसलमानो देखो, कितना बदकिस्मत, कितना रहम के काबिल है यह आदमी! लेकिन एक हफ्ते में बहाउद्दीन वली इसे चंगा कर देंगे और इसे नई ज़िंदगी मिल जाएगी । ‘
बीमार आधी आँखें मूँदे, चेहरे पर उदासी लिए, मुर्दे की तरह राहत की भीख माँगता चारपाई पर पड़ा था। नसरुद्दीन ने आश्चर्य से साँस ली। चेचक के दागों से भरे इस चेहरे और चपटी नाक को वह हज़ारों के बीच भी पहचान सकता था। शायद वह बहुत दिनों से चारपाई पर पड़ा था। आलस्य और आराम ने उसके चेहरे को बहुत मोटा कर दिया था।

उस दिन के बाद जब भी नसरुद्दीन उस ख़ास मस्जिद के सामने से गुज़रता उस दुबले-पतले लकवे के शिकार उस आदमी को देखना न भूलता, जिसके चेचक के दागों से भरे चेहरे पर चर्बी चढ़ती चली जा रही थी।

आखिर शेख़ बहाउद्दीन के उर्स का दिन आ गया। परंपरा के अनुसार रबी – उस्सानी के महीने में (मई में) दोपहर को उनका इन्तकाल हुआ था।

आकाश में बादल नहीं थे। दिन साफ़ था । लेकिन उनकी मौत के समय सूरज धुँधला गया था। ज़मीन काँप उठी थी। बहुत से घर, जिनमें गुनहगार रहते थे, गिर गए थे और गुनहगार उन्हीं के नीचे दबकर मर गए थे। मौलवी मस्जिदों में यह कहानी सुनाकर मुसलमानों को हिदायत करते थे कि वे शेख़ के मजार पर आएँ ताकि उनकी किस्मत भी उन गुनहगारों जैसी न बन जाए ।

अभी अँधेरा था। जियारत करने वाले घरों से निकल पड़े। सूरज निकलते-निकलते मजार के आसपास की जगह लोगों से खचाखच भर गई। पुराने रिवाज के अनुसार लोग नंगे पाँव थे, जो बहुत दूर से आए थे या वे धार्मिक विचारों के थे, जिन्होंने कोई भारी गुनाह किया था। शौहर बाँझ बीवियों को और माँ अपने बीमार बच्चों को लेकर आई थीं। लँगड़े बैसाखियों के सहारे आए थे। वे सब मजार के सफ़ेद गुम्बद पर उम्मीद भरी नज़रें जमाए खड़े थे।

अमीर का इंतज़ार था, इसलिए इबादत भी शुरू नहीं हुई थी। सूरज की झुलसा देने वाली धूप में लोगों को बैठने की हिम्मत नहीं हो रही थी। उनकी आँखों से लालच और भूख भरी लपटें निकल रही थीं। इस दुनिया में सुख पाने की आशा से वंचित वे किसी चमत्कार की प्रतीक्षा कर रहे थे।

दो दरवेशों को हाल आ चुका था। वे ज़मीन में मुँह गड़ाए मिट्टी खा रहे थे। उनके मुँह से खून बह रहा था। औरतें चीख़ रही थीं।

अचानक हज़ारों गलों से दबी दबी आवाज़ फूट पड़ी-
‘अमीर- अमीर । ‘

महल के पहरेदारों ने लाठियाँ घुमा घुमाकर भीड़ में रास्ता बनाया। उस रास्ते पर अमीर मजार की ओर बढ़ने लगे। नंगे पाँव, झुका सिर, आसपास के शोरगुल से बेख़बर, पाक ख़्यालों में डूबे हुए। नौकरों की फौज़ चुपचाप पीछे-पीछे चल रही थी। वे अमीर के आगे कालीन बिछाने और आगे बढ़ जाने पर उसे लपेटकर फिर आगे बिछाने के लिए भाग-दौड़ कर रहे थे।
अमीर उस मिट्टी के ढेर के पास पहुँच गए, जो मजार के सामने था। वहाँ नमाज पढ़ने के लिए कपड़ा बिछाया गया। दोनों ओर खड़े वज़ीरों ने सहारा दिया । अमीर घुटनों के बल बैठ गए। सफ़ेद लबादे वाले मुल्ला आधा दायरा बनाकर उनके पीछे आ खड़े हुए और धुँधले गर्म आसमान की ओर हाथ उठाकर ज़ोर-ज़ोर से आयतें पढ़ने लगे।
इबादत का न ख़त्म होनेवाला सिलसिला जारी हो गया। बीच-बीच में नसीहत की तकरीरें होती रहतीं।
नसरुद्दीन भीड़ की नज़रें बचाता एक वीरान कोने वाली उस कोठरी कें पास चला गया, जहाँ अंधे, लँगड़े-लूले और बीमार रखे गए थे। वे अपनी बारी आने का इंतज़ार कर रहे थे।
कोठरी के दरवाज़े खुले थे। लोग अंदर झाँक – झाँककर पूछताछ कर रहे थे। ख़ैरात लेने के लिए मौलवी ताँबे के बड़े-बड़े थाल लिए खड़े थे। बड़ा मौलवी कह रहा था-
‘ तभी से शेख बहाउद्दीन पाक वली की दुआ हमेशा-हमेशा के लिए सूरज की तरह बुखारा शरीफ़ के अमीर और यहाँ के रहनेवालों पर जगमगा रही है। हर साल इसी दिन शेख बहाउद्दीन वली खुदा के हम नाचीज़ बंदों को चमत्कार दिखाने की ताक़त बख्शते हैं। ये अंधे, लँगड़े-लूले, जिनों और भूत-प्रेतों के मारे और बीमार अपने दुखों और बीमारियों से छुटकारा पाने का इंतज़ार कर रहे हैं। हमें उम्मीद है कि हम शेख बहाउद्दीन वली की मदद से इन्हें तकलीफों से छुटकारा दिला देंगे। ‘
इस तकरीर के जवाब में कोठरी के भीतर से रोने, चीखने और दाँत किटकिटाने की आवाजें आने लगीं। अपनी आवाज़ को और ऊँची करते हुए मौलवी ने कहा, ‘खुदा पर ईमान रखने वाले मुसलमानो, मस्जिदों की देखभाल के लिए खुले दिल से ख़ैरात दो, अल्लाह तुम्हारी खैरात कबूल करेगा। ‘
नसरुद्दीन ने कोठरी के भीतर झाँककर देखा, दरवाज़े के पास ही मोटे थुलथुल, चेचक के दागों वाले चेहरे वाला चारपाई पर पड़ा था। उसके पास ही पट्टियों में लिपटे खटोलों पर पड़े अपाहिजों और बैसाखियों की मदद से चलने वाले लँगड़ों की भीड़ थी।
अचानक मजार की ओर से बड़े मौलवी की आवाज़ आई, ‘उस अंधे आदमी को मेरे पास लाओ। ‘

नसरुद्दीन को धकेलते हुए कई मौलवी अँधेरी कोठरी में घुस गए और भिखमंगों जैसे फटे-चीथड़े वाले अंधे आदमी को निकालकर ले आए। अंधा हाथों को आगे बढ़ाए टटोलते हुए, पत्थरों से लड़खड़ाता गिरता पड़ता आगे बढ़ रहा था ।

वह बड़े मौलवी के सामने पहुँचा और मुँह के बल उसके क़दमों में गिर गया। उसने अपने होंठ मजार की सीढ़ियों पर चिपका दिए । बड़े मौलवी ने उसके सिर पर हाथ फेरा। वह फौरन चंगा हो गया।

‘मेरी आँखों की रोशनी लौट आई। मैं देख सकता हूँ। मैं देख सकता हूँ।’ काँपती हुई ऊँची आवाज़ में वह चिल्लाने लगा, ‘ऐ बहाउद्दीन वली, मुझे दिखाई देने लगा। मैं अब देख सकता हूँ। कैसा शानदार और अचंभे भरा चमत्कार हुआ है। वाह-वाह ।’

लोगों की भीड़ उसके पास घिर आई। वे उससे पूछने लगे, ‘बताओ, मैंने कौन-सा हाथ उठाया है? दायाँ या बायाँ?’

उसने हर एक के सवाल के ठीक-ठीक जवाब दिए। सबको यक़ीन हो गया कि वह सचमुच देखने लगा है।

तभी मौलवियों की फौज़ ताँबे के थाल लिए उस भीड़ में घुस आई और चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगी, ‘ऐ सच्चे मुसलमानो, तुमने अपनी आँखों से अभी-अभी एक चमत्कार देखा है। मस्जिदों की देखभाल के लिए कुछ ख़ैरात दो ।

‘ सबसे पहले अमीर ने मुट्ठी भर अशर्फियाँ थाल में डालीं। उसके बाद वज़ीरों और अफसरों ने थाल में एक-एक अशर्फी डाली। भीड़ भी दिल खोलकर चाँदी और ताँबे के सिक्के थालों में डालने लगी । थाल तेज़ी से भर रहे थे। मौलवियों को तीन बार थाल बदलने पड़े।.
फिर जैसे ही ख़ैरात में कुछ सुस्ती आई, एक लँगड़े को कोठरी से निकालकर लाया गया। और जैसे ही उसने मजार की सीढ़ियों को छुआ, उसने बैसाखियाँ फेंक दीं और टाँगें उठाकर चलने लगा।

मौलवी थाल लिए फिर भीड़ में घुस गए और चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगे, ‘ऐ मुसलमानो, तुमने अभी-अभी एक करिश्मा देखा है। ख़ैरात करो। तुम्हारी ख़ैरात का अल्लाह तुम्हें फल देगा। ‘

नसरुद्दीन ने काफ़ी ऊँची आवाज़ में कहा, ‘तुम इसे करिश्मा कहते हो और मुझसे ख़ैरात माँगते हो? पहली बात तो यह है कि खैरात के लिए मेरे पास फूटी कौड़ी नहीं है। और दूसरी बात यह है कि क्या तुम्हें मालूम नहीं कि मैं खुद एक पहुँचा हुआ फ़क़ीर हूँ और इससे भी बड़ा करिश्मा दिखा सकता हूँ।’
‘तू फ़क़ीर है?’ मुल्ला ज़ोर से चिल्लाया, ‘ऐ मुसलमानो, इसकी बात पर यक़ीन मत करना। इसकी जुबान से शैतान बोल रहा है। ‘
नसरुद्दीन भीड़ की ओर मुड़ा, ‘मौलवी को यकीन नहीं है कि मैं करिश्मे दिखा सकता हूँ। मैंने जो कहा है उसका सबूत दूँगा । इस छप्पर वाली कोठरी में अंधे, लँगड़े, बीमार बिस्तर पर पड़े हैं। मैं इन्हें हाथ लगाए बिना चंगा कर देने का दावा करता हूँ। मैं सिर्फ कुछ लफ्ज कहूँगा और ये लोग अपनी-अपनी बीमारियों से छुटकारा पा जाएँगे। खुद ही उठकर इतनी तेज़ी से भागने लगेंगे कि तेज़ अरबी घोड़े इन्हें पकड़ नहीं पाएँगे।’

छप्पर वाली कोठरी की मिट्टी की दीवारें पतली थीं और जगह-जगह से चटक रही थीं। नसरुद्दीन ने एक ऐसी जगह खोज ली थी, जहाँ दरारें बहुत ज़्यादा थीं। उसने अपने कंधे से वहीं धक्का दिया। थोड़ी सी मिट्टी गिर गई। मिट्टी के गिरने की हल्की सी सरसराहट हुई, नसरुद्दीन ने ज़ोर का धक्का मारा ।

इस बार मिट्टी का एक बड़ा सा लोंदा ज़ोरदार आवाज़ के साथ अंदर जा गिरा। दीवार के उस बड़े छेद से अँधेरे की ओर से गर्द उड़ती दिखाई दी।
नसरुद्दीन पागलों की तरह चीख उठा, ‘ज़लज़ला, भूचाल, भागो, दौड़ो, बचाओ, बचाओ।’

साथ ही उसने दीवार में एक धक्का और मारा, भरभराती हुई मिट्टी गिरने लगी।

एक पल तो कोठरी में सन्नाटा छाया रहा। लेकिन फिर हंगामा मच गया। सबसे पहले चेचक के दागों वाला मरीज दरवाज़े की ओर लपका। लेकिन उसकी खाट दरवाज़े में अड़ गई और पीछे से आने वालों का रास्ता रुक गया। अंधे, लँगड़े, बीमार और अपाहिज एक-दूसरे को धक्का देते हुए चिल्लाने लगे।
नसरुद्दीन ने दीवार में एक और धक्का मारा। तीसरा लोंदा गिरा और फिर एक ज़ोरदार धक्के के साथ सारे बीमार चेचक के दागों वाले आदमी और चूल – चौखट समेत दरवाज़े को बाहर ठेल अपनी बीमारी भूल निकल भागे ।
भीड़ ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगी। ताने कसने लगी। सीटियाँ बजाने लगी। शोर मचाकर बू-बू करने लगी। इस शोर को भी दबाने वाली ऊँची आवाज़ में नसरुद्दीन ने चीख़कर कहा, ‘देखा तुमने? मैंने कहा था ना कि मेरे कुछ लफ्ज ही उन्हें चंगा कर देंगे। ‘

मौलवी की नसीहत में लोगों की दिलचस्पी ख़त्म हो चुकी थी। जैसे-जैसे लोगों को इस घटना का पता चलता, वे ठहाके मारकर हँसने लगते। थोड़ी सी देर में ही लोगों को पता चल गया कि कोठरी में क्या हुआ था। जब बड़े मौलवी ने हाथ उठाकर लोगों को ख़ामोश हो जाने की हिदायत दी तो भीड़ ने और भी ज़ोर से सीटियों, गालियों और बू-बू के शोर-शराबे से जवाब दिया ।

‘नसरुद्दीन लौट आया। हमारा प्यारा नसरुद्दीन !’ की आवाजें गूँजने लगीं। चारों ओर शोर मच गया।

चिढ़ाने-चिल्लाने वाली आवाज़ों से घबराकर सारे मौलवी ख़ैरात से भरे थाल छोड़-छाड़कर भीड़ से निकलकर भाग गए। नसरुद्दीन तब तक बहुत दूर पहुँच चुका था। उसने अपना रंगीन साफ़ा और नकली दाढ़ी लबादे में छिपा ली थी।

इसलिए अब उसे जासूसों से मुठभेड़ होने का डर नहीं रहा था। वे सब मजार के आसपास ही खाक छान रहे थे।

लेकिन जल्दबाज़ी में नसरुद्दीन यह नहीं देख पाया कि सूदखोर जाफ़र उसका पीछा कर रहा है।

एक सूनी गली में पहुँच कर नसरुद्दीन एक दीवार के पास पहुँचकर हाथों से दीवार पकड़कर उछला और धीमे से खाँसा। फौरन हल्के क़दमों की आवाज़ के साथ किसी औरत की आवाज़ आई, ‘आ गए मेरे दिलबर ?’

पेड़ के पीछे छिपे सूदखोर को उस युवती की आवाज़ पहचानने में देर नहीं लगी। फिर उसे फुसफुसाहट, दबी दबी हँसी और चुंबनों की आवाज़ सुनाई दी।

‘अच्छा तो तूने इसे अपने लिए मुझसे छीना था।’ ईर्ष्या से जलते – तड़पते सूदखोर ने मन-ही-मन कहा ।

गुलजान से विदा होकर नसरुद्दीन ने इतनी तेज़ी से क़दम बढ़ाए कि सूदखोर जाफ़र उसका पीछा न कर पाया। जल्द ही नसरुद्दीन तंग गलियों की भूलभुलैयों में खो गया ।

‘हाय, अब मैं उसे गिरफ्तार कराने का इनाम नहीं पा सकूँगा!’ सूदखोर अफसोस करने लगा। ‘लेकिन कोई परवाह नहीं! होशियार नसरुद्दीन, मैं बदला लेकर ही छोडूंगा।’

ये कहानी ‘मुल्ला नसरुद्दीन’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानी पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं – Mullah Nasruddin(मुल्ला नसरुद्दीन)