Hindi Story: जहाज़ की बत्तियाँ जलीं तो लगा, जैसे पानी में बिछी अँधेरे की चादर में अनेक दरारें पड़ गई हों। चारों ओर बल्बों की झूलती बंदनवार देखकर ही राखाल को खयाल आया कि इस बार वह दीवाली घर पर ही मनाएगा। कितना अच्छा होता, किसी तरह वह पूजा पर ही पहुँच पाता।
सारे यात्री ऊबे हुए हैं। पर ऊपर से सबने अपने को ऐसा व्यस्त बना रखा है कि किनारा आने पर लगेगा, जैसे अप्रत्याशित रूप से ही किनारा आ गया हो। प्रतीक्षा का बोझिल समय काटने के ये कितने पुराने नुस्खे हैं, पर फिर भी हर यात्री इन्हें ही अपनाता है। सिर्फ रेलिंग के साथ लगकर खड़ी वह औरत न ताश खेल रही है, न पढ़ रही है। पिछले एक घंटे में उसने तीन बार अलग-अलग लोगों से समय पूछा है, कुछ इस भाव से मानो महज़ घड़ी मिलाना चाह रही हो। हालाँकि हाथ में विदेश से खरीदी हुई कोई नई घड़ी है, जिसके गलत समय देने की संभावना कम है। हो सकता है, किनारे पर भी कोई इतनी ही व्याग्रता से प्रतीक्षा कर रहा हो।
‘अच्छा किया, उसने किसी को खबर नहीं दी…’ आठ के करीब जहाज़ किनारे पर लगेगा। राखाल छह बजे से ही अपनी वर्दी उतारकर ऊपर आ गया था। काम के दौरान भी ऊपर आते हैं, पर उन दैत्याकार मशीनों से मुक्ति, पूरे दो महीने के लिए मुक्ति पाने की भावना के साथ ऊपर आने का अपना ही एक आनंद है। उसे खुद लग रहा है, जैसे वह जहाज़ का एक अदना-सा कर्मचारी नहीं, वरन् एक संभ्रांत यात्री है, जो तीन साल विदेश रहकर घर लौट रहा है।
एकाएक घर की तस्वीर उसकी आँखों के सामने उभर आई। गराज पर बना हुआ नीची छतवाला लंबा-सा कमरा। वह घर पहुँचेगा, तब तक बच्चे ज़रूर सो चुके होंगे। माला किसी-न-किसी काम में लगी होगी। वह अपना हर पत्र इसी पंक्ति से शुरू करती है-‘उत्तर जल्दी नहीं दे सकी, क्योंकि समय ही नहीं मिला’ और अंत में लिखती है-‘अब बस करती हूँ, बहुत काम पड़ा है।’ बीच में घर की कठिनाइयों की, बढ़ती महँगाई और बच्चों के बढ़ते आवारापन की बातें होती हैं, जिससे राखाल अब बहुत ऊबने लगा है। हर पत्र में मशीनी ढंग से लिखा हुआ ‘प्राणनाथ’ संबोधन पूरी तरह निष्प्राण हो चुका है।
पहली बार जब वह जहाज़ पर आया था तो माला के पत्रों को कई-कई बार पढ़ता था। उस सबके बीच से दस साल का लंबा समय गुज़र चुका है। फिर भी सोये हुए बच्चे और जागती हुई माला की कल्पना ने उसके मन में हल्की -सी गुदगुदी पैदा कर दी। उसे अपने साथियों की याद आई। जब वह नीचे कपड़े बदल रहा था, सब-के-सब बिना किसी शरम-हया के फब्तियाँ कस रहे थे, ‘मशीनों के बीच रह-रहकर मशीन बन गया है! अब ऊपर जाकर फेफड़ों में साफ़ हवा भरेगा, जिससे कुछ ताक़त आए, कुछ जान आए…नहीं तो टाँय-टाँय फिस्स नहीं हो जाएगी…’उसके दो साथी कुँवारे हैं और एक की बीवी किसी और के साथ रहने लगी है। जब वह अपनी तनख्वाह का बड़ा भाग घर भेजता था तो सब उसे चिढ़ाते थे, माला का पत्र आने पर सब पढ़ते थे। जॉन को अपनी बीवी नए सिरे से याद आ जाती थी और वह फूटफूटकर रोने लगता था। ऐसे मौकों पर राखाल ही उसे तसल्ली देता था…पर जितनी तसल्ली वह देता था, उससे ज्यादा तसल्ली उसके अपने मन में रहती थी कि माला उसे कभी छोड़कर नहीं जा सकती। निहायत उबा देनेवाले पत्र भी उसे कहीं हल्के-से आश्वस्त तो करते ही थे।
उसे याद आया कि पिछली बार छुट्टी से आने के आठ महीने बाद बुलबुल पैदा हुई थी और दस महीने जीकर वह मर गई। माला ने उसे खूब कोस-कोसकर सूचना दी थी। अभी तो छोटू ही सवा साल का है। दो छोटे बच्चों को घर के सारे काम-काज के साथ वह नहीं सँभाल सकती, फिर बढ़ती महँगाई। कहाँ से खिलाए, कहाँ से पहनाए? और जब वह मर गई, तब फिर कई पत्र उसी की खबर से भरे हुए थे-‘हाय, इससे तो मैं मर जाती तो अच्छा था। सबसे सुंदर थी। ऐसा तो एक भी बच्चा नहीं हुआ। भगवान को लेना ही था, तो दिया ही क्यों था?’राखाल को न उसके होने की कोई खुशी थी, न मरने का कोई गम। एक हल्की-सी भावना यही थी कि चलो, अच्छा हुआ कि इस बात को भी अब तो डेढ़ साल हो गया, वरना सारी छुट्टियां मातमपुर्सी में ही बीत जातीं। दूर किनारे की बत्तियाँ दिखाई देने लगी तो ताश में डूबा वह पूरा-का-पूरा दल रेलिंग के सहारे आ खड़ा हुआ। सबके चेहरों पर उल्लास थिरकने लगा। बच्चे दूर खड़ी छोटी-छोटी आकृतियों को ही रूमाल हिलाने लगे। भीड़ से कटकर खड़ी वह अकेली महिला बाइनाकूलर लगाकर किसी को ढूँढ रही है। एकाएक राखाल की नंगी आँखों के सामने माला की आकृति तैर गई। वह अपने साथियों और अफसरों से विदा लेकर बाहर आया और टैक्सी में बैठा। हर समय जहाज़ के तहखानों में बंद रहने के बाद दूर-दूर तक फैला हुआ कलकत्ता; रात-दिन चारों ओर लरजती और थिरकती लहरों के बाद लंबी-लंबी मौन और स्थिर सड़कें और उन पर उन्मुक्त भाव से प्रकाश उड़ेलती हुई बत्तियों को देखकर उसे नए सिरे से अपने होने का बोध होने लगा।
टैक्सी लेंसडाउन मेन रोड से बाईं लेन में मुड़ी और चार मकान छोड़कर खड़ी हो गई। वह उतरकर गराज पर बने अपने मकान को देखने लगा। खिड़की से बहुत ही मंदी रोशनी बाहर आ रही है, शायद भीतर जीरो पावर का बल्ब जल रहा है। टैक्सी के ठहरने से, फाटक के खुलकर बंद होने से, भीतर किसी तरह की कोई हलचल नहीं हुई। हाँ, सामने कपूर साहब के घर की खिड़की से एक कटा हुआ धड़ झाँका, दो क्षण रुका और फिर गायब हो गया। माला के घर शायद कभी कोई टैक्सी आकर ठहरती ही नहीं।‘रानी!’ राखाल ने आवाज़ दी, तो ‘कौन’ के साथ ही माला बाहर निकल आई और राखाल को देखते ही उसके चेहरे पर आश्चर्य-भरा उल्लास फैल गया।‘यह क्या, तुम? कोई खबर नहीं, सूचना नहीं…’ और एक तरह से झपटकर उसने राखाल के हाथ से होल्डाल ले लिया। टैक्सीवाले को पैसे देकर एक बड़ा और एक छोटा बक्सा सँभाले राखाल सँकरी-सी सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। उसके पीछे माला होल्डाल को ठेलती हुई। बीच में पहुँचते ही राखाल ने बक्सा सीढ़ी पर टिकाया और घूमकर अँधेरे में ही माला का हाथ पकड़कर ज़ोर से दबाया। ‘चलो, चलो, यह गिर जाएगा।’ हाथ छुड़ाते हुए माला ने कहा। उसके हाथ में कोई प्रतिक्रिया, कोई हरकत नहीं हुई। राखाल को माला का हाथ बड़ा सर्द और निर्जीव-सा लगा और वही ठंडक जैसे उसकी अपनी रगों में समाने लगी। कमरे में घुसते ही माला ने मरकरी लाइट जलाई। चौदह फुट लंबा कमरा और ज़मीन पर सोते तीन बच्चे उजागर हो गए। नाक-नक्श के साथ माला के चेहरे की झुर्रियाँ…गालों पर पड़े काले-काले चकत्ते और रूखे-सूखे बालों में से झाँकते कई सफ़ेद बाल…‘तुमने खबर क्यों नहीं दी? खबर देते तो हम सब लोग लेने आते। बच्चे कितने खुश होते…’ वह जैसे एकाएक राखाल का स्वागत करने में अपने को असमर्थ पा रही थी।
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