Teesara Hissa by Mannu Bhandari
Teesara Hissa by Mannu Bhandari

‘ग्याऽरहऽ!’ झिझक और संकोच का लेश नहीं। एक-एक अक्षर पर ज़ोर और आवाज़ में शेरा बाबू से भी कहीं ज्यादा कड़क।

हो गई शेरा बाबू की तो ऐसी की तैसी। इतनी बार की दोहराई बातें भीतर-ही-भीतर गड्ड-मड्ड होने लगी और जीभ तो जैसे लटपटाने लगी। फिर भी उन्होंने अपने को समेटा और पूरी हिम्मत के साथ प्रश्न दागा :
‘यह टाइम है घर लौटने का?’‘टाइम। अरे घर लौटने के टाइम का नियम तो एमरजेंसी के दौरान भी नहीं बना था। जाइए, जाकर सो रहिए।’ और सारी बात से बेअसर वह कमरे में दाखिल हो गया।लड़के के पैर तो नहीं थरथराए पर गुस्से और आवेश से शेरा बाबू के पैर लड़खड़ाने लगे।
‘नालायक…बद्तमीज…हरामी…’ मन में एक के बाद एक गालियाँ उभरने लगीं, पर आवाज़ तो जैसे कुंद ही हो गई।‘मैं इस स्लाले का बाप हूँ। लानत है मुझ पर।’और उसके सामने अपने बाप की तस्वीर घूम गई। लंबा-चौड़ा कद्दावर जिस्म। ऐंठी हुई मूंछे। जब बोलते थे तो आदमी तो क्या, घर की दीवारें भी थरथराने लगती थीं। मज़ाल है जो उलटकर कोई जवाब दे दे। उसके मुँह से निकली हुई बात, अंतिम बात। न उसके इधर कुछ हो सकता है, न उधर। घर का नियम ही बन गया था, शाम को जैसे ही वे घर आते तो सबकी ज़बानें अपने-आप कटकर उनकी जेब के हवाले हो जातीं। बस, अब केवल सुनो। सवेरे काम पर जाते तो सबकी ज़बानें वापस लगा दी जातीं। अब कुछ देर बोल लो। कई बार बड़ी घुटन होती थी। हुआ करे-पर एक शब्द तक बोलने की जुर्रत नहीं कर सकता था कोई।‘एक स्साला मैं हूँ। बाप होकर भी आप कुछ कह नहीं सकते। एक कहिए, दस सुनिए।’बस, खुलकर कहने का मौक़ा तो उन्हें तब मिला था, जब उन्होंने पत्रिका निकाली थी। जहाँ कुछ अनुचित देखा, गलत सुना, धज्जियाँ बिखेरकर रख दीं। न किसी का डर, न ख़ौफ़।
पत्रिका का ख़याल आते ही वे घर की चहारदीवारी से मुक्त होकर जैसे आसमान में तैरने लगे-व्यापक, विस्तृत। ‘छीः, कितनी छोटी बात पर वे दुखी हो रहे हैं! बात अकेले सुधीर की तो नहीं है। आज हर तीसरे घर में एक सुधीर मौजूद है-निष्क्रिय, आवारा और भटका हुआ। कितनी बड़ी समस्या है और वे सुधीर को लेकर बिलबिला रहे हैं। एकाएक दिमाग में कौंधा-कितना मौजूँ विषय है! मौजूँ और महत्त्वपूर्ण! एक पूरा विशेषांक निकाला जा सकता है। और देखते-ही-देखते उनकी आँखों के सामने बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा‘दिग्भ्रमित युवा-पीढ़ी’ कौंध गया।

बेटे के व्यवहार से निर्जीव हो आए शरीर में दिपदिपाते इस शीर्षक ने बिजली की सी फुर्ती भर दी। लपककर उठे और अपनी अलमारी खोली। पत्रिका के बारह अंकों को जिल्द में बँधवाकर कोई बीस प्रतियाँ उन्होंने बड़े करीने से सज़ा रखी हैं। एक क्षण वे उन्हें देखते रहे। फिर बड़ी ममता से उन पर हाथ फेरा, सहलाया। इस स्पर्श से ही थोड़ी देर पहले के सारे तनाव ढीले हो गए। एक नया आत्मविश्वास जागा।

नीचे के खाने से एक मोटी-सी फ़ाइल निकलकर वे कुर्सी पर आ गए।
एक पाक्षिक पत्रिका निकालने की पूरी योजना मय-बजट के नत्थी की हुई है। कितनी मेहनत से यह योजना उन्होंने तैयार की है! दस साल पहले बजट पैंतालीस हज़ार था, आज एक लाख हो गया। उसके बाद टाइप की हुई एक लंबी सूची है उन सब नामों की, जिन्होंने कभी आश्वासन दिया था कि पत्रिका निकालने पर वे विज्ञापन देंगे। फिर कुछ विशेषांकों की विस्तृत योजना।

बड़ी अजीबो-गरीब स्थितियों में इन विशेषांकों की योजना शेरा बाबू के दिमाग में आई थी। योजना कभी भी बनाई हो, कैसी भी स्थिति में बनाई हो, पर ये विषय कभी पुराने नहीं पड़ेंगे। पहला विशेषांक था :

‘देश का नया जन्म! भ्रष्ट नौकरशाही का अंत!’ बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था।

मन में फिर कुछ रड़कने लगा। तीन साल हो गए पर आज भी सारी बात इस तरह मन में खुदी हुई है जैसे कल ही घटी हो। कितना अपमान किया था उस दिन स्साले मल्होत्रा ने और वह भी मिस दास के सामने! बिना एक भी शब्द बोले, भीतर-ही-भीतर सौ-सौ ज़ख्मों का दर्द लिए कैसे वह घिसटते हुए अपनी कुर्सी तक आए थे! हरामी कहीं का! सारे दिन मिस दास की साड़ी में घुसा रहता है। बीवी तो बना नहीं सकता अपनी उस बारह मन की धोबन के रहते, असिस्टेंट मैनेजर बनाकर बिठा लिया अपनी गोद में। एक वो मिस दास हैं, पूछो भला, क्या तुम्हारा अनुभव, क्या तुम्हारी लियाकत! डेबिट-क्रेडिट का मतलब तक तो आता नहीं तुमको… अकाउंट्स-डिपार्टमेंट की मैनेजरी करने आ गई। पर करना क्या है लियाकत का। ऊँचे ओहदों पर पहुँचने के लिए दो ही लियाकत होनी चाहिए औरत में बड़े बाप की बेटी, या अफ़सर संग लेटी।
और फोहश गालियों का फव्वारा छूट पड़ा। सारे भ्रष्ट अफसरों के नाम… उनकी रखैलों के नाम। एक से एक वज़नदार गाली। पर आखिरी गाली शेरा बाबू ने अपने ही नाम दागी। लानत है इस ज़बान पर! लेकिन क्या करें? इन घिनौने और ज़लील लोगों की बात सोचते ही उनकी अपनी ज़बान कैसी जलालत में लिपट जाती है। थूऽऽऽ! ज़बान साफ करने के चक्कर में थड़ाक से थूककर उन्होंने अपना ही कमरा गंदा कर दिया।
इस भ्रष्ट नौकरशाही को जड़ से उखाड़ देने की भयंकर ललक और इसे तिल-भर भी हिला न पा सकने की मजबूरी के बीच शेरा बाबू का मन कुछ इस तरह ऐंठा कि उन्होंने वह फाइल ही बंद कर दी।
सामने एक नया काग़ज़ फैलाया। खाली और साफ़। मन को भी सारी कटुता से खाली किया और कलम पकड़कर एक क्षण को आँखें बंद कीं। लिखने को वे पूजा की तरह पवित्र मानते हैं।

रात के दो बजे तब इन्होंने इस नए विशेषांक की विस्तृत योजना बनाई। विभिन्न लेखों के शीर्षक… परिचर्चा का विषय… अलग-अलग क्षेत्रों के महारथियों के इस समस्या पर विचार और फिर अपना लंबा, विचारोत्तेजक संपादकीय।
मन में एक गहरा आत्मतोष और शरीर में हल्की-सी थकान लेकर वे सोए तो सारी रात उन्हें सपने ही आते रहे। चारों ओर से लड़के-लड़कियाँ चले आ रहे हैं-थके, हारे पस्त। धीरे-धीरे सारी भीड़ एक जुलूस में बदल गई। संयत और अनुशासित। शेरा बाबू नेतृत्व कर रहे हैं। कहीं से सुधीर आता है, हाथ में पानी का गिलास लिए, ‘पापा, पानी पीजिए, आप थक गए होंगे।’
‘जिस आदमी की खोपड़ी पर कोई ज़िम्मेदारी नहीं, वही आठ-आठ बजे तक सो सकता है।’ बीवी की लताड़ ने नींद को ही नहीं, शेरा बाबू को ही चीरकर खड़ा कर दिया। आठ बज गए, पता ही नहीं चला।

‘मैं जा रही हूँ। मेहरी तो आज भी नहीं आई। सब्जी बनाकर रख दी है। मुझे देर हो रही है, रोटी खुद सेंक लेना।’ और कूल्हे मटकाती हुई वह निकल गई।

अच्छा तमाशा है। जहाँ तीन रोटी अपनी सेंकी, मेरी भी सेंक सकती थी, पर नहीं सेकेंगी। कमाऊ बीवी का रौब कैसे पिलाए! और इस महरी को भी पता नहीं क्या हुआ है?
जल्दी-जल्दी शेरा बाबू ने अपना निजी काम निपटाया। एक बार बीवी के कमरे में झाँका-पलंग पर पड़ा अस्त-व्यस्त ओढ़ना-बिछौना, आधी कुर्सी और आधी ज़मीन पर फैली बीवी की उतरी हुई साड़ी। कोने में उतरे हुए पजामे के दो गोले। तो सपूत साहब माँ से भी पहले सटक लिए! यह घर है या स्साला घूरा? हज़ार बार कहा कि सवेरे और कुछ नहीं तो अपना कमरा ही थोड़ा ठीक कर लिया करो। पर नहीं, सवेरे तो उन्हें तगण-मगण-भगण का तर्पन जो करना चाहता है। पूछो भला-इस तगण-मगण-भगण से किसका कल्याण होने जा रहा है आज? क्यों अपनी और बच्चों की जिंदगी ख़राब करने में लगे हो? पर इन भैंसिया अक्लवाले हिंदी के पंडितों को कौन समझाए?

और शेरा बाबू की दुनाली हिंदीवालों की ओर घूम गई। ‘देश स्साला रसातल को जा रहा है, पर इन गधों को कोई चिंता नहीं। लगे हुए हैं रासो की जान को। रासो प्रामाणिक है या नहीं? मान लो तुमने प्रामाणिक सिद्ध कर ही दिया तो कौन तुम्हें कलक्टरी मिल जाएगी! जहाँ हो, वहीं पड़े सड़ते रहोगे। तुम बस हो ही इस लायक कि दंड पेलो और गधों की जमात पैदा करते जाओ।’
समय ने लगी लगाई तो शेरा बाबू चारों खाने चित। बाप रे, नौ बज गए! उन्होंने दोनों गालों पर चपत लगाई… असली गधे तो शेरा बाबू तुम खुद हो। यह स्साला दिमाग है या चूँ-चूँ का मुरब्बा! अब न खाने का समय है, न पकाने का। अब भूखे ही दंड पेलना आफ़िस में।

बस में लद-फंद कर आफिस पहुँचे। वह परिचित चेहरे, परिचित गंध, परिचित माहौल। नया कुछ भी नहीं जो मन को बाँध सके और इसीलिए कुर्सी पर बैठने के थोड़ी देर बाद ही भूख ने सताना शुरू कर दिया। उन्होंने अपने पर ही तरस खाते हुए कहा शेर शेर बनकर ही दूसरों को खा सकता है… गीदड़ बनकर तो ससुरा अपने को ही खाएगा।तभी जगत दिखाई पड़ गया-आफिस का चपरासी। पाँच-छह दिन से नहीं आ रहा था।
‘अरे जगत, जैसे हो भइया?’ बड़ी आत्मीयता से उन्होंने पूछा।‘बुखार तो टूट गया पर कमज़ोरी बड़ी है।’ जगत सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया।‘तो और दो दिन आराम करके आते।’ उन्होंने स्नेह से जगत के जुड़े हुए हाथ अपने हाथ में ले लिए।अरे साब, यों ही दो दिन की छुट्टी ज्यादा हो गई है। हम लोगों के लिए क्या काम. क्या आराम! बस, पेट में दो जून डालने के लिए रोटी का जुगाड़ हो जाए, यही सबसे बड़ा आराम है साब!’

‘जानते हो, मैं परसों तुम्हारे घर की तरफ गया। सोचा, देख आऊँ, कैसे हो। पर तुम्हारा घर ही नहीं मिला।’

कृतज्ञता के मारे जगत की आँखों में तराइयाँ आ गईं, ‘अरे आपने बेकार में तकलीफ़ की साब!’

पर तभी चारों ओर से जगत पर तरह-तरह के आदेशों की मार पड़ने लगी और वह दौड़ पड़ा।
कोई इतनी-सी बात भी नहीं सोचेगा कि बेचारा बीमारी से उठकर आया है तो थोड़ा-सा ख़याल ही रख लें। ये घिस्सू क्लर्क। चपरासियों को पेल-पेलकर ही तो इन्हें कुर्सी पर बैठने का अहसास होता है। अफ़सरों से झड़ो, चपरासियों को झाड़ो। शेरा बाबू का तो तजुर्बा है कि इस तबके के आदमी को तुम बस आदमी समझो, बदले में ये तुम्हें खुदा समझेंगे।

पर शेरा बाबू के तजुर्बे का कोई मोल रह गया है आजकल! टके को नहीं पूछता कोई। सब उन्हें सिनिक कहते हैं, कहो! इस चहुँतरफी सड़ांध को देखकर हर समय जिसके दिमाग की नसें फटती रहती हों, खून खौलता रहता हो, वह सिनिक तो हो ही जाएगा।जो जिंदा है, वही सिनिक है। एकाएक उसके मन में उभरा और अपनी इस उक्ति पर वे खुद मुग्ध हो जाए। वाह रे शेरा, क्या दिमाग पाया है… कुछ उपयोगी कर पाता इस दिमाग का तो बात भी थी, वरना तो भेजे के भीतर ही स्साले का सिरका बन रहा है।

शाम को ऑफिस से निकलकर वे सीधे लाइब्रेरी पहुँचे। उनकी दिनचर्या का सबसे सुखद समय। अखबार और पत्रिकाएँ पढ़ने के बाद थोड़ी देर मिश्राजी से गप्प कर लेते हैं। दिन-भर ऑफिस में बैठकर छाती में धुआँ-सा भर जाता है। किसी के सामने निकाल लें तो जी हलका हो जाता है, वरना घर…। उन्होंने दिमाग से घर को परे सरकाया और एक साप्ताहिक खोल लिया।

‘जनता पार्टी के मंत्रियों की तस्वीरें… उनकी जीवनियाँ… उसके इंटरव्यूज़… उनकी प्रशंसा… प्रशस्ति…’
‘लानत है स्साले इन संपादकों पर! दोगले और बेपेंदी के! अच्छा है बेटा, तुम यही करो। जो शक्तिस्थान पर बैठा है, उसके चरण चाँपो और अपनी सात पुश्तों को तार लेने का सिलसिला बिठा लो। अरे, कम-से-कम कुछ करके चरण थकने तो देते इनके, फिर चँपाते। पर इतना सबर किसको? लेखक, संपादक, अध्यापक, सब-के-सब चले जा रहे हैं लाइन लगाकर। जय कुर्सी मैया! यह तो शेरा बाबू ही स्साला उल्लू का पट्ठा है, जो सिद्धांतों की दुम पकड़े-पकड़े सबका लतियाना सहता रहता है। एक दिन ऐसे ही दफा भी हो जाएगा… कोई दो आँसू बहाने भी नहीं आएगा।’

सौ-सौ धिक्कार फूटने लगे इन गिरगिटए चरण-चाँपियों पर।
‘अरे शेरा बाबू, आप कब आकर बैठ गए! मैं तो आपके लिए जेब में खुशखबरी लिए घूम रहा हूँ।’ शेरा बाबू को देखकर लाइब्रेरियन मिश्रा अपने कटघरे में से बाहर निकल आया।
‘खुशखबरी?’ शेरा बाबू के लिए तो यह शब्द ही अपरिचित हो उठा है।‘गुप्ताजी का जवाब आ गया। अगले महीने वे खुद भी आनेवाले हैं।’ और मिश्राजी ने एक चिट्ठी शेरा बाबू के सामने फैला दी, ‘इनके साथ अगर बात बन गई तो जैसा आप चाहते हैं, वह हो जाएगा।’

चिट्ठी पढ़ते-पढ़ते शेरा बाबू के हाथ काँपने लगे।‘आप कल ही अपना योजनामय-बजट इनके पास भेज दीजिए। आने से पहले वे भी एक-दो लोगों को देख-दिखा लें। वैसे आदमी बहुत खरे हैं गुप्ताजी।’
घर लौटे तो पैदल चलते हुए भी उन्हें लग रहा था जैसे मोटर पर सवार हैं। फ़ाइल में नत्थी किए हुए विशेषांक छप-छपकर उनके आगे-पीछे तैरने लगे। एक विशेषांक और उसकी होने वाली प्रतिक्रिया के सैकड़ों दृश्य उनकी आँखों के सामने गुज़रने लगे। एकाएक उन्हें लगा जैसे वे कुछ विशिष्ट हो गए हैं… कुछ ऊपर उठ गए हैं… ज़मीन से डेढ़ इंच ऊपर।घर में घुसते ही देखा-चिल्ल-पों। बीवी अपनी धाड़-फाड़ आवाज़ में महरी पर जुटी हुई थीं और वह सफाई पेश कर रही थी, क्या करती बीवीजी, घर का एक-एक आदमी बीमार। मरे इस मलेरिया ने छोड़ा भी है किसी को इस बार?’‘ठीक है, मलेरिया ने नहीं छोड़ा तो मैं भी नहीं छोड़ने की इस बार। आठ नागा हुई हैं, इस महीने तनख्वाह कटेगी। यहाँ भी कोई मुफ्त का…’‘क्या कोहराम मचा रखा है घर में?’ डेढ़ इंच ऊपर से ही शेरा बाबू ललकारे। बीवी ने बड़ी पैनी नज़रों से शेरा बाबू के इस तेवर को देखा।‘ठीक तो है। बीमारी तो किसी के बस की नहीं। इसके लिए पैसा काटना कोई इंसानियत है…’

‘एऽहेऽ! चार सौ तसल्ली पानेवाला आदमी पहले खुद तो इंसान बनकर दिखा दे… इंसानियत की बातें करेंगे…’ शटाक् से छुरी चली और शेरा बाबू टुकड़े-टुकड़े होकर धड़ाम से ज़मीन पर।
‘यहाँ काम करते-करते हड्डियाँ चटक गईं और ये आफ़िस के बाद मटरगश्ती करके आए हैं इंसानियत का पाठ पढ़ाने। ऐसे निखट्टू…’और फिर छुरी-कैंची का एल.पी. चला तो शेरा बाबू की धज्जी-धज्जी बिखेरकर रख दी।
हवा निकले गुब्बारे की तरह किसी तरह अपना किरचा-किरचा समेटकर भीतर आए और धम्म से कुर्सी पर बैठ गए।‘ये स्साली बीवी है। बीवी और औरत के नाम पर कैसी-कैसी लफ्फसजियाँ झाड़ रखी हैं-सारा बकवास। एक वो प्रसाद जी हो गए….ऐसी एक भी घुड़की खा लेते तो सारी श्रद्धा-वृद्धा पीछे के रास्ते निकल जाती।’

कोई विश्वास करेगा कि शादी के बाद यही औरत कैसे आगे-पीछे घूमा करती थी उनके? शेरा बाबू की छोटी-सी इच्छा सीधा आदेश बन जाती थी इसके लिए। पहली तारीख को हज़ार रुपए पकड़ाते थे और वह हज़ार जान से कुर्बान रहती थी उन पर। कर्जा न चुका पाने के कारण जब कुर्की आई तो बिना चेहरे पर शिकन लाए अपना दस तोले का सतलड़ा हार निकालकर दे दिया था। हालाँकि वह हार उसके पिताजी का ही दिया हुआ था, फिर भी शेरा बाबू तो एकदम बिक गए। यह तो बाद में मालूम पड़ा कि शेरा बाबू को खरीदने के लिए ही उसने यह हार दिया था। उसके बाद शेरा बाबू-बीवी के जरखरीद गुलाम।

सचमुच अपने व्यक्तित्व के एक हिस्से पर उन्होंने ‘सोल्ड’ की चिप्पी लगाई और बीवी के हाथों में सौंप दिया-ले घिस, छील, काट……

वितृष्णा का ज्वार कुछ ऐसे ज़ोर से उमड़ा कि ऊपर से नीचे तक सराबोर। दो-तीन डुबकियाँ लगाकर ऊपर आए तो एकदम दार्शनिकी मुद्रा में।

‘कुऽऽछ नहीं….सब बेकार। कोई किसी का नहीं-न बीवी, न बच्चे। सब मन भरमाने के चोंचले हैं।
अभी कुछ देर पहले मिश्रा की बात से जिस उत्साह और उमंग के पंख लगाकर वे उड़ते हुए घर आए थे, वे भी झाड़कर फेंक दिए।नहीं, कुछ नहीं होगा। पहले की अनेक बातों की तरह यह बात भी फिस्स होकर रह जाएगी। जब-जब कहीं से ज़रा-सी बात का सुराग भी मिला है…किसी ने कोई आश्वासन दिया है….उन्होंने ज़मीन-आसमान एक कर दिया है। महीनों भाग-दौड़ की कि बात बन जाए….हफ्तों सपने देखे कि बात जमने पर वे क्या-क्या करेंगे।पर हुआ कुछ आज तक?
एक वो पटले साहब आए थे। उनको पत्रिका की पॉलिसी समझाओ….उद्देश्य समझाओ, टेक की तरह बस एक ही बात दोहराते थे-‘यह तो ठीक है जी, पर इसका व्यावसायिक पक्ष तो समझाओ। हम व्यापारी आदमी ठहरे, वहीं पैसा लगाएँगे, जहाँ दो की जगह चार होकर मिले।’
‘बैठ स्लाले सट्टे बाज़ार में। व्यापारी की…’ सँभलते-सँभलते भी एक मोटी-सी गाली उसके दार्शनिक चोले में से फूटकर बाहर आ ही गई।
‘एक वो पनिकर साहब! देखिए मिस्टर शेरा बाबू, आपकी बोल्डनेस ने हमें एकदम फ्लैट कर दिया था। ऐसी ही बोल्डनेस हम चाहते हैं। पैसा भी इतनी बड़ी प्राब्लम नहीं होगा। बस, एक बात है….मैगज़ीन में आपको पार्टी का लैंस ज़रूर लगाना होगा। हर चीज़ पार्टी के एंगिल से आए।’
शेरा बाबू से बात कर रहा है पार्टी के एंगिल की। ‘लैंस लगा ले अपने पैंदे में। रोज़ सवेरे पेट साफ़ करने के बाद देखा करना कि कीड़े कितने बढ़ गए कि दिमाग़ तक झड़ गया स्साले का।’

शेरा बाबू को समझौता ही करना होता या किसी के आदेश पर ही चलना होता तो अखबारी नौकरियों की कमी थी उस समय कोई! पत्रिका बंद होते ही ऑफर आए थे उसके पास। पर नहीं, उन्होंने ढाई सौ रुपल्ली की नौकरी चुनी। नौकरी थी गीदड़ की और उन्होंने शेरा बाबू वाले तेवर में शुरू की। शुरू-शुरू के दिन थे। अपने को मारने में समय तो लगता है न! हो गई एक दिन सेक्रेटरी से झड़प। स्साले की ऐसी की तैसी कर दी। आज भी शेरा बाबू को याद है, उसने बिना आदेश के पत्थर जैसी जमी हुई कठोर आवाज़ में कहा था-‘गेट आउट ऑफ दी रूम।’ और दूसरे दिन ही आफिस से भी गेट आउट होने का नोटिस थमा दिया गया था उन्हें।
तब उन्होंने अपने एक हिस्से को मारकर, घिस-घिसकर गैंडे की खाल चढ़ाकर नौकरी के लिए तैयार कर लिया। जब नई नौकरी की तो इस हिस्से को मल्होत्रा को सौंप दिया था—मार, पीट, छील।

उसके बाद की जिंदगी-जलालत का इतिहास।उन्होंने बीवी से समझौता कर लिया….नौकरी से समझौता कर लिया। पर पत्रिका? नहीं, वहाँ वे कोई समझौता नहीं करेंगे किसी भी कीमत पर नहीं। एक यही तो जगह है, जहाँ वे शेरा बाबू होकर जी सकते हैं। यहीं तो खुलकर अपनी बात कहने की आस रख सकते हैं….डटकर विरोध करने का हौसला रखते हैं…..बड़े-से-बड़े की धज्जियाँ बिखेरने का साहस रखते हैं। यहाँ वे शेरा बाबू होकर ही जिएंगे….शेरा बाबू होकर ही लिखेंगे। इस एक-तिहाई हिस्से को लेकर ही तो लगता है कि वे भी जिंदा हैं, इतना सब होने पर भी अपने पूरे वजूद के साथ जिंदा हैं, वरना तो इस जिंदगी में रह ही क्या गया है!भावुकता और आवेश के मारे उनका सारा बदन जैसे थरथराने लगा। हर किसी के नाम फूटती गालियों की बौछार न जाने कहाँ बिला गई। थोड़ी देर पहले की दार्शनिक मुद्रा पर कुछ-कुछ आध्यात्मिक पवित्रता का सा लेप चढ़ गया और वे सिद्धावस्था को पहुंच गए। पर भूखे पेट बहुत देर तक सिद्धावस्था में भी तो नहीं रहा जा सकता। सो जल्दी ही नीचे उतर आए।ख़याल आया, सवेरे भी तो कुछ नहीं खाया था। पर अभी तो तुरंत की खाई हुई चोट से खून रिसना भी बंद नहीं हुआ है। कैसे खाने पहुँच जाएँ! ठीक है, आज वे नहीं खाएँगे। जहाँ मन को इतना मारा, वहाँ पेट को भी मार सकते हैं! पर यह कुलबुलाहट दिमाग को भी ऐंठने लगी। उन्होंने कसकर अपने दोनों गालों को चपतियाया।

कुछ नहीं शेरा बाबू, तुमसे कुछ नहीं होने का। यह पत्रिका की बात दिमाग को सातवें आसमान पर ले जाकर बिठा देती है। भूल ही जाते हो कि खड़ा तो ज़मीन पर होना है; और जब औंधे मुँह गिरते हो तो इसी तरह लहूलुहान। पकड़ो कान और खाओ कसम कि पत्रिका की बात सोचना भी छोड़ दोगे। ज़मीन पर रहोगे तो ज़मीन की जिंदगी जिओगे। अपने दिमागी फितूर छोड़ो और अपने वजूद का तीसरा हिस्सा ज़मीन के ही नाम लिख दो। यह रस्समकश ही ख़तम हो।और भूखे पेट में कसम के दो कौर डालकर शेरा बाबू अपनी खटिया पर लेट गए, लेटे रहे….लेटे रहे। कभी इस करवट, कभी उस करवट। पता नहीं पेट की कुलबुलाहट थी या कि गुप्ताजी के पत्र की पंक्तियाँ कि नींद ही नहीं आ रही थी। मन के चारों ओर अच्छी तरह नाकेबंदी करने के बावजूद गुप्ताजी के पत्र की पंक्तियाँ सपनों के छोटे-छोटे टुकड़ों के रूप में लपक-लपककर उनकी आँखों के सामने कौंध जातीं। तब वे हताश से, सफ़ाई देते जैसे अपने को ही समझा रहे हों, क्या हर्ज़ है, जीने का एक बहाना ही मिल जाता है।

आज शनिवार है। आफ़िस एक बजे बंद हो जाएगा। पर मल्होत्रा साहब की इच्छा है कि चार बजे सब लोग यहीं इकट्ठा हों। कारण-मंत्री महोदय के निवास स्थान पर जाकर उन्हें जन्म-दिन की बधाई देना। मल्होत्रा साहब की इच्छा है यानी बाकी सब लोगों के लिए आदेश। ऐसा आदेश जिसे टालना जुर्म है। भारी जुर्म….माफ़ी के परे का जुर्म।मल्होत्रा साहब आते ही मिस दास को लेकर बुके और फूलमालाओं का आर्डर देने निकल गए। मंत्री महोदय के चरणों में अर्पित होनेवाला बुके बहुत नफीस होना चाहिए। नफीस और लाजवाब। ये कलमघिस्सू क्लर्क नफासत क्या समझें इसलिए आफ़िस की सबसे नफ़ीस चीज़ को बगल में बिठाकर खुद गए हैं।
उसके जाते ही कलमघिस्सू क्लर्क जीभघिस्सू हो गए। बढ़ते दामों से लेकर जनता पार्टी, कांग्रेस-सबका ही तर्पण कर डाला। वही नंगी भाषा…..वहीं ज़हर-घुले वाक्य। भारीभरकम गालियों के कंधे पर चढ़ा दो-तीन बार मल्होत्रा का जनाजा भी निकाल डाला। सबसे बड़ा ग़म तो इस बात का कि इस मंत्री के चक्कर में आधे दिन की छुट्टी हो गई।काम कर रहा है तो केवल तापस। कोई दस दिन पहले ही दूसरे विभाग से बदली होकर आया है। शेरा बाबू की मेज़ पर ही बैठता है। दुबला-पतला निरीह-सा बंगाली लड़का, बुझा हुआ चेहरा। मल्होत्रा के केबिन में जाएगा तो पैर थरथराते रहते हैं…लौटता है तो आँखें छल-छलाई रहती हैं। लगता है, जैसे किसी बहुत अपने को दफ़नाकर आ रहा हो। शेरा बाबू को पहले ही दिन से इस लड़के से कुछ ममता-सी हो गई है, वरना आज तक जगत के सिवाय उनका और किसी से तालमेल ही नहीं बैठा। इसे देखकर जब-तब दिमाग में सुधीर टकराता रहता है। पर अजीब बात है-सुधीर की आवारागर्दी और गैरजिम्मेदारी को लेकर जितना गुस्सा उनके मन में है….तापस को देखकर वह सब छँट जाता है। केवल छँटता ही नहीं, एक सुकून-सा मिलता है। इस कुर्सी पर बैठने से तो आवारागर्दी करना कहीं ज्यादा अच्छा है।

खटाक से जैसे माइक पर बजते रिकार्ड का स्विच किसी ने बंद कर दिया हो। यहाँ से वहाँ तक सुई-पटक सन्नाटा। साहब केबिन में सबके सिर फ़ाइलों में।

थोड़ी देर में ही जगत ने फरमान पेश किया, ‘तापस बाबू, बड़े साहब।’

बड़ी कातर-सी नज़र शेरा बाबू पर डालकर तापस जगत के पीछे घिसट लिया। शेरा बाबू भीतर की आहट लेने को एकदम चौकस होकर बैठ गए।थोड़ी देर तक भीतर चुप्पी रही, फिर एक गुर्राहट।
‘पढ़ लिया अपना लिखा नोट?’एक अस्पष्ट-सी रिरियाहट।‘तीन दिन के बाद ये नोट तैयार किया है तुमने।’ लानत में लिपटा एक प्रश्न।रिरियाहट में अब रुआँसापन भी मिल गया।‘नो आर्ग्युमेंट्स……गो!’ एक दहाड़ती हुई दुत्कार।चुप्पी।

‘लाइनों को पढ़ लेना ही पढ़ना नहीं होता। बिटवीन दी लाइंस भी कुछ पढ़ा जाता है, समझे! जाओ, जाकर शुक्ला से गाइड-लाइन लो और फिर से नोट तैयार करो।’ -धिक्कार-भर आदेश।
दरवाज़ा खोलकर तापस ने पहला कदम बाहर किया ही होगा कि ‘तापस, तुम इस तरह घिसट-घिसटकर क्यों चलते हो? जब देखो ऐसी मुहर्रमी सूरत बनाकर रहते हो? और सुनो, शाम को ठीक से ड्रेस होकर आना…यों पसीने में चिपचिपाते हुए नहीं। यंगमैन हो. …बी स्मार्ट…बी ब्राइट….’ उद्बोधन।
शेरा बाबू के भीतर कुछ खौलने लगा-‘स्मार्टनेस के बच्चे, उपदेश झाड़ रहा है। मोटर-बंगले के साथ तीन हजार पॉकेट में डाल दे और एअर कंडिशंड कमरे में बिठा दे, फिर देख अंग-अंग से कैसी स्मार्टनेस टपकती है! ढाई सौ रुपल्ली में तो पसीना ही टपकेगा। स्साला बिटवीन दी लाइन समझा रहा है। सीधे से क्यों नहीं कहता कि निगम आकर हलक के नीचे उतार गया है नोटों का बंडल? ठीक है, कौन हमारे बाप की जेब से कुछ जाता है। करो लीपा-पोती। पर उस गरीब को क्यों धुनक दिया नाहक ही?’
तापस घिसटता हुआ आकर धीरे से बैठ गया। वही पनियाली आँखें….लगा, अब रोया, तब रोया।
‘शेरा बाबू, हमने बहुत ध्यान से सारा फ़ाइल स्टडी किया था….बहुत मेहनत करके नोट तैयार किया था….आपको भी तो दिखाया था।’

शेरा बाबू ने दिलासा देते हुए कंधा थपथपाया, ‘अरे, कोई बात नहीं, तुम शुक्ला के पास चले जाओ। वह गाइड-लाइन नहीं, लिखा-लिखाया नोट ही तुम्हें दे देगा। बस, लाकर टाइप करो और लगा दो।’
तापस उठा तो मन-ही-मन उभरा-शुक्ला स्साला मल्होत्रा की मींगनी। हिकारत से उन्होंने वेस्ट-पेपर बास्केट में ही थूक दिया।एक बजे ऑफ़िस से निक़ल शेरा बाबू लाइब्रेरी चले आए। घर आना-जाना यानी दो घंटे की बरबादी। यों भी कोई तुक नहीं था घर जाने का।मिश्रा देखते ही चिल्लाया, ‘अरे शेरा बाबू, दो दिन से आप आए ही नहीं। मैं तो आपके घर आनेवाला था।’शेरा बाबू सीधे मिश्रा के कठघरे में ही घुस गए।‘गुप्ताजी की चिट्ठी नहीं, बस समझ लीजिए, पत्रिका शुरू करने का आदेश। आपके भेजे हुए प्रोजेक्ट को उन्होंने एकदम पास कर दिया। अगले सप्ताह वे खुद आ रहे हैं। सारी बात को अंतिम रूप देने के लिए।’