Sayad by Mannu Bhandari
Sayad by Mannu Bhandari

‘अच्छा, तुम ज़रा सुस्ताकर हाथ-मुँह धोओ, मैं जल्दी से खाने को कुछ बना देती हूँ।‘खाना मैं खाकर आया हूँ, कुछ भी बनाने की ज़रूरत नहीं है।’पर माला फिर भी ‘अभी आई’ कहकर नीचे उतर ही गई। बच्चे बिना चद्दर के गंदे और पैबंद लगे बिस्तरों पर लेटे हैं। रीना करवट लेकर सो रही है, इसलिए उसका चेहरा नहीं दिखाई दे रहा है। बच्चू और छोटू चित सो रहे हैं। छोटू नंगा है और उसका मुँह भी काफ़ी गंदा है। खिड़की पर फटी साड़ी का पर्दा एक ओर सरककर झूल रहा है। एकाएक मरकरी लाइट का दूधिया आलोक उसकी आँखों में चुभने लगा। उसने बत्ती बुझा दी। कमरे का नंगापन क्षण-भर को अँधेरे में डूब गया। राखाल बच्चों को बचाता हुआ आया और खिड़की पर बैठ गया। इस घर में यही उसकी स्थायी सीट है।‘यह क्या, बत्ती क्यों बुझा दी?’ अँधेरे में राखाल को माला की केवल आकृति-भर दिखाई दी, पर वह आकृति उसे पूरे नाक-नक्शवाली माला से ज्यादा परिचित महसूस हुई…‘रहने दो, बच्चों को परेशानी होगी।’‘लो, थोड़ा-सा दूध है पी लो।’ और अँधेरे में ही बढ़कर उसने प्याला राखाल के हाथ में थमा दिया। फिर बड़े जतन से वह उसका बिस्तर लगाने लगी। घर की शायद सबसे साफ़ चादर बिछाई। उसके हर काम से उसके मन का उल्लास छलका पड़ रहा था। वह लगातार कुछ-न-कुछ बोले चली जा रही थी।
‘मुझे तो दो साल काटना ही इतना भारी पड़ता था, इस बार तुमने पूरे तीन साल लगा दिए। पूजा पर कितनी-कितनी राह देखी! बेचारे बच्चों को एक-एक नया कपड़ा तक न दिलवा सकी! दादा की बिजली की दुकान खूब अच्छी चलने लगी हैं, सो यह लाइट तो ज़रूर लगवा दी, पर इतना नहीं हुआ कि बहन के बच्चों को एक-एक कपड़ा ही दिलवा देते! टुकुर-टुकुर मेरे बच्चे दूसरों के घर में ताकते रहे।’ माला का गला रुंध गया।

यह सब तो राखाल को छुट्टी-भर सुनना ही है, पर आज वह नहीं सुनना चाहता। बिस्तर पर लेटकर उसने माला को अपने पास लिटा लिया। उसका ध्यान माला की बातों से ज्यादा माला की देह पर लगा हुआ है।
‘क्या करता, पूजा पर जहाज़ इस तरफ़ था ही नहीं। प्राइवेट शिपिंग कंपनी है, छुट्टी के कायदे-कानून पर झगड़ा भी नहीं किया जा सकता है।’ फिर उसे तसल्ली देता-सा बोला, ‘कोई बात नहीं, बच्चों को कल खुश कर दूँगा।’और फिर उसने माला को अपनी बाँहों में दबोचना चाहा तो वह छिटककर दूर हो गई, ‘माफ करो बाबा, तुम्हारा क्या है? तुम तो अपने कर-कराके चल देते हो। पीछे से जो गुज़रती है, मैं जानती हूँ!’ फिर भरे गले से बुलबुल का प्रसंग शुरू हो गया।‘उस बेचारी ने तो जाना ही नहीं कि बाबा किसे कहते हैं। बीमारी की हालत में टुकुर-टुकुर ऐसे ताकती थी, मानो कह रही हो कि ‘माँ, बचा लो!’ कपूर साहब ने अपने डॉक्टर जमाई से खूब इलाज करवाया। शंकर ने दवाइयों के लिए रुपए उधार दिए। खूब भाग-दौड़ भी की, पर वह तो अपना कर्ज वसूल करके चली ही गई…’ और माला फूट-फूटकर रोने लगी। राखाल का सारा शरीर शिथिल हो गया। उसे माला पर क्रोध-सा आने लगा। जो चली गई, उसका खयाल है और जो आया है, उसकी कोई चिंता नहीं! जाने क्यों उसे लगने लगा, जैसे वह किसी और के बारे में सुन रहा है। मानो उस मृत बच्ची से, माला के दु:ख से, उसका अपना कोई संबंध ही नहीं है। रो-धोकर माला तो सो गई, पर राखाल को किसी तरह नींद नहीं आई। उसे भी तो नहीं लग रहा कि वह घर में है। अभी भी यही लग रहा है, मानो वह जहाज़ में बैठा है और उसके और माला के बीच बहुत-बहुत दूरी है।

सवेरे नींद खुली तो धूप कमरे में भर गई थी। बच्चों के बिस्तर सिमट गए थे। नीचे से माला और बच्चों की मिली-जुली आवाजें आ रही थीं। भरी धूप में उसे यह कमरा कुछ नया-नया लगा। उसने ज़ोर की अंगड़ाई ली और एक सिगरेट सुलगा ली। दीवार पर हमेशा की तरह माँ दुर्गा की तस्वीर है। उस पर लगी रोली और चंदन के छींटे कुछ ताज़ा लग रहे हैं। शायद इसी पूजा पर लगाए होंगे। उस तस्वीर के पास ही दीवार पर एक छोटा-सा चौकोर निशान बना है। राखाल को याद आया, यहाँ हमेशा उसकी तस्वीर लगी रहती थी, अब वह तस्वीर नहीं है। वह इधर-उधर देखने लगा। कमरे में ठीक-ठाक चीज़ के नाम पर एक छोटी-सी अलमारी मात्र है शीशे के दरवाज़ेवाली। इसमें उसकी बाहर से लाई हुई चीजें रखी हैं, उन्हीं के बीच उसे अपनी तस्वीर दिखाई दी। उसका फ्रेम टूट गया था।

तभी रीना ने कमरे में झाँका और उसे जागा हुआ देखकर शरमाते हुए नमस्ते किया।‘रीना, यहाँ आओ बेटा!’ और उसने अपने दोनों हाथ फैला दिए। रीना उसकी सबसे लाड़ली बिटिया है। पर रीना पहले की तरह दौड़कर उसकी बाँहों में नहीं समा गई। बस, मुस्कराती हुई उसके पास आ खड़ी हुई।
तीन साल में रीना सचमुच बहुत बड़ी हो गई है-तेरह साल की। उसकी नज़र रीना की हल्की-सी उभरती छाती पर पड़ी। बेटी की जवानी की कल्पना ही उसके लिए नया अनुभव थी। रीना नीचे दौड़ गई और दो मिनट बाद ही बच्चू आकर उसकी गोद में लद गया। पीछे-पीछे माला ट्रे में बड़े करीने से सजाकर चाय लाई और रीना चार साल के छोटू को लादकर। राखाल को लगा, जैसे सब लोग उसके जागने की प्रतीक्षा कर रहे थे। रात को मैले कपड़ों में लिपटे और बिखरे बालवाले बच्चे इस समय धुले-साफ कपड़ों में थे। छोटू की आँखों में मोटा-मोटा काजल था और टाँगों में निकर। माला की माँग में सिंदूर की लाली पीछे तक चली गई थी। एक औपचारिक मेहमान की तरह उसकी खातिर हो रही थी। फिर भी यह सब उसे अच्छा लगा। आने के बाद पहली बार लगा कि वह अपने घर में आया है। चाय के साथ-साथ अपने बीवी-बच्चों के साथ होने की गर्मी भी उसने महसूस की। बाँहें फैलाकर उसने छोटू को गोद में लेना चाहा। पिछली बार वह साल-भर के छोटू को सारे समय पेट पर बिठाकर खिलाया करता था, पर अब छोटू उसे पहचान नहीं पाता। राखाल ने उसे जबरदस्ती खींचा तो वह रो पड़ा और छिटककर माला के पास चला गया।‘छोटू, बाबा, बाबा! जाओ बेटा, प्यार करेंगे!’रीना भी समझाती है, ‘छोटू! बाबा, जाओ, चीज़ देंगे!’‘एक-दो दिन में पहचान लेगा, तो फिर एक मिनट भी नहीं छोड़ेगा!’ राखाल को लगा, जैसे माला तसल्ली दे रही है। बच्चू बराबर रट लगाए हुए है, ‘बाबा, क्या लाए हमारे लिए?’ वैसे सभी की आँखों में यही उत्सुकता छलक रही है।

राखाल ने बक्सा खोलकर चीजें निकालनी शुरू की। तीनों बच्चे बक्से के इर्द-गिर्द सिमट आए। कपड़े, खिलौने, पेन, रिबन, जरसी, मोज़े… बच्चू हर चीज़ पर झपटता, तो माला उसे डाँट देती। फिर भी भीतर-ही-भीतर गद्गद् होने के कारण उसकी झुर्रियों में कोमलता और स्निग्धता भर आई है। रीना को जो कुछ दिया, उसने चुपचाप ले लिया। पहले रीना और बच्चू में कितना झगड़ा होता था। रीना का यों बड़ा हो जाना उसे कहीं कष्ट देने लगा।‘यह तुम्हारे लिए है, और बक्स की सबसे कीमती चीज़ निकालकर उसने माला की ओर बढ़ा दी।
डिबिया खोलकर एकटक घड़ी की ओर देखते हुए माला बोली, मैं अब क्या घड़ी लगाऊँगी! चलो, रीना के काम आएगी।’ बच्चे अपनी-अपनी चीजें बटोरकर दौड़ गए। आसपास के घरों में शायद उसके आने का समाचार पहुंच चुका था। सामनेवाले कपूर साहब की लड़की बरामदे में से ही झाँक रही है।‘नमस्कार दादा! हँसता हुआ शंकर उसके सामने आ खड़ा हुआ। राखाल को लगा, उसके होंठ और दाँत पहले से भी ज़्यादा कत्थई हो गए हैं। जाने क्यों, राखाल इस आदमी को कभी पसंद नहीं कर पाया। बड़े ठंडे लहजे में उसने जवाब दिया, ‘कहो, अच्छे तो हो?’‘हाँ दादा, सब आपकी मेहरबानी है।’‘चाय पियो शंकर!’ मनुहार करती-सी माला बोली।‘आज तो मिठाई खिलाओ बोउदी, दादा आए हैं।’ शंकर के होंठों का कत्थई रंग और फैल गया।
‘दादा, इस बार तो आपने तीन साल लगा दिए! बोउदी ने भारी कष्ट सहा। बुलबुल को तो आपने देखा भी नहीं, पर बोउदी को तो वह बूढ़ा कर गई।’चुभती-सी नज़रों से राखाल ने देखा। मन में कहीं उभरा, तो तुझे भी अब माला के जवानी-बुढ़ापे की चिंता हो गई है!’

‘शंकर नहीं होता तो मैं कुछ न कर पाती। तुम्हारा अहसान मैं कभी नहीं भूलूँगी, वरना आज के ज़माने में…’
‘बस, मुझे तुम्हारी यही बात अच्छी नहीं लगती। मुसीबत में अपने लोग ही तो काम आते हैं।’शंकर ने टेरेलिन की कमीज़ पहन रखी थी। एकाएक राखाल की नज़र खूँटी पर टँगी अपनी विदेशी कमीज़ पर गई। उसने उठकर कमीज़ पहन ली। मन-ही-मन संदेह को तोड़ता एक हलका-सा संतोष भी जागा। तभी सिगरेट का खयाल आया। उठकर बोला, ‘लो शंकर, सिगरेट पियो। देखो, इस सिगरेट का जायका कैसा है? चाय के बरतन समेटती हुई माला बोली, ‘इस बार शंकर के रुपए ज़रूर चुका देना। हर महीने बहुत काँट-छाँट करके भी दस रुपए से ज़्यादा नहीं दे पाती। यह तो बेचारा शंकर है, जो…’ और राखाल को लगा, जैसे माला ने एकाएक घसीटकर उसे शंकर से नीचे ले जाकर पटक दिया हो। यह बात अभी ही कहनी थी! तुम दुनिया भर का कर्जा करो और मैं चुकाता फिरूँ? बेइज्जती अलग!‘अच्छा दादा बाबू, अभी तो चला,’ और होंठ फैलाकर चारों ओर कत्थई रंग बिखेरता हुआ शंकर भी नीचे उतर गया। राखाल तौलिया लेकर बाथरूम में घुस गया।

बाथरूम में ज़रूरत से ज़्यादा देर लगाकर वह ऊपर पहुँचा, तो कमरा खाली था। हाँ, कोने में एक स्टूल पर टेबल-फैन रखा था। ज़रूर यह शंकर ने लाकर रखा होगा, शायद माला ने ही माँग लिया हो!
उसने एक सिगरेट सुलगाई और नीचे जाने की बजाय खिड़की पर आकर बैठ गया। सामने कपूर साहब के बरामदे में रीना उनकी पम्मी के साथ खड़ी किसी बात पर खिलखिलाकर हँस रही थी। उसके हाथ में राखाल की लाई हुई चीज़े हैं।कपूर साहब के मकान से ही सटा हुआ शंकर का गराज है। गराज, लगता है, पहले से बहुत बढ़ गया है। कई गाड़ियाँ खड़ी हैं मरम्मत के लिए, तभी एक गाड़ी के पीछे से शंकर निकलकर आया। उसके कंधे पर छोटू बैठा है। उसे कंधे पर बिठाए-बिठाए ही शंकर कुछ काम कर रहा है। एकाएक उसे ख़याल आया, तीन साल पहले जब वह आया था, तो इसी तरह बच्चू उस पर चढ़ा रहता था। खिड़की पर बैठे-बैठे राखाल को लगने लगा, जैसे सारा घर हिचकोले खा रहा है। नहीं, शायद लगातार जहाज़ पर रहने के कारण ही ऐसी अनुभूति हो रही है। एक-दो दिन में ठीक हो जाएगा।पसीने से लथपथ माला आई, ‘मछली का झोल और भात बना रही हूँ। बोले और क्या बनाऊँ?’‘कुछ भी बना लो, जो तुम्हारी इच्छा।’
‘अपनी इच्छा से तो रोज़ ही बनाती हूँ, जब तक तुम हो, तुम्हारी इच्छा का बना दूँ। जहाज़ का खाना खा-खाकर शरीर तो आधा रह गया!’‘तुम्हारे हाथ का कुछ भी खाऊँगा, तो सेहत ठीक हो जाएगी,’ राखाल हलके से मुस्कराया।‘छोड़ो भी, अब कुछ भी अच्छा खिला सकूँ, ऐसी स्थिति ही नहीं।’ और एक नि:श्वास छोड़कर माला उसी व्यस्त भाव से उतर गई।

राखाल को लगा, जैसे उसी के पास करने को कुछ नहीं है। बच्चे अपने में मस्त हैं, माला अपने में।सिगरेट समाप्त करके वह नीचे उतरकर गराज में बनी हुई रसोई में चला गया।
‘तुम यहाँ गर्मी में क्यों आए? चलो, ऊपर चलकर बैठो।’ आसन बिछाकर वहीं बैठते हुए राखाल को याद आया-पहले जब वह जहाज़ पर से आया करता था तो माला हर समय उसे अपने पास ही बिठाए रखना चाहती थी।खाने पर फिर सारा परिवार जुट गया। इस समय बच्चों के लिए राखाल से ज्यादा महत्त्व राखाल के बहाने मिलनेवाले इस खाने का है। खाना-पीना समाप्त हुआ, तो माला ने बच्चों से कहा, ‘जाओ, दादा के यहाँ जाकर ख़बर कर दो कि बाबा आए हैं। और देखो, धूप में लौटकर मत आना। वहीं खेलते रहना, शाम को हम लोग आएँगे, तो लेते आएँगे।’बच्चों ने राखाल के लाए हुए कपड़े चढ़ाए और इतराते हुए दौड़ गए। माला नीचे बरतन साफ़ करने लगी। राखाल ने कमरे की खिड़की बंद कर दी और ज़मीन पर चटाई डालकर चित लेट गया। माला ने शायद जान-बूझकर ही बच्चों को आने के लिए मना कर दिया है।
जहाज़ से उतरकर टैक्सी में बैठे-बैठे माला से मिलने की जैसी अकुलाहट हो रही थी, वैसी ही अकुलाहट उसे फिर होने लगी।शायद फिर नीचे कोई आ गया है। माला के बात करने की आवाज़ आ रही है। कोई महिला-स्वर ही है। पता नहीं, किस-किसको पाल रखा है। थोड़ी देर वह बेचैनी से राह देखता रहा, फिर ज़ोर से आवाज़ दी, ‘माऽलाऽ!’अपने स्वर का रोबीलापन उसे स्वयं बड़ा अच्छा लगा।‘आई, और एक मिनट बाद साड़ी से ही हाथ पोंछती हुई, पसीने से भीगी माला आ खड़ी हुई। ‘पिशी माँ तुम्हें प्रणाम करने आई हैं।’