Hindi Story: ‘ऐ रूनी, उठ,’ और चादर खींचकर, चित्रा ने सोती हुई अरुणा को झकझोरकर उठा दिया।
‘अरे, क्या है?’ आँख मलते हुए तनिक खिझलाहट-भरे स्वर में अरुणा ने पूछा। चित्रा उसका हाथ पकड़कर खींचती हुई ले गई और अपने नए बनाए हुए चित्र के सामने ले जाकर खड़ा करके बोली, ‘देख, मेरा चित्र पूरा हो गया।’‘ओह! तो इसे दिखाने के लिए तूने मेरी नींद खराब कर दी। बदतमीज़ कहीं की!’
‘अरे, ज़रा इस चित्र को तो देख। न पा गई पहला इनाम तो नाम बदल देना।’ चित्र को चारों ओर से घुमाते हुए अरुणा बोली, ‘किधर से देखूँ, यह तो बता दे? हज़ार बार तुझसे कहा कि जिसका चित्र बनाए उसका नाम लिख दिया कर, जिससे ग़लतफ़हमी न हुआ करे, वरना तू बनाए हाथी और हम समझें उल्लू।’ फिर तस्वीर पर आँख गड़ाते हुए बोली, ‘किसी तरह नहीं समझ पा रही हूँ कि चौरासी लाख योनियों में से आखिर यह किस जीव की तस्वीर है?’‘तो आपको यह कोई जीव नज़र आ रहा है? अरे, ज़रा अच्छी तरह देख और समझने की कोशिश कर।’
‘अरे, यह क्या? इसमें तो सड़क, आदमी, ट्राम, बस, मोटर, मकान-सब एक-दूसरे पर चढ़ रहे हैं, मानो सबकी खिचड़ी पकाकर रख दी हो। क्या घनचक्कर बनाया है?’ और उसने वह चित्र रख दिया।‘ज़रा सोचकर बता कि यह किसका प्रतीक है?’‘तेरी बेबकूफी का। आई है बड़ी प्रतीकवाली।’‘अरे, जनाब, यह चित्र आज की दुनिया के कंफ्यूज़न का प्रतीक है। समझी।’‘मुझे तो तेरे दिमाग के कंफ्यूज़न का प्रतीक नज़र आ रहा है। बिना मतलब जिंदगी ख़राब कर रही है।’ और अरुणा मुँह धोने के लिए बाहर चली गई। लौटी तो देखा, तीन-चार बच्चे उसके कमरे के दरवाजे पर खड़े उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। आते ही बोली, ‘दीदी! सब बच्चे आकर बैठ गए, चलिए।’‘आ गए सब बच्चे? अच्छा चलो, मैं अभी आई।’ बच्चे दौड़ पड़े।‘क्या ये बंदर पाल रखे हैं तूने भी?’ फिर ज़रा हँसकर चित्रा बोली, ‘एक दिन तेरी पाठशाला का चित्र बनाना होगा। ज़रा लोगों को दिखाया ही करेंगे कि हमारी एक ऐसी मित्र साहब थीं, जो सारे जमादार, दाइयों और चपरासियों के बच्चों को पढ़ा-पढ़ाकर ही अपने को भारी पंडिता और समाज-सेविका समझती थीं।’
‘जा-जा, समझते हैं तो समझते हैं। तू जाकर सारी दुनिया में ढिंढोरा पीटना, हमें कोई शरम है क्या? तेरी तरह लकीरें खींचकर तो समय बर्बाद नहीं करते।’ और पैर में चप्पल डालकर वह बाहर मैदान में चली गई, जहाँ बिना किसी आयोजन के ही एक छोटी-सी पाठशाला बनी हुई थी।
रात के दस बजे थे। सारे हॉस्टल की बत्तियाँ नियमानुसार बुझ चुकी थीं। ऊपर के एक तल्ले पर अँधेरे में ही खुसर-फुसर चल रही थी। रविवार के दिन तो यों ही छुट्टी का मूड रहता है। दूसरे, दिन में काफ़ी नींद निकाल ली जाती थी, सो दस बजे लड़कियों को किसी तरह भी नींद नहीं आती थी। तभी हॉस्टल के फाटक में जलती हुई टॉर्च लिए कोई घुसा। अपने कमरे की खिड़की में से झाँकते हुए सविता ने कहा, ‘ठाठ तो हॉस्टल में बस अरुणा ही के हैं, रात नौ बजे लौटो, दस बजे लौटो, कोई बंधन नहीं। हम लोग तो दस के बाद बत्ती भी नहीं जला सकते।’‘लौट आईं अरुणा दी? आज सवेरे से ही वे बड़ी परेशान थीं। फुलिया दाई का बच्चा बड़ा बीमार था, दोपहर से वे उसी के यहाँ बैठी थीं। पता नहीं, क्या हुआ बेचारे का?’ शीला ने ठंडी साँस भरते हुए कहा।
‘तू बड़ी भक्त है अरुणा दी की!’‘उसके जैसे गुण अपना ले तो तेरी भी भक्त हो जाऊँगी।’
‘मैं कहती हूँ, उन्हें यही सब करना है तो कहीं और रहें, हॉस्टल में रहकर यह जो नवाबी चलाती हैं, सो तो हमसे बर्दाश्त नहीं होती। सारी लड़कियाँ डरती हैं तो कुछ कहती नहीं, पर प्रिन्सिपल और वार्डन तक रोब खाती हैं इनका, तभी तो सब प्रकार की छूट दे रखी है।’‘तू भी जिस दिन हाड़ तोड़कर दूसरों के लिए यों परिश्रम करने लग जायेगी न, उस दिन तेरा भी सब रोब खाने लगेंगे। पर तुझे तो सजने-सँवरने से ही फुर्सत नहीं मिलती, दूसरों के लिए क्या ख़ाक काम करेगी।’
‘अच्छा-अच्छा चल, अपना लैक्चर अपने पास रख।’अरुणा अपने कमरे में घुसी तो बहुत ही धीरे से, जिससे चित्रा की नींद न खराब हो। पर चित्रा जग ही रही थी। दोपहर से अरुणा बिना खाए-पिए बाहर थी, उसे नींद कैसे आती भला? मेस से उसका खाना लाकर उसे मेज़ पर ढँककर रख दिया था। अरुणा के आते ही वह उठ बैठी और पूछा, ‘बड़ी देर लग गई, क्या हुआ रूनी!’‘वह बच्चा नहीं बचा, चित्रा। किसी तरह उसे नहीं बचा सके।’ और उसका स्वर किसी गहरे दुख में डूब गया।चित्रा ने माचिस लेकर लैंप जलाया और स्टोव जलाने लगी, खाना गरम करने के लिए। तभी अरुणा ने कहा, ‘रहने दे चित्रा, मैं खाऊँगी नहीं, मुझे ज़रा भी भूख नहीं है।’ और उसकी आँखें फिर छलछला आईं।
बहुत ही स्नेह से अरुणा की पीठ थपथपाते हुए चित्रा ने कहा, ‘जो होना था सो हो गया, अब भूखे रहने से क्या होगा, थोड़ा-बहुत खा ले।’‘नहीं चित्रा, अब रहने दे, बस तू लैंप बुझा दे।’
उसके बाद दो-तीन दिन तक अरुणा बहुत ही उदास रही, लेकिन समय के साथ-साथ वह गम भी जाता रहा, और सब काम ज्यों-का-त्यों चलने लगा।चार बजते ही कॉलेज से सारी लड़कियाँ लौट आईं, पर अरुणा नहीं लौटी। चित्रा चाय के लिए उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। ‘पता नहीं कहाँ-कहाँ भटक जाती है, बस इसके पीछे बैठे रहा करो।’‘अरे, क्यों बड़-बड़ कर रही है। ले, मैं आ गई। चल, बना चाय।’‘तेरे मनोज की चिट्ठी आई है।’‘कहाँ, तूने तो पढ़ ही ली होगी फाड़कर।’‘चल हट, ऐसी बोर चिट्ठियाँ पढ़ने का फ़ालतू समय किसके पास है? तुम्हारी चिट्ठियों में रहता ही क्या है जो कोई पढ़े। बड़े-बड़े आदर्श की बातें, मानो खत न हुआ लैक्चर हुआ।
‘अच्छा-अच्छा, तू लिखा करना रसभरी चिट्ठियाँ, हमें तो वह सब आता नहीं।’ वह लिफ़ाफ़ा फाड़कर पत्र पढ़ने लगी। अब उसका पत्र समाप्त हो गया तो चित्रा बोली, ‘आज पिताजी का भी पत्र आया है, लिखा है जैसे ही यहाँ का कोर्स समाप्त हो जाय, मैं विदेश जा सकती हूँ। मैं तो जानती थी, पिताजी कभी मना नहीं करेंगे।’
हाँ भाई! धनी पिता की इकलौती बिटिया ठहरी! तेरी इच्छा कभी टाली जा सकती है! पर सच कहती हूँ, मुझे तो यह सारी कला इतनी निरर्थक लगती है, इतनी बेमतलब लगती है कि बता नहीं सकती। किस काम की ऐसी कला, जो आदमी को आदमी न रहने दे।’‘तो तू मुझे आदमी नहीं समझती क्यों?’‘तुझे दुनिया से कोई मतलब नहीं, दूसरों से कोई मतलब नहीं, बस चौबीस घंटे अपने रंग और तूलियों में डूबी रहती है। दुनिया में बड़ी-से-बड़ी घटना घट जाय, पर यदि उनमें तेरे चित्र के लिए कोई आइडिया नहीं तो तेरे लिए वह घटना कोई महत्त्व नहीं रखती। बस, हर घड़ी, हर जगह और हर चीज़ में से तू अपने चित्रों के लिए मॉडल खोजा करती है।’
‘अरे, इस लगन को देखकर ही तो गुरुजी कहते हैं कि वह समय दूर नहीं, जब हिंदुस्तान के कोने-कोने में मेरी शोहरत गूँज उठेगी। अमृता शेरगिल की तरह मेरा भी नाम गूंज उठे, बस यही तमन्ना है।’
‘कागज़ पर इन निर्जीव चित्रों को बनाने की बजाय दो-चार की जिंदगी क्यों नहीं बना देती, तेरे पास सामर्थ्य है, साधन हैं।’
‘वह काम तो तेरे और मनोज के लिए छोड़ दिया है। तुम दोनों ब्याह कर लो और फिर जल्दी से सारी दुनिया का कल्याण करने के लिए झंडा लेकर निकल पड़ना!’ और चित्रा हँस पड़ी। फिर बोली-
‘अच्छा, यह बता कि तेरे यह सब करने से ही क्या हो जाएगा? तूने अपनी अनोखी पाठशाला में दस-बीस बच्चे पढ़ा दिए, तो क्या निरक्षरता मिट जाएगी, या झोंपड़ी में दस-बीस औरतों को हुनर सिखाकर कुछ कमाने लायक बना दिया तो उससे गरीबी मिट जाएगी? अरे, यह सब काम एक के किए होते नहीं। जब तक समाज का सारा ढाँचा नहीं बदलता तब तक कुछ होने का नहीं, और ढाँचा ही बदल गया, तो तेरे-मेरे कुछ करने की जरूरत नहीं, सब अपने-आप ही हो जाएगा।’फिर दोनों में कला और जीवन को लेकर लंबी-लंबी बहसें होती और चित्रा अंत में कान पर हाथ धरकर उठ जाती, अच्छा-अच्छा, बंद कर यह लेक्चरबाज़ी। बोर कहीं की!’ पिछले पाँच वर्षों से इसी प्रकार चल रहा था। हर दस-बीस दिन बाद दोनों में अपने-अपने उद्देश्यों को लेकर, अपनी-अपनी दिनचर्या को लेकर एक गरमागरम बहस हो जाती, पर न वह उसकी बात का लोहा मानती थी, न वह उसकी बात की कायल होती थी।तीन दिन से मूसलाधार वर्षा हो रही थी। रोज़ अखबारों में बाढ़ की खबरें आती थीं। बाढ़ पीड़ितों की दशा बिगड़ती जा रही थी, और वर्षा थी कि थमने का नाम ही नहीं लेती थी। अरुणा सारे दिन चंदा इकट्ठा करने में व्यस्त रहती। एक दिन आखिर चित्रा ने कह ही दिया, ‘तेरे इम्तिहान सर पर आ रहे हैं, कुछ पढ़ती-लिखती तू है नहीं, या सारे दिन बस भटकती रहती है। फेल हो गई तो तेरे ससुर साहब क्या सोचेंगे कि इतना पैसा बेकार ही पानी में बहाया।’‘आज शाम को एक स्वयंसेवकों का दल जा रहा है, प्रिन्सिपल से अनुमति ले ली, मैं भी उसके साथ जा रही हूँ।’ चित्रा की बात को बिना सुने उसने कहा।शाम को अरुणा चली गई। पंद्रह दिन बाद वह लौटी तो उसकी हालत काफ़ी खस्ता हो गई थी। सूरत ऐसी निकल आई थी मानो छः महीने से बीमार हो। चित्रा उस समय अपने गुरुदेव के पास गई हुई थी। अरुणा नहा-धोकर, खा-पीकर लेटने लगी, तभी उसकी नज़र चित्रा के नए चित्रों की ओर गई। तीन चित्र बने रखे थे, तीनों बाढ़ के चित्र थे। जो दृश्य वह अपनी आँखों से देखकर आ रही थी, वैसे ही दृश्य यहाँ भी अंकित थे। उसका मन जाने कैसा कैसा हो आया। वहाँ लोगों के जीने के लाले पड़ रहे हैं और उसमें भी इसे चित्रकारी ही सूझती है। और न जाने कितनी बातें सोचते-सोचते वह सो गई।
शाम को चित्रा लौटी तो अरुणा को देखकर बड़ी प्रसन्न हुई। गनीमत है, तू लौट आई। मैं तो सोच रही थी कि कहीं तू बाढ़-पीड़ितों की सेवा करती ही रह जाय और मैं जाने से पहले तुझसे मिल भी न पाऊँ।’
‘क्यों, तेरा जाने का तय हो गया?’‘हाँ, अगले बुध को मैं घर जाऊँगी और बस एक सप्ताह बाद हिंदुस्तान की सीमा के बाहर पहुँच जाऊँगी।’ उल्लास उसके स्वर में छलका पड़ रहा था।‘सच कह रही है, तू चली जाएगी चित्रा! छः साल से तेरे साथ रहते-रहते यह बात ही मैं तो भूल गई कि कभी हमको अलग भी होना पड़ेगा। तू चली जाएगी तो मैं कैसे रहूँगी?’‘अरे, दो महीने बाद शादी कर लेगी, फिर याद भी न रहेगा कि कौन कंबख्त थी चित्रा! बड़ी लालसा थी तेरी शादी में आने की, पर अब तो आ नहीं सकूँगी। अच्छी तरह शादी करना। दोनों मिलकर सारे समाज का और सारे संसार का कल्याण करना।’पर अरुणा के कानों में उसकी कोई भी बात नहीं पड़ रही थी। चित्रा के साथ बिताए हुए पिछले छः सालों के चित्र उसकी आँखों के सामने घूम रहे थे और वह उन्हीं में खोई बैठी रही।‘क्या सोचने लगी रुनी! मनोज की याद आ गई क्या?’
‘चल हट! हर समय का मज़ाक अच्छा नहीं लगता।’उस दिन रात में भी अरुणा अपने और चित्रा के बारे में ही सोचती रही। दोनों के आचार-विचार, रहन-सहन, रुचि आदि में ज़मीन-आसमान का अंतर था, फिर भी कितना स्नेह था दोनों में। सारा हॉस्टल उनकी मित्रता को ईर्ष्या की नज़र से देखता था। जब उसके बी.ए. के इम्तिहान थे तो चित्रा कितना खयाल रखती थी उसका। वह अक्सर चित्रा को डाँट दिया करती थी, पर कभी उसने बुरा नहीं माना। यही चित्रा अब चली जाएगी-बहुत-बहुत दूर। ये दो महीने भी कैसे निकालेगी? और यही सब सोचते-सोचते उसे नींद आ गई।आज चित्रा को जाना था। हॉस्टल से उसे बड़ी शानदार विदाई मिली थी। अरुणा सवेरे से ही उसका सारा सामान ठीक कर रही थी। एक-एक करके चित्रा सबसे मिल आई। बस गुरुजी के घर की तरफ चल पड़ी। तीन बज गए, पर वह लौटी नहीं। अरुणा उसका सारा काम समाप्त करके उसकी राह देख रही थी। और भी कई लड़कियाँ वहाँ जमा थीं, कुछ बार-बार आकर पूछ जातीं थीं, चित्रा लौटी या नहीं। पाँच बजे की गाड़ी से वह जानेवाली है। अरुणा ने सोचा, वह खुद जाकर देख आए कि आखिर बात क्या हो गई। तभी हड़बड़ाती-सी चित्रा ने प्रवेश किया, ‘बड़ी देर हो गई ना! अरे क्या करूँ, बस, कुछ ऐसा हो गया कि रुकना ही पड़ा।’‘आखिर क्या हो गया ऐसा, जो रुकना ही पड़ा सुनें तो।’ दो-तीन कंठ एक साथ बोले।
‘गर्ग-स्टोर के सामने पेड़ के नीचे अक्सर एक भिखारिनी बैठी रहा करती थी ना, लौटी तो देखा कि वह वहीं मरी पड़ी है और उसके दोनों बच्चे उसके सूखे शरीर से चिपककर बुरी तरह रो रहे हैं। जाने क्या था उस सारे दृश्य में कि मैं अपने को रोक नहीं सकी-एक रफ़-सा स्केच बना ही डाला। बस, इसी में इतनी देर हो गई।’ चर्चा इसी पर चल पड़ी, ‘कैसे मर गई, कल तो उसे देखा था।’ किसी ने दार्शनिक की मुद्रा में कहा, ‘अरे, जिंदगी का क्या भरोसा, मौत कहकर थोड़े आती है।’ आदि-आदि। पर इस सारी चर्चा से अरुणा कब खिसक गई, कोई जान ही नहीं पाया।
साढ़े चार बजे और चित्रा हॉस्टल के फाटक पर आ गई, पर तब तक अरुणा का कहीं पता नहीं था। बहुत सारी लड़कियाँ उसे छोड़ने को स्टेशन आई, पर चित्रा ही आँखें बराबर अरुणा को ढूँढ रही थीं। चित्रा को दृढ़ विश्वास था कि वह इस विदाई की वेला में उससे मिलने ज़रूर आएगी। पाँच भी बज गए, रेल चल पड़ी, अनेक रूमालों ने हिल-हिलकर चित्रा को विदाई दी, पर उसकी आँसू भरी आँखें किसी और को ही ढूँढ रही थीं-पर अरुणा न आई सो न आई।विदेश जाकर चित्रा तन-मन से अपने काम में जुट गई। उसकी लगन ने उसकी कला को निखार दिया। विदेशों में उसके चित्रों की धूम मच गई। भिखमंगी और दो अनाथ बच्चों के उस चित्र की प्रशंसा में तो अखबारों के कॉलम भर गए। शोहरत के ऊँचे कगार पर बैठ, चित्रा जैसे अपना पिछला सब-कुछ भूल गई। पहले वर्ष तो अरुणा से पत्र-व्यवहार बड़े नियमित रूप से चला, फिर कम होते-होते एकदम बंद हो गया। पिछले एक साल से तो उसे यह भी नहीं मालूम कि वह कहाँ है। नई कल्पनाएँ और नए-नए विचार उसे नवीन सृजन की प्रेरणा देते और वह उन्हीं में खोई रहती। उसके चित्रों की प्रदर्शनियाँ होतीं। अनेक प्रतियोगिताओं में उसका ‘अनाथ’ शीर्षकवाला चित्र प्रथम पुरस्कार पा चुका था। जाने क्या था उस चित्र में, जो देखता, वही चकित रह जाता। दुख-दारिद्र्य और करुणा जैसे साकार हो उठे थे। तीन साल बाद जब वह भारत लौटी तो बड़ा स्वागत हुआ उसका। अखबारों में उसकी कला पर, उसके जीवन पर अनेक लेख छपे। पिता अपनी इकलौती बिटिया की इस कामयाबी पर गद्गद् थे-समझ नहीं पा रहे थे कि उसे कहाँ-कहाँ उठाएँ, बिठाएँ। दिल्ली में उसके चित्रों की प्रदर्शनी का विराट आयोजन किया गया। उद्घाटन करने के लिए उसे ही बुलाया गया था। उस प्रदर्शनी को देखने के लिए जनता उमड़ पड़ी थी, भूरि-भूरि प्रशंसा हो रही थी और चित्रा को लग रहा था, जैसे उसके सपने साकार हो गए।
उस भीड़-भाड़ में अचानक उसकी भेंट अरुणा से हो गई। ‘रूनी!’ कहकर वह भीड़ की उपस्थिति को भूलकर अरुणा के गले से लिपट गई। ‘तुझे कबसे चित्र देखने का शौक़ हो गया, रूनी!’
‘चित्रों को नहीं, चित्रा को देखने आई थी। तू तो एकदम भूल ही गई।’‘अरे, ये बच्चे किसके हैं?’ दो प्यारे-से बच्चे अरुणा से सटे खड़े थे। लड़के की उम्र दस साल की होगी तो लड़की की कोई आठ।‘मेरे बच्चे हैं, और किसके! ये तुम्हारी चित्रा मासी हैं, नमस्ते करो, अपनी मासी को।’ अरुणा ने आदेश दिया।
बच्चों ने बड़ी अदा से नमस्ते किया। पर चित्रा अवाक् होकर कभी उनका और कभी अरुणा का मुँह देख रही थी। वह सारी बात का कुछ तुक नहीं मिला पा रही थी। तभी अरुणा ने टोका, ‘कैसी मासी है, प्यार तो कर।’ और चित्रा ने दोनों के सिर पर हाथ फेरा। प्यार का ज़रा-सा सहारा पाकर लड़की चित्रा की गोदी में जा चढ़ी। अरुणा ने कहा, ‘तुम्हारी ये मासी बहुत अच्छी तस्वीरें बनाती हैं, ये सारी तस्वीरें इन्हीं की बनाई हुई हैं।’
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