Hindi Story: शेरा बाबू हवा में मुट्ठियाँ उछाल-उछालकर भन्नाते हुए कमरे में इधर से उधर घूम रहे हैं, ‘नहीं, अब और नहीं चलेगा। बहुत बर्दाश्त कर लिया मैंने। इन लोगों ने समझ क्या रखा है…’
वास्तव में इनका नाम शेरा बाबू नहीं। 1962 में चुनाव के दौरान इन्होंने एक पाक्षिक पत्रिका निकाली थी। बहुत बड़ा रिस्क लिया था। लगी-लगाई नौकरी छोड़ दी। पत्रिका के लिए जमा पूँजी थी-पी.एफ. का थोड़ा-सा पैसा और मित्रों के बड़े-बड़े आश्वासन। पत्रिका क्या थी, एकदम आग का गोला! ऐस बेलाग और दहाड़ते हुए संपादकीय लिखे कि दोस्तों और पाठकों ने पीठ थपथपाकर दाद दी-‘वाह रे शेर!’ और बस, तबसे ही वे शेरा बाबू हो गए।
पर पैसे के अभाव में शेरा बाबू की सारी गर्जना तर्जना और दहाड़ भी पत्रिका को बारह अंकों से ज्यादा जिंदा नहीं रख पाई। बंद हो गई। परिणाम-ढेर सा कर्ज!
मित्रों का द्वेष।पूरे अस्तित्व के टुकड़े-टुकड़े! बीवी की जीभ में छुरी-कैंचियों की पैदाइश। बोलती है तो शेरा बाबू को लहूलुहान करके छोड़ती है।‘ग्यारह बज रहे हैं, अभी तक साहबजादे का पता नहीं है। आने दो, आज साफ-साफ ही कहूँगा, घर को तो होटल समझ रखा है नालायक ने। सवेरे जो कुछ मिला, पेट में ठूँसा और निकल गए मटरगस्ती को। सारे दिन आवारागर्दी करना, रात को देर-सवेर जब भी मन हुआ आ गए टाँग फैलाकर सोने के लिए… और वे माँ हैं, नौ बजे से ही भैंस जैसी पसरी पड़ी हैं। इन्हें चिंता ही नहीं कि सपूत साहब कहाँ कबड्डी खेल रहे हैं।’गुस्सा शेरा बाबू के मन में लावे की तरह खौल रहा है। ठीक है, सारी कोशिशों के बावजूद पत्रिका वे फिर से नहीं निकाल पा रहे हैं। पर इसका यह मतलब तो नहीं कि शेरा बाबू के लेबिल के नीचे एकदम गीदड़ी जिंदगी जिएँ। कोई गिनता ही नहीं उनको घर में, जैसे वे मिट्टी का लौंदा हों!
घूम-घूमकर उन्होंने उन सारे वाक्यों को कई बार दोहरा लिया, जिनकी बौछार करके आज वे अपने बेटे को पस्त करेंगे। एक बार तो उन्होंने जोर से बोल-बोलकर भी देख लिया। नहीं, आवाज़ में कड़क है। आख़िर जाएगी कहाँ? इस आवाज़ के सामने न उसकी टाँगे थरथरा जाएँ तो! और क्षणांश को उनकी आँखों के आगे वह दृश्य कौंध गया, जब भरी सभा में उन्होंने नेहरू सरकार की धज्जियाँ बिखेरकर रख दी थीं। क्या बुलंदी थी आवाज़ में? अपने को ही भाषण देते देखकर एक हल्की-सी मुग्ध मुस्कान उसके होंठों पर थिरक गई।
कितना लंबा अर्सा बीत गया। पूरे पंद्रह साल। उसके बाद से तो बस-गुस्सा, नफ़रत, हिकारत, धिक्कार सब-कुछ मन में ही खदबदाता रहता है।दरवाज़े पर साइकिल की खड़खड़ाहट सुनकर ही वे चौकस हुए। ‘आ गया लगता है।’ वे तनकर दरवाज़े पर आ खड़े हुए। उनकी मुद्रा देखकर ही वह अपने को सँभाल ले और थोड़ा सहम जाए तो अच्छा है।पर अँधेरे की वजह से या तो लड़के ने उन्हें देखा ही नहीं या फिर देखने के बाद भी उसके हाव-भाव और तेवर का उस पर कोई असर नहीं हुआ। निहायत लापरवाही से उसने स्टैंड नीचे गिराया और साइकिल खड़ी करके सीटी बजाते हुए…‘सुधीर!’ अपने हिसाब से उन्होंने आवाज़ को काफ़ी कड़क बनाकर ही कहा, पर उधर से मौन।‘जानते हो, कितने बजे हैं?’
तीसरा हिस्सा: मन्नू भंडारी की कहानी
![Teesara Hissa by Mannu Bhandari](https://i0.wp.com/grehlakshmi.com/wp-content/uploads/2024/04/क्षय-मन्नू-भंडारी-की-कहानी-5.jpg?fit=1200%2C675&ssl=1)