Teesara Hissa by Mannu Bhandari
Teesara Hissa by Mannu Bhandari

पत्र पढ़कर शेरा बाबू के रोम-रोम में जैसे भूचाल-सा उठ पड़ा। समझ ही नहीं पा रहे थे कि इस आवेग को कैसे सँभाले। मिश्रा पर ही एक के बाद एक प्रश्नों की बौछार कर दी।
काम में डूबा मिश्रा इस बिन बादल की बौछार से हड़बड़ा गया। कन्नी काटते हुए बोला, ‘गुप्ताजी आएँ तब सब बात हो ही जाएगी। इस समय मैं ज़रा इन किताबों को दर्ज कर लूँ।’‘हाँ…हाँ, ठीक तो है…’ अपने आवेग को अपने में ही समेटे वे बाहर निकल आए। बाहर लॉन में पेड़ के नीचे पड़ी बैंच पर लेट गए। उन्हें लगा, इस समय शायद शरीर की निष्क्रियता से ही मन की सक्रियता को झेला जा सकता है।
गुप्ताजी को योजना भेजने के बाद उन्होंने दोनों हाथों से दबोचकर अपने भीतर के शेखचिल्ली को चित कर दिया था और खुद उस पर चढ़ बैठे थे। नहीं, वे बिल्कुल नहीं सोचेंगे पत्रिका की बात।
पर इस समय….लग रहा है कि वे खुद चारों खाने चित पड़े हैं और भीतर का शेखचिल्ली उन पर चढ़ बैठा है…पूरे आवेग और आक्रोश के साथ।
इस मल्होत्रा की तो मैं ऐसी की तैसी करके रख दूँगा स्साले के इतने घपले हैं कि बँधा-बँधा फिरेगा। सबके प्रमाण जुटाकर निकलूँगा यहाँ से, फिर बड़े-बड़े अक्षरों में…

घिघियाता हुआ आएगा तो उतनी ही धाँसू आवाज़ में-‘गेट आउट ऑफ़ दी रूम।’
सौ सुनार की, एक लुहार की। तेरे पत्तों से ही तेरा हिसाब साफ़।।
फिर तो पूरी रेलगाड़ी चल पड़ी-संपादक, नेता, मंत्री, भ्रष्टाचार, बढ़ती महँगाई, पिसती जनता….नई सरकार….
और तब उन्होंने अपने पर अंकुश लगाया-बस करो शेरा बाबू, बस करो…
घड़ी देखी तो पौने चार। लो इतनी देर से लंतरानियाँ ही झाड़ रहे हैं। चार बजे आफ़िस पहुँचना है। पर मल्होत्रा और उस सारे माहौल का खयाल आते ही मन में भारी कोफ़्त उठी-कौन जाए स्साले उन जनखों की टोली में! मंत्री महोदय के सामने तालियाँ बजा-बजाकर नाचना ही तो है। ऐसी की तैसी!
वे उठे। हिकारत के साथ उन्होंने अपने दो-तिहाई हिस्से को बैंच पर ही छोड़ दिया और बड़ी एहतियात के साथ अपने एक-तिहाई हिस्से को पुचकारा, सहलाया, समेटा, और चल पड़े। इन दो-तिहाई हिस्सों के चक्कर में कितना अजनबी हो उठा है उनका यह एक-तिहाई हिस्सा!
एक बार पत्रिका जम गई तो बीवी से नौकरी छुड़वा दूँगा। असल में पैसे और काम की मार ने ही उसका मिजाज़ खराब कर दिया है। वह भी क्या करे बेचारी…वरना पहले तो…

हाँ, कहीं तापस मिल जाता तो उसे पूरी तरह आश्वस्त कर देते। आज बहुत झुलस गया बेचारा। दूसरे कांइयां क्लकों की तरह अभी गेंडे की खाल नहीं चढ़ी है उस मासूम के…भीतर तक थरथरा जाता है। नहीं नहीं, और परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। बहुत जल्दी ही वे उसे इस सड़ाँध से मुक्त कर देंगे। मेहनती और ईमानदार बच्चा है…प्यार मिलेगा तो कुछ कर दिखाएगा।
उसके सामने तापस का बुझा हुआ मुरझाया चेहरा घूम गया और उन्होंने कुछ ऊँचाई से उसके सिर पर अपना वरदहस्त रख दिया।
पर अब कहाँ जाएँ? एकाएक ख्याल आया, जगत के घर चलना चाहिए। उस दिन उसने पता दिया था। देखते ही चौंक जाएगा-अरे साहब, आप यहाँ? आप लोगों को तो मंत्री महोदय के….

उसे भी कह ही दें कि अब सवेरे से शाम तक एक पैर पर नाचने की और बात-बात पर फटकार खाने की ज़रूरत नहीं है। पहली नियुक्ति वे जगत की ही करेंगे। बेचारा कितना ख़याल रखता है….कितना आदर करता है! एक बार वे कोई काम कह दें तो मल्होत्रा साहब की बात भी अनुसनी कर देता है….फिर चाहे उनकी झिड़कियाँ ही खाता रहे।अब शेरा बाबू के साथ काम करके देखे कि काम करना क्या होता है। अच्छी तनख्वाह, काम की सब सुविधा और सबसे बड़ी बात इंसानियत का व्यवहार। यहाँ तो बहुत दुखी रहता है बेचारा।
शेरा बाबू के ये आश्वासन तापस और जगत तक तो नहीं पहुँचे पर इनसे वे खुद कहीं बहुत आश्वस्त हो आए।

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