बड़ी-बड़ी दाढ़ी, चेहरे पर अभाव की झुर्रियां, काला सा कोट, धारीदार मैली सी पैन्ट और फटे सफेद जूते पहने वह मेरे सामने आकर मुझे अजीब दृष्टि से घूरने लगा….।
‘पहचाना नहीं मुझे?’
‘पहचान तो रहा हूं पर….’
‘ऐसा ही होता है। जब कोई बड़ा आदमी बन जाता है तो छोटे-मोटे लोगों का ध्यान नहीं रहता, किन्तु इतनी जल्दी भूलना भी क्या? खैर कई साल भी तो हो गये हैं।’
वह व्यंग्य पर व्यंग्य कसता जा रहा था। मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। मैंने हाथ जोड़कर कहा, ‘मेरी भूल के लिए क्षमा कीजियेगा, मैं ठीक से पहिचान नहीं पा रहा हूं।’
इतना सुनकर मेरे कन्धों पर हाथ रखते हुए वह बोला, ‘मैं कमल हूं, हरिद्वार…।’ नाम को सुनते ही मुझे हरिद्वार की सारी यादें ताजी हो आई थी। मैंने हाथ बढ़ाये ही थे कि वह गले से लिपट गया। मुझे उसकी इस दयनीय हालत पर बहुत आश्चर्य हो रहा था।
‘क्या हालत बन रखी है ये?’
वह मायूस होकर बोला, ‘ भाग्य को कौन बदल सकता है? किस्मत में यही सब लिखा है न, तो कोई कर भी क्या सकता है। दस वर्षों से नौकरी के लिए दर-दर भटक रहा हूं। आज तक सैकड़ों इन्टरव्यू दे चुका हूं परन्तु कहीं भी तो….? खैर छोड़ो, तुम बताओ क्या हाल है तुम्हारा?
‘फिलहाल तो ठीक ही हूं। हरिद्वार से जाना कहां था, पहले तो नौकरी के लिए भटकता रहा। वर्षों तक कभी इधर-कभी उधर, एक जगह कहीं भी ठौर ठिकाना नहीं मिला। बड़ी मुश्किल से एक छोटी-मोटी नौकरी मिली परन्तु पढ़ाई के लिए छटपटाता ही रहा और उसे भी छोड़ दिया। तब से न जाने पढ़ाई के लिए मुझे क्या-क्या नहीं करना पड़ा है।’
वह और गम्भीर हो गया था।
‘परन्तु भटकने का कुछ लाभ तो मिला तुम्हें? आज कौन जानता है कि तुमने इतना सब कुछ झेला होगा और हम जैसे लोग तो यह सब झेलने के बाद भी कुछ नहीं पा सके हैं।’
‘सब ठीक हो जायेगा कमल! धैर्य रखने की आवश्यकता होती है।’
‘कब तक धैर्य रखेंगे? यहां तो सब सीमायें टूट गई।’
फिर बोला, ‘अच्छा ये तो बताओ कि हरिद्वार आना क्यों छोड़ दिया, या आते हो और चुपचाप निकल जाते हो?’
‘नहीं कमल भाई, न तो मैं हरिद्वार को भूला हूं और न ही पुराने मित्रों को।’
‘यदि भूले न होते तो वर्षों में कभी तो याद आती? अच्छा अब बताओं कब आ रहे हो, कोई दिन निश्चित करो तो सभी लोगों को जाते ही बता दूं।’
उसने मुझसे नाराजगी व्यक्त करते हुए हरिद्वार पहुंचने की तारीख पक्की कर दी।
‘धनेश, दुर्गेश, मनीष सभी को सूचना दूंगा मैं’ कहते-कहते वह कहीं खो सा गया था।
‘कहां खो गये कमल? क्या सोचने लगे?’ मैंने धीरे से उसे स्पर्श करते हुए कहा।
‘कुछ भी तो नहीं।’
‘नहीं ! कुछ तो सोच रहे थे।’
‘बस यों ही कि हम जैसे लोग तो बेकार ही जन्म लेते हैं।’
‘क्या बात लेकर बैठ गये कमल, चलो घर चलो।’ और मैं कमल को घर ले आया था।
कमरे पर ताला लगा देखकर वह चौंक सा गया था। ताला खुलते ही अंदर आकर बोला।
‘क्यों अभी भी अकेले हो? मैं तो सोचकर आया था कि…….।’
‘कि घर में अच्छी खासी फौज होगी न !’
और मैं ठहाका मारकर हंस पड़ा था, किन्तु उसके चेहरे पर मुस्कराहट का नाम न था।
‘पर हरिद्वार में तो….’ कह कर वह खड़े-खड़े कमरे की एक-एक चीज देखने लगा।
‘हां शादी की बात सुनी होगी न !, पूरे दो साल हो गये। अच्छा बैठ भी तो जाओ? चाय बनाकर लाता हूं।’
मैं किचन की ओर जाने को हुआ कि वह बोल पड़ा, ‘इतनी जल्दी नहीं, भाभी को भी तो आने दो ? आज तो उन्हीं के हाथ की चाय पीयेंगे।’
‘भाभी यहां हो तब न !’
‘कहां गई है, मायके भेजा हुआ है क्या?’
‘नहीं तो ! नौकरी….’
‘अच्छा ! नौकरी पर है ? ये तो अच्छा हाथ मारा है तुमने, ये तो बताओ कहां पर है?’
‘यहां से सौ मील दूर।’
‘तो खाने-पीने की क्या……।’
‘स्वयं ही बनाता हूं, स्वयं ही खाता हूं……।’
‘तब तो छुट्टियों में ही भाभी जी यहां आती होंगी।’
‘हां, और कभी छुट्टियों में मैं भी चला जाता हूं। ‘मैं हंसते हएु बोला।
फिर तो वह भी मजाक के मूड में आ गया था।
‘यार ! मैं तो अब सब बेरोजगारों को लेकर आन्दोलन करने वाला हूं। यहां तो नौकरी के लाले पड़ रहे हैं और तुम मियां-बीबी दोनों को नौकरी?’ और फिर ठहाका मारकर हंसने लगा।
इतनी देर में वह पहली बार हंसा था। उसके चेहरे का सारा तनाव यकाएक खत्म हो गया था।
‘चलो अच्छा किया तुमने, परन्तु तुम कम चालाक नहीं निकले, शादी की हवा तक नहीं लगने दी किसी को…….।’
चाय पीते-पीते वह कमरे की एक-एक वस्तु को गौर से देखे जा रहा था।
‘ये फोटो भाभी जी का है।’ एक दीवार पर टंकी तस्वीर की ओर इशारा किया।
‘हां….’
‘यार अच्छी जगह हाथ मारा।’ कह कर फिर हंसने लगा।
थोड़ी देर बात करने के बाद हम दोनों लोग मिलकर खाना बनाने लगे।
बातचीत जारी रखते हुये वह बोला, ‘लगता है खिचड़ी अभी भी तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ेगी।’
‘नहीं ! इसका तो जन्म-जन्मांतर का नाता हो गया मुझसे।’
‘निशांत शादी के बाद भी यह स्थिति तो ठीक नहीं, सर्विस वाली लड़की का मतलब पूरा परिवार अस्त-व्यस्त।’
‘लेकिन जमाना भी तो बदल गया और फिर लिखी-पढ़ी लड़कियां…….’
‘ये बात तो ठीक है किन्तु हम बेरोजगारों पर भी कुछ तो तरस खाओ।’ कहकर वह फिर हंस दिया था।
भोजन करने के बाद बिस्तर पर लेटकर बोला, ‘किस्मत साथ नहीं दे रही निशांत भाई।’
‘इस बीच रात-दिन इन्टरव्यू देता रहा, हर इन्टरव्यू बहुत अच्छा रहा। इन्टरव्यू देने के बाद बड़ी खुशी-खुशी घर आता था। नियुक्ति पत्र की प्रतीक्षा में एक-एक दिन काटा। मैं सोचता रहा कहीं से तो नियुक्ति पत्र आयेगा। रोज पोस्ट ऑफिस के चक्कर काटता, इसी प्रतीक्षा ने दस साल बर्बाद कर दिये। पैसा भी कम बर्बाद नहीं हुआ। घर में कमाने वाला कोई नहीं, तीन-चार भाई बहिन हैं किन्तु सब मुझसे छोटे।’
इधर मैं बेरोजगार और उधर मां ने मेरे गले में एक और फांसी लगा दी।
वह कुछ झुंझला कर बोला-
‘यह भी तो मेरी बदकिस्मती है ! शादी भी हुई तो पत्नी एकदम अनपढ़, गंवार। घर में जमीन जायजाद बहुत है। मां अकेली पड़ गई थी इसलिए मना भी न कर सका।’
‘घर में पिता जी तो होंगे?’
‘अगर पिता जी जीवित होते तो ऐसी स्थिति नहीं आनी थी, खेती-बाड़ी में उन्हें किसी की सहायता की जरूरत नहीं पड़ती थी। सब अपने आप करवाते थे। परन्तु उनके जाने के बाद तो मां पर सारा बोझ पड़ गया। एक तरफ हम सभी भाई-बहिनों की लिखाई-पढ़ाई और दूसरी तरफ घर के काम-काज से लेकर इतनी बड़ी खेती-बाड़ी। यार पढ़ाई ने तो हमें न घर का और न घाट का, कहीं का भी नहीं छोड़ा।’
मैं मजाक करते हुए बोला-
‘यहां भी इन्टरव्यू देने आये थे क्या?’
‘हां सुबह पहुंच गया था, इन्टरव्यू दिया और फिर तुम्हारा पता किया। इस बार तो हरिद्वार से ही सोचकर आया था कि तुम्हें जरूर मिलकर जाऊंगा।’
‘ये इन्टरव्यू कैसा रहा?’
‘इन्टरव्यू तो बहुत अच्छा रहा, परन्तु मुझे विश्वास नहीं। मंत्रियों के सिफारिशी पत्र लेकर लड़के घूम रहे थे। कुछ तो बीस-बीस हजार रुपये लाये हैं। हममें न तो किसी मंत्री के पत्र लाने की सामर्थ्य है और न पैसा खिलाने की हिम्मत।’
‘क्या कोई पैसा ले रहा है?’
वह हंसकर बोला-‘यह तो सामान्य सी बात हो गई। पहले के अधिकारी डरते थे किन्तु अब तो खुली बोलियां लगती है। पैसा दो और नौकरी लो, सब बिके हुए हैं।’
‘पैसा किसको दो।’ पूछा मैंने
‘अधिकारी को और बाबू के माध्यम से। बाबू की भी मौज है चाहे जिससे जितना पैसा लो। आधा अधिकारी के घर और बाकी अपनी जेब में?
‘कमल यह बात मानने को मैं तैयार नहीं कि सभी अधिकारी-कर्मचारी भ्रष्ट हो गये।’ मैंने तर्क दिया।
‘ये भी बात सही है कि बहुत सारे अधिकारी-कर्मचारी आज भी ईमानदार हैं, परन्तु आज इनकी संख्या है ही कितनी? न के समान है।’
‘सच कहता हूं निशांत ! मैं तो इस व्यवस्था से इतना खिन्न हो गया हूं कि अब जीवन से भी घृणा होने लगी है, कई बार भारी आक्रोश से घिर जाता हूं तो अपने को सम्भालना बड़ा मुश्किल हो जाता है। मन में आता है या तो आत्म हत्या कर लूं या किसी अधिकारी पर टूट पडूं।
मैंने घूम फिर कर देख लिया है कि जो बड़ा है वह बड़ा ही होता चला जा रहा है और जो गरीब है वह और नीचे जा रहा है।
रात भर वह आपबीती सुनाता रहा। सुबह उठा तो पहली बस से हरिद्वार निकल गया। बहुत निराश था, क्या-क्या विचार नहीं आ गये थे उसके मन में। मैंने बहुत समझाने की कोशिश की थी उसे कि दुनिया में बस एक ही तरह के लोग नहीं, परन्तु उसके दिमाग में एक ही धुन सवार हो गई थी कि अधिकतर अफसर भ्रष्ट हैं। कहता था, ‘मैं अब पहले तो इन्टरव्यू दूंगा ही नहीं यह मैंने ठान लिया और यदि इन्टरव्यू दिया तो जहां-जहां भी जाऊंगा ऐसे अधिकारियों को पीटे बिना वापस नहीं लौटूंगा, अब तो चाहे मुझे फांसी हो चाहे जेल, जेल में कुछ दिन चैन से तो रहूंगा।
उसके चले जाने के बाद महिनों तक उसकी तमाम बातें मेरे मस्तिष्क में घूमती रहीं। कभी-कभी मुझे डर लगता कि न जाने कमल कब क्या कर बैठे। हरिद्वार पिछले दिनों गया तो पता चला एक साल हो गया कमल को हरिद्वार छोड़े। किसी को पता भी तो नहीं कि कहां गया।
आज कितने वर्ष बीत गये कमल को देखे। पौड़ी से जाने के बाद मिला ही कहां?
ऋषिकेश का रोड़वेज बस अड्डा, मैं बस की प्रतीक्षा में बेंच पर बैठा हूं। कमल की मिलती-जुलती शक्ल का कोई व्यक्ति बस से उतरा है। मैं बेंच से उठा और उसकी ओर जाने को कदम बढ़ाये, फिर रुक गया। यह कमल नहीं हो सकता, इतना हृष्ट-पुष्ट और मुस्कराता चेहरा? पर बस से उतरते ही सूटकेश हाथ में लिए टिकट की खिड़की की ओर बढ़ते कमल ने मुझे देख लिया था। सूटकेश वहीं छोड़ मेरे सीने से लिपट गया था और बहुत देर तक ऐसे लिपटा रहा मानों वर्षों की लगी ‘खुद’ को मिटा देना चाहता हो।
उसका खिलखिलाता चेहरा और गालों पर आयी लालिमा से मुझे अनुमान लगाने में देरी नहीं लगी कि यह कमल की खुशहाली का परिणाम है। उसका खिला हुआ चेहरा और उस पर आयी मुस्कान ने मुझे गद्गद् कर दिया था? कमल के सूटकेश की ओर बढ़ते हुए मैं उसका हाथ पकड़कर बोला-
‘तुमने तो खुश कर दिया है मुझे। खूब सेहत बनाई है। लगता है कहीं अच्छी नौकरी….कम से कम मुझे एक चिट्ठी तो डाल देते।’
वह खिलखिलाकर हंसा-
‘साली नौकरी ने तो मेरी जान ही ले ली थी। एक दो साल और पीछे पड़ता तो मर ही जाता। पौड़ी में मैंने कहा था न कि यह मेरा आखिरी इन्टरव्यू होगा और हुआ भी वही।’
‘कहां नियुक्ति मिली?’
‘गांव में और घर पर।’
‘क्या मजाक करने लगे?’
‘मजाक नहीं, सच बोल रहा हूं। जिस पत्नी को मैं अनपढ़ गंवार और भारस्वरूप कहता था न, उसने मुझे बदलकर रख दिया।’
‘वो कैसे? बताओगे भी तो।’
‘एक दिन में थका हारा घर में बैठकर अपने भाग्य को कोसने लगा।
सुनीता बोली- ‘आप तो बिना बात भाग्य को कोसते हैं। नौकरी के चक्कर में न पड़कर यदि मालिक बनने की इच्छा रखते तो……।’
सुनीता की मूर्खता पर मुझे हंसी आयी पर मुझे लगा जैसे ये मेरे पुरुषार्थ को चुनौती दे रही है, मैं हंसते हुए उससे यों ही पूछ बैठा-
‘अब जादू तो तुम्हीं करोगी जिससे मैं मालिक बन जाऊंगा। अरे मूर्ख ! मालिक बनने के लिए भी तो….’ मैंने अपना सिर पकड़ लिया था।
इतना सुनते ही वह तुरन्त बोली-
‘करने को बहुत कुछ है, करने वाला चाहिए। मेहनत करने से क्या नहीं हो सकता?’ उसने तमाम विकल्प मेरे सामने रख दिये, साथ ही बोली-
‘मैं भी तो सहयोग करूंगी ! क्या परेशानी है? आप अकेले ही थोड़े करेंगे ये सब….’
उसकी बातों ने मुझमें एक नई आशा का संचार कर दिया था। मुझे लगा जैसे सफलता अब अधिक दूर नहीं है और मैं रात-दिन मेहनत में जुट गया। ईश्वर ने मेरी मेहनत का फल भी दिया मुझे।
तमाम ठोकरें खाने के बाद आज मेरे पास सब कुछ है। मैं बहुत खुश हूं। इसी मेहनत ने मेरे डगमगाते आत्म सम्मान व स्वावलम्बन को वापिस लौटाया है।
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