‘कौन पिशी माँ?’ लेटे-लेटे ही उसने खीजे स्वर में पूछा। पर तभी एक वृद्ध-सी विधवा दरवाज़े पर हाथ जोड़कर खड़ी हो गई।
‘प्रणाम जमाई बाबू!’‘तुम नहीं जानते, पर पिशी माँ नहीं होती तो बुलबुल की बीमारी में मेरे बच्चे भूखे मर गए होते, पूरे छह महीने तक पिशी माँ ने खाना बनाया, घर सँभाला। आज भी मेरा आधा काम तो वे ही करती हैं, बिलकुल माँ की तरह मेरा खयाल रखती हैं।’गद्गद् होती-सी पिशी माँ बोली, ‘अच्छा, अभी चलूँगी, कोई काम हो तो बता दो, कुछ सौदा लाना हो तो…’‘सवेरे तो गौरी से मँगवा लिया था, कुछ होगा तो बता दूँगी।’
पिशी माँ धीरे-धीरे सीढियाँ उतर गईं। लगा, बुढिया समझदार है।
‘यह क्या तुम्हें गर्मी नहीं लग रही है? खिड़की भी बंद कर दी और पंखा भी नहीं चला रखा है।’ और माला ने उठकर भड़ाक से खिड़की खोल दी।‘बंद कर दो खिड़की, बहुत चौंधा लगता है।’ नहीं, माला के मन में शायद कहीं कोई इच्छा नहीं बची रह गई है।
माला ने खिड़की बंद कर दी। पंखा चला दिया, ‘शंकर तुम्हारे लिए ही रख गया है। हर बात का इतना ख़याल रखता है कि क्या बताऊँ? और माला पास आकर बैठ गई।
शाम को दादा के यहाँ से लौटकर आएँ तो कपूर साहब से मिल आना। आज के ज़माने में ऐसे भले लोग मिलते नहीं। इतना पैसा है, पर घमंड तो छू तक नहीं गया। तुम कहो तो तुम्हारी लाई हुई चीज़ों में से एक-एक चीज़ पम्मी और शंकर के बच्चे को दे दूँ। उसके अहसान तो क्या उतार सकेंगे, फिर भी।’माला के पास क्या और कोई बात नहीं है करने के लिए?
‘तुम कितने रुपए लाए हो साथ में? शंकर के तीन सौ रुपए और चुकाने हैं। बुलबुल की दस महीने की बीमारी ने तो मुझे तन-मन और धन से एकदम ही कंगाल कर दिया, फिर भी बच जाती तो सबर करती…’ माला का स्वर फिर भर्रा आया।कौन थी यह बुलबुल? कैसी थी? सुना था, बच्चे सेतु होते हैं, पर यह तो बने हुए सेतु को तोड़ गई! माला कितनी दूर जा पड़ी है उससे! शंकर, कपूर साहब, पिशी माँ… सबके बीच राखाल का अपना अस्तित्व जैसे घुलने लगा।‘तुम भी सोचोगे कि मैं जब-तब बस पैसे का ही रोना रोती हूँ। पर तुम्हीं बताओ, क्या करूँ, महँगाई का तो कोई ठिकाना नहीं। तीन बच्चों का और अपना पेट कैसे भरती हूँ, मैं ही जानती हूँ।’माला क्या जानती नहीं कि राखाल कुछ नहीं कर सकता है? अधिक-से-अधिक रुपया वह घर ही भेज देता है। फिर भी वह यह सब क्यों सुना रही है? शायद उसे गवाह बनाकर अपनी तकलीफ़ों को दोहरा रही है-सिर्फ अपने को हलका करने के लिए। अच्छा होता, वह राखाल न होकर ब्लॉटिंग पेपर होता, जो माला के सारे दुखों को सोख लेता। शाम को दादा के घर पहुँचे, तो दादा और बोउदी बड़े तपाक से मिले, ‘आओ जमाई बाबू, आओ! इस बार तो आपने तीन साल लगा दिए! बहुत दुबले हो गए हैं। जहाज़ का खाना भी कोई खाना है भला! नमकीन हवा हड्डियों तक को गला देती होगी।’राखाल का मन हुआ, कह दे–‘नमकीन हवा क्या हड्डियाँ गलाएगी, हड्डियाँ तो तुम्हारे घर में गली थी, जब बेकारी के छह महीने तुम्हारे यहाँ बिताए थे।’ राखाल के मन में वे दिन खुदे हुए हैं…।तभी दादा के तीनों बच्चे दौड़ते हुए आए। बोउदी ने हँसते हुए कहा, ‘जबसे रीना-बच्चू ने खबर दी है कि बाबा आए हैं, तभी से ऐसे उछल रहे हैं, जैसे इन्हीं के बाबा आए हों। माला के घर को तो ये कभी दूसरा समझते ही नहीं।’‘बुआ का घर क्या दूसरा होता है?’ दादा ने दाँत दिखाते हुए कहा।
‘बड़ी उतावली हो रही है न देखने के लिए कि क्या लाए? अरे, सबर करो, अभी आए देर नहीं हुई कि अपना टैक्स वसूलने आ खड़े हुए!’ और अपने मज़ाक पर खुद ही खी-खी करके हँसने लगी।
राखाल ने जेब से निकालकर एक-एक कंधा और रिबन दोनों लड़कियों को पकड़ा दिया और एक सस्ता-सा पैन लड़के को। लगा, बोउदी को काफ़ी निराशा हुई, जिसका प्रमाण चाय के समय मिल गया-एक प्लेट में दो संदेश और एक कप चाय, बस!बाहर खेलते रीना-बच्चू को शायद वह भी नहीं मिला। भीतर आकर वे ख़ाली प्लेट के बचे हुए चूरे से शायद यह अंदाज़ा लगाने की कोशिश कर रहे थे कि बाबा ने क्या खाया।
‘कमीने कहीं के!’ वह बाहर निकलकर बच्चों को ज़रूर मिठाई खिलाएगा।
कमरे के सामनेवाले आँगन में बच्चे दौड़-दौड़ककर खेल रहे थे। राखाल ने देखा, बच्चू दाहिनी टाँग से थोड़ा लँगड़ाता है। सवेरे से उसने बच्चू को एक बार भी इस तरह चलते हुए नहीं देखा, या शायद गौर नहीं किया।
‘अरे बच्चू, ठीक से क्यों नहीं चलते?’ राखाल ने वहीं से झिड़का, बच्चू ठिठककर खड़ा हो गया।
‘लो, और सुनो, चलेगा कैसे बेचारा! हड्डी तोड़कर चार महीने खाट पर रहा! अब तो ज़रा-सी कसर रह गई है, धीरे-धीरे ठीक हो जाएगी,’ बोउदी ने कहा। फिर वह एक गहरी साँस लेकर बोली, ‘इस बार क्या-क्या कष्ट सहा है बेचारी माला ने! मेरा तो कलेजा मुँह को आता था। बुलबुल तो जाती ही रही…’ और झूठमूठ को उन्होंने आँचल से आँखें पोंछ ली।बच्चू की हड्डी टूट गई? माला ने तो उसे कभी खबर नहीं दी। एक बार फिर उसने पत्रों की बातें याद करने की कोशिश की। नहीं, इतनी बड़ी बात वह नहीं भूल सकता था। एक अजीब-सी बेचैनी उसे होने लगी।बाहर निकलते ही उसने माला को आड़े हाथों लिया, ‘तुमने मुझे बच्चू के पैर की हड्डी टूटने की खबर तक नहीं दी! कब टूटी हड्डी? कैसे टूटी?’
‘क्या करती ख़बर करके, तुम कर ही क्या लेते सिवाय परेशान होने के?’
‘फिर भी तुमको लिखना तो चाहिए था। पीछे जो कुछ होता है, मुझे मालूम तो रहे। मेरे बच्चे का पैर टूट गया और इसकी खबर मुझे दूसरे लोग दें! आखिर मैं…’ आगे राखाल से कुछ कहा नहीं गया।
‘पीछे जो कुछ होता है, वह भोगना तो मुझे ही पड़ता है। दूर रहकर तुम चिंता करने के सिवाय कर ही क्या सकते हो? बेकार को परेशान होते!’ माला का स्वर कातर हो आया।
राखाल समझ नहीं पाया कि माला उस पर आरोप लगा रही है या अपना अपराध स्वीकार कर रही है।
सचमुच उसके पीछे क्या-क्या नहीं हो गया! बुलबुल हुई और मर गई। रीना की सारी चंचलता और बचपना ऐसा गया कि उसने बेझिझक होकर उससे बात तक नहीं की। बच्चू के पैर की हड्डी टूटी जुड़ गई। छोटू इतना बड़ा हो गया कि उसे पहचानता तक नहीं और माला?’
लौटकर वह घर नहीं आया। सबको लेकर देशप्रिय पार्क में बैठ गया। बच्चों के माँगने के पहले ही सबको एक-एक आने की मूड़ी दिलवाकर उसने उन्हें अपने पास बिठाया और उनकी पढ़ाई-लिखाई के बारे में पूछने लगा।
‘यह बच्चू तो सारे दिन आवारागर्दी करता है! चार महीने बिस्तर पर रहा, सो पढ़ाई-लिखाई तो यों चौपट है, उस पर भी मज़ाल है जो किताब लेकर बैठ जाए! शंकर के लड़के को पढ़ाने के लिए मास्टर आता है, कई बार उसने कहा भी कि बच्चू, तू भी बैठ जाया कर, पर बच्चू को खेलने-कूदने से फुरसत हो तब न?’
आक्रोश और खीज माला के स्वर का स्थायी भाव हो गया है। राखाल ने बच्चू को बाँहों में भरकर अपने पास खींचते हुए कहा, ‘देखना, अब बच्चू कैसे पढ़ता है! कोई शंकर-वंकर का मास्टर नहीं, मैं पढ़ाऊँगा इसे। क्यों बेटा, अच्छे नंबरों से पास होना है न तुम्हें?
बच्चू ने गरदन हिलाकर ‘हाँ’ कर दी। फिर राखाल रीना से बतियाने लगा, वह पहले की तरह ही झेंप-झेंपकर जवाब देती रही।
पर छोटू उसके पास अभी भी नहीं आया। उसे देखकर मुस्कराता ज़रूर था, पर जब राखाल हाथ बढ़ाता, तो वह माला की गोद में दुबक जाता।‘एक-दो दिन में पहचान जाएगा। पहले तो जब तुम गए थे, तब बहुत दिनों तक तुम्हारे फोटो को देखकर बाबा-बाबा किया करता था। अब इतने दिन हो गए कि भूल गया।’
दो घंटे पार्क में बिताकर जब रात में वे लोग घर लौटे, तो राखाल का मन बहुत हलका हो आया था। कैमिस्ट के यहाँ से खरीदा गोल सिक्का रात के बारे में भी उसे आश्वस्त कर रहा था।
गली में कल की तरह आज भी अँधेरा था। फिर भी वह गली, नीची छतवाला कमरा एकाएक उसे अधिक आत्मीय और अपने लगने लगे। अभी भी जैसे उसके फेफड़ों में पार्क की हवा भरी थी।माला को लस्त-पस्त करके छोड़ा तब पहली बार ‘घर’ आने का बोध उसकी रग-रग में तैर गया।
थोड़ी देर में माला की नाक बजने लगी। उसे बड़ी देर से सिगरेट की तलब महसूस हो रही थी। उसने सिगरेट निकाली और खिड़की पर बैठ गया। इस बार जब राखाल सोया तो मकान हिचकोले नहीं खा रहा था।
दूसरे दिन उठकर ही राखाल ने रीना-बच्चू को बैठाकर पढ़ाया और जब वे स्कूल चले गए, तो कमरे की सफाई शुरू की। माला पहले मना करती रही, फिर खुद भी आकर जुट गई।
उसके पास कुछ रुपए और होते, तो घर में थोड़ा सामान डलवा जाता। दो-तीन गोल मूढ़े, एकाध कुर्सी-खैर छोड़ो, खुद भूख काट-काटकर जो थोड़ा-बहुत पैसा उसने बचाया है, उससे यहाँ बाल-बच्चों को खिलाएगा, थोड़ा-बहुत घुमाएगा, सबको एक सिनेमा दिखाएगा। बच्चे ही नहीं, आस-पास के लोग भी जान लें कि वह आया है। चौका-बरतन करके माला ऊपर चढ़ी तो उससे रहा नहीं गया, ‘तुम सारे काम से छुट्टी पाकर नहा तो लिया करो।’ पसीने से लथपथ माला को देखकर उसका आधा उत्साह ही मर जाता।
‘कितनी बार नहाऊँ? अब मुझे कुछ नहीं अखरता, आदत हो गई है।’ और पसीना सुखाने के लिए वह पंखे के सामने जा बैठी। ‘सुनो!’राखाल ने माला की ओर देखा।
‘पिशी माँ का एक भांजा है, इंटर पास है और कहीं फैक्टरी में काम करता है, रात में बी.ए. की पढ़ाई करता है…।’राखाल बात को पकड़ नहीं पाया।
‘पिशी माँ रीना के संबंध के लिए कह रही है कभी से। घर में ज्यादा लोग नहीं और देने-लेने का भी कोई खटराग नहीं होगा।’राखाल जैसे आसमान से गिर पड़ा।
‘तुम्हारा दिमाग तो ठीक है? अभी रीना है ही कितनी बड़ी? पढ़ेगी-लिखेगी नहीं क्या?’
‘इसमें दिमाग खराब होने की क्या बात है भला? आखिर शादी तो करनी ही है। संबंध जितनी जल्दी हो जाए, अच्छा है। तुम दूर रहते हो, लड़का ढूँढ़ेगा ही कौन? यह तो भाग से घर बैठे ही लड़का मिल रहा है। तुम बुलाकर मिल लो, देख-सुन लो, तसल्ली कर लो…’माला थी कि बोले चली जा रही थी और राखाल की यह समझ में नहीं आ रहा था कि वह उसे कैसे चुप करे।‘दादा से कहा कि एक बार लड़के को बुलाकर देख लो, कुछ बात कर लो, तो कतरा गए-‘शादी-ब्याह का मामला है, जमाई बाबू के आने से ही ठीक रहेगा।’ अरे, मैं खूब समझती हूँ। बुलाएँगे, तो कुछ खिलाना-पिलाना पड़ेगा! कौन खर्चा करे?’
‘माला, पर रीना क्या बहुत छोटी नहीं है?’ राखाल के स्वर में अजीब-सी बेबसी आ गई।
‘क्या छोटी है? तेरह पूरे होने वाले हैं। और कौन आज ही ब्याह होने जा रहा है? कुछ न करके भी दो-तीन हज़ार तो चाहिए ही। मुझे तो रात-दिन यही चिंता लगी रहती है।
राखाल की आँखों के सामने जाने कैसी धुंध छाने लगी और थोड़ी देर पहले का जमाया हुआ कमरा फीका लगने लगा।
‘दादा बाबू, आपने बुलाया?’ अपने कत्थई होंठ फैलाए हुए शंकर सामने आ खड़ा हुआ।
‘बैठो-बैठो।’ हजामत बनाते हुए राखाल ने कहा।
‘लो, आपने तो कमरे की शक्ल ही बदल दी! अब लग रहा है कि घर का मालिक आ गया।’ शंकर हँसने लगा। पर राखाल को अब शंकर की हँसी उतनी बुरी नहीं लगी।
एक अधमैले तौलिए से रगड़कर मुँह पोंछते हुए राखाल ने कहा, ‘माला तुम्हारा कुछ हिसाब बता रही थी। मुझे पहले तो मालूम नहीं था, वरना पूरे का ही प्रबंध करके लाता।’ स्वर में घर के मालिकवाला रौब पूरी तरह था।
‘अरे दादा बाबू, आप चिंता न करिए, रुपए कौन भागे जा रहे हैं!’
‘नहीं भाई, कर्ज जितनी जल्दी चुक जाए, अच्छा!’ और राखाल ने अपना छोटा-सा संदूक खोलकर उसमें से सौ रुपए का नोट निकालकर दे दिया।
शंकर ने नोट जेब में रखा और चल दिया। राखाल ने बचे हुए गिने। ‘अस्सी’। पहली तारीख को तनख्वाह मिलेगी, उसमें से माला को घर-खर्च के लिए रुपए देने के बाद पचास रुपए बचेंगे। कुल हुए एक सौ तीस। इन्हीं रुपयों से उसे दो महीने तक अपने बीवी-बच्चों को घुमाना-फिराना है और फिर लौट जाना है।
अनायास रंजू की बात याद आई कि जहाज़वालों को तो शादी करनी ही नहीं चाहिए। यहाँ रात-दिन मशीनों से सिर फोड़ो, पैसा मिले, तो घरवालों की हाजिरी में भेज दो। भैया, हम अच्छे हैं, जिस घाट उतरे, तफरी कर ली…न किसी का देना, न लेना। तब उसकी आँखों के आगे माला और बच्चे तैर जाते थे।
वह तौलिया लेकर नहाने चला गया।आज पिशी माँ का भांजा आनेवाला है अपने चाचा के साथ। राखाल के मना करने पर भी माला ने बुला ही लिया। साथ में दादा से भी कह दिया कि वह भी आ जाएँ।
दादा चार बजे ही आ धमके। कलफ़ लगा कुरता और चुन्नटदार धोती। एक जगह बैठे-बैठे ही कुछ ऐसे सक्रिय लग रहे हैं, जैसे घर के मालिक, कर्ता-धर्ता वही हों, राखाल तो मात्र आगंतुक है। राखाल को दादा की उपस्थिति-भर ही बहुत कष्ट देती है, पर माला की ज़िद, ‘बात जम गई और पीछे कुछ भी करना हुआ, तो रो-झींककर दादा से ही तो करवाना होगा। पैसे का मामला न हो तो भाग-दौड़ थोड़ी-बहुत कर दी देंगे।’
कपूर साहब के यहाँ से बरतन, दरी, चादर और थोड़ा बहुत टीम-टाम का सामान लाकर माला ने भरसक कमरे को ठीक कर दिया। माला के मन में उत्साह है। राखाल ने काम में मदद ज़रूर की, पर बड़े बे-मन से।
पता नहीं रीना को पता भी है या नहीं? ज़रूर होगा। इन बातों की गंध पाने के लिए लड़कियों के पास छठी इंद्रिय होती है। कैसा लग रहा होगा उसे? रीना ने राखाल और अपने बीच संकोच की एक दीवार खड़ी कर ली है, वरना खुद ही पूछ लेता।
लड़का आया। गहरा साँवला रंग और चेचक के दाग। राखाल का रहा-सहा उत्साह भी जाता रहा। राखाल ने वैसे तय कर लिया था कि इन लोगों के आने के बाद वह दादा को इतना मुखर नहीं रहने देगा। घर के मालिक की हैसियत से वही सारी बातचीत करेगा। पर लड़के की सूरत देखकर यह निर्णय अपने-आप पिघल गया।
दादा बात भी कर रहे हैं और धोती का छोर उठाकर ऊपर-नीचे आ-जा भी रहे हैं।‘करने दो जो मर्जी आए। अंतिम निर्णय तो मैं ही दूँगा। दादा और माला, किसी की नहीं चलने दूंगा।
‘हम तो कभी से मिलना चाह रहे थे, पर आपके लौटने का इंतज़ार था, चाचा ने कहा, तो राखाल को थोड़ा संतोष हुआ। पहली बार होठों पर मुसकुराहट आई। चलो, कम-से-कम यह तो मालूम है कि घर का मालिक मैं हूँ। फिर इधर-उधर की बातचीत चलने लगी। चाचा ने पूछा, ‘अच्छा, राखाल बाबू, आप तो बहुत देश-विदेश घूमते हैं, अपने देश जैसी संस्कृति कहीं देखने को मिलती है?’ राखाल को लगा, चाचाजी उसके विदेश घूमने से काफी प्रभावित हैं।
वह कुछ कहता, उसके पहले ही दादा बोले, ‘अरे नहीं गांगुली बाबू, जमाई बाबू का काम तो जहाज़ का है। देश-विदेश कहाँ घूम पाते हैं बेचारे! जहाज़ पर ही तो रहना पड़ता है। फिर भी कुछ मालूम हो तो बोलो जमाई बाबू, अपने देश जैसी संस्कृति कहीं देखी?’
राखाल भीतर-ही-भीतर भुन गया जहाज़ पर नौकरी नहीं करते। कहो, जहाज़ में पाखाना साफ़ करते हैं! कमीना कहीं का! इस माला को मना कर दो, फिर भी मरेगी इस दादा के पीछे! आज वह माला की अच्छी तरह खबर लेगा।
बात संस्कृति से नौकरी पर आ गई और लगे हाथ ही बेकारी की समस्या और सरकार की धुनाई भी हो गई।
ऐसे संकट के दिनों में भी अपने भतीजे को फैक्ट्री में नौकरी दिलवा देने की सफलता पर अपार गर्व महसूस करते हुए गांगुली बाबू रसगुल्ले पर रसगुल्ले खाते रहे। ‘लड़कीवाले भले ही हों, पर खाने में बराबरी के ही उतरेंगे’ के भाव से दादा मुकाबला करते रहे।
‘खाए जा कम्बख्त, मुफ्त का माल है! अपने घर तो एक-एक संदेश देकर छुट्टी कर दी!’उन लोगों के जाते ही खुलकर राखाल ने घोषणा कर दी, ‘यह लड़का बिलकुल नहीं चलेगा। पिशी माँ से कह देना, बात ख़त्म कर दे।’ अपने स्वर की दृढ़ता पर राखाल स्वयं विस्मित था।
‘जमाई बाबू, ऐसा लड़का आपको मिलेगा नहीं। लड़कों का भी कोई रंगरूप देखा जाता है! रंग का है भी क्या-गोरा या काला। बाकी नौकरी करता है, बी.ए. की पढ़ाई कर रहा है। परिवार का खटराग नहीं, रीना अकेली राज करेगी। सबसे बड़ी बात लेने-देने का झमेला नहीं, दहेज़ दिया जाएगा आपसे?’
मैंने कहा न कि यह संबंध नहीं होगा। मुझसे क्या होगा, क्या नहीं, यह मैं समझ लूँगा। कोई चेहरा है लड़के का?’राखाल के इस रूप से माला स्तब्ध। दादा भुनभुनाकर चले गए, आप तो बाहर रहते हैं, यहाँ बीवी-बच्चे हमारे नाम को झींकते रहते हैं। आज के ज़माने में अपना घर चलाना ही मुश्किल, किस-किसका करते फिरो!’
‘और बुलाओ दादा को! मेरा अपमान कर गए खूब अच्छी तरह, अब तो कलेजा ठंडा हो गया? जैसा भाई, वैसी बहन!’माला रो पड़ी।माला को यों ही रोता छोड़कर राखाल बाहर निकल गया। सामने ही कोनेवाले स्टाल से पान लगवाकर खाया और डंडी से चूना चूसता हुआ पार्क में टहलने लगा।परम संतुष्ट वह घर पहुँचा…
कपूर साहब का सामान जा चुका था। और कमरा बड़ा उखड़ा-उखड़ा लग रहा था। माला नीचे रसोई में थी और बच्चे बाहर। लड़के को ना-पास करके ही उसे लग रहा था, जैसे घर में उसने अपने को पूरी तरह पास कर लिया है। गांगुली मोशाय और दादा के साथ-ही-साथ उसके अपने मन की खिन्नता और जड़ता भी चली गई। एक नया आत्मविश्वास कुछ नहीं हो सकता।’राखाल ने सबका कार्यक्रम ठीक कर लिया।
सवेरे रीना उसके सिर में तेल डालकर आधा घंटे तक चंपी करती। बच्चू अंग्रेज़ी की स्पेलिंग याद करता और सवाल करता।अब सब्जी गौरी या पिशी माँ नहीं लाती, राखाल खुद बाज़ार करने जाता। हफ्ते में एक दिन मछली भी लाता। छोटू का लिवर बढ़ा हुआ था, तो खुद उसे अस्पताल ले गया। उसे नहीं पसंद कि हर बात में दूसरों का अहसान लिया जाए।
शाम को बच्चू खड़े होकर उसके पैर दबाता और साथ ही पहाड़े भी याद करता। खाने के बाद बच्चों को वह पढ़ाने बैठ जाता।
मशीनों के बीच रहते समय उसे कभी याद नहीं रहता कि वह बी.एस-सी. है। उसकी अपनी जिंदगी तो बर्बाद हो गई, पर वह चाहता है कि कम-से-कम बच्चों की जिंदगी बना दे।
उसे आज भी याद है कि जब वह कलकत्ते में ही नौकरी करता था और रीना हुई थी, तो माला की एक आकांक्षा थी कि वह अपनी बिटिया को डॉक्टर बनाएगी… और अब? रविवार की शाम को माला और बच्चों को लेकर घूमने जाता। उस समय शंकर या कपूर साहब दिख जाते तो वह दो मिनट ठहरकर ज़रूर उनसे कुछ बात करता, फिर बड़ी लापरवाही से कहता, ‘ज़रा बच्चों को घुमा लाऊ। अक्तूबर समाप्त हो रहा है, पर अब भी गर्मी खत्म नहीं हुई! शाम को घर में घुटन हो जाती है।’पहली तारीख को आफिस जाकर तनख्वाह ले आया। माला को हर महीने की तरह रुपए दिए और पचास रुपए अपने पास रख लिए।‘लाओ, इस बार तो ये रुपए मुझे दे दो, तुम क्या करोगे? न हो तो शंकर को दे दो।’
माला हमेशा उसे ख़र्चा करने के लिए टोकती रहती, पर वह हमेशा झिड़क देता। इस बार भी उसने इनकार कर दिया, ‘नहीं कुछ रुपया मेरे पास चाहिए। बच्चों को घुमाना-फिरना, खिलाना-पिलाना तो है, वे बेचारे कैसे जानेंगे कि उनका बाबा आया है।’
शायद: मन्नू भंडारी की कहानी
