गहना-21 श्रेष्ठ नारीमन की कहानियां पंजाब: Moral Stories
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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

Moral Stories: जी चाह रहा है, ‘थू’ कह कर निकल जाऊं।

कलेजा फूक गया है। जली-भुनी बैठी हूं। कभी अपनी ननद रानी के लिए लाई गई बालियों की ओर देखती हूं और कभी अपने खाली कानों की ओर।

मेरा पुत्र हैप्पी, सुनार से बालियों की डिबिया मेरे हाथों में थमा कर कहने लगा, “मां, फूफा की क्रिया (भोग समय) पर बुआ को दे कर आना है।’ मैं हक्की -बक्की रह गई।

रानी को गहना देने के लिए पिछले कई दिनों से घर में शीत-युद्ध चल रहा था। घर की हालत बहुत खराब थी। कोई नहीं चाह रहा था कि इस समय रानी को कोई गहना दिया जाए। फिर यह सारा परिवार भूरी चींटियों जैसा है। इतना विनम्र परिवार है नहीं कि रानी को गहना बनवा कर दे दें। मैं अपने कानों के लिए बालियों की चाह लिए ही बढी हो गई। मझे तो किसी ने बालियां बनवा कर ना दीं। इन सभी के लिए सारी उम्र मरती-खपती रही। इस हैप्पी को रानी बुआ के लिए इतना प्रेम कैसे जाग उठा।

रानी ने फोन करके हैप्पी और उसके बाप को बुलाया था। हैप्पी का बाप बहुत बीमार है, बिस्तर नहीं छोड़ सकता। रानी ने हैप्पी के कान में बुला कर पता नहीं क्या फूंक मार दी। मीठी मौसी बातों से तो बड़ों-बड़ों को जीत लेती है। हैप्पी उसके लिए बालियां बनवा लाया। पता नहीं कम्बख्त ने कहां से पैसे इकट्ठे किए होंगे। घर में जहर खाने लायक भी पैसा नहीं था। वह बालियां मुझे थमा कर, क्लेश से बचने के लिए अपने कमरे में जा घुसा। अपनी बीवी के घटने से जा लगा, जैसे वही उसका मोर्चा हो।

मेरे दिल को आग-सी लग गई। जी चाहा, डिबिया चूल्हे में फेंक दूं।

हाथ से गिरने से डिबिया खल गई। देखा, बालियां बहत ही सुन्दर थी। यह तो किसी विवाह वाली लड़की को पहनानी चाहिए, किसी क्रिया पर या बदशगुनी पर नहीं।

चमकती बालियां कानों में लटकाने का जी ललचाने लगा। मैंने कमरे में घुस कर दरवाजा बंद कर लिया। शीशे के सामने खड़े होकर कानों में बालियां पहन लीं। खुद को बहुत अच्छा लगने लगा। सुलगता मन जैसे ठंडा हो गया।

मेरे कानों में बालियां बहुत जंच रही थी, जैसे मरे हुए कानों में जान पड़ गई हो। मन में फैसला कर लिया, जो भी हो जाए, अब यह बालियां नहीं उतारूंगी। भले दुनिया इधर की उधर ही क्यों ना हो जाए।

मेरा ननदोई भाग सिंह गुजर गया था। जितना अन्न-पानी उसके नसीब में लिखा था। रानी ने उसकी मौत का जरा भी गम नहीं किया। भई नासपीटी! तेरे सिर का साई नहीं रहा। एक मैं हूं, हैप्पी के बाप के पीछे मरती रहती हूं। भले ही एक कौड़ी का आदमी नहीं।

जिस दिन भाग सिंह का देहांत हुआ, रानी घर में ऐसे घूम रही थी, जैसे कोई नई ब्याहता हो। मुझे एक ओर ले जा कर कहने लगी, “भाभी! उस तरह ही आना, जैसे मायके वाले आते हैं।”

मैं समझ गई। इसे गहना डलवाने की आग लगी होगी। कहने लगी, “वरना, बिरादरी में नाक नहीं रहेगी।” भई हमारे घर की हालत तो देख।”

अब इस नंगे परिवार को भी नाक याद आने लगी। भला भूखे-नंगों की कैसी नाक। फिर रानी तो बहुत नखरे करती थी क्वारेपन में। गली के आधे लड़के उसने अपने पीछे लगा रखे थे। मैं अगर नजर ना रखती, रोकती-टोकती ना, तो पता नहीं क्या-क्या गुल खिलाती यह। अब इसके पास चार पैसे हैं, तो इसकी नाक बड़ी हो गई है।

मेरा शीशे के सामने से हिलने का मन नहीं कर रहा। सिर हिलने पर बालियां हिलने लगीं। मन सरूर से भर उठा। बालियां पहन कर औरत, औरत लगती है, खाली कानों से तो किन्नर ही लगती है। अपने सिर से मिर्चे वार कर चूल्हे में डालूंगी, कहीं मुझे खुद की ही नजर ना लग जाए।

पता नहीं कौन-सी बुरी घड़ी थी। जब मैंने कान छिदवाए थे। मेरी हमउम्र सारी लडकियों के कान छिदे हए थे। उनके कानों में कछ न कछ पडा देख. बहुत अच्छा लगता था। गप्पी की स्वीटी ने तो कानों में सोने की बालियां पहन रखी थीं। मेरा भी बहुत जी चाहता था।

मां टालती रहती, “क्या करेगी कान छिदवा कर? फिर कानों में कुछ पहनने के लिए मांगेगी। गहने मालूम है, कब पहने जाते हैं? सुन्दर दिखने के लिए। संग-शर्म, इज्जत वाली बेटी-लड़की तो वैसे ही बहुत सुन्दर लगती है। मेरी लाडो तो वैसे भी बहुत सुन्दर है।”

उस दिन मां और पड़ोसन चाची उपले थाप रही थी। उधर जाने पर मां कहने लगी, “मुंदरो बेटी, जरा मेरे साथ हाथ बंटा दे।”

नाम तो मेरा महिन्द्र कौर है, लेकिन घरवाले सारे मुझे मुंदरो ही कहते हैं।

“पहले मेरे कान छिदवा दे।” मैंने जिद की।

“ऊंठ जैसी हो गई है। काम कहो तो मौत आने लगती है। इसे कुलच्छणी को बस कान छिदवाने की आग लगी पड़ी है। जा मर परे।” मां गुस्से से बड़बड़ाने लगी।

चाची हंसते हुए कहने लगी, “चल अपनी मां संग उपले बनवा दे। तेरे कान मैं छिद दूंगी।”

मां ने गोबर सने हाथों से चाची को रोकते हुए कहा, “अभी इसके कान छिदवाने को रहने दो। छिदे हुए सूने कान अच्छे नहीं लगते।”

“कोई नहीं मैं खुद ही ले लूंगी कानों में कुछ पहनने के लिए। बच्ची का चाव पूरा हो जाएगा। जब लड़कियां बड़ी हो जाती हैं तो फिर कान छिदवाने पर काफी दर्द होता है।” गरीब चाची शाहणी बनी मुझे बहुत अच्छी लगी।

“बहुत जी करता है, बच्चों के चाव पूरे करने को, मगर….।” मां ने आह भरी।

मैं बड़े चाव से उपले थापने लगी।

काम खत्म कर, मां घर चली गई। चाची ने कीकर के शूल मुझसे मंगवाए। मैंने अपने गोबर से सने हाथ घास पर रगड़ कर साफ किए। मुझे पास बिठा कर एक हाथ में शूल ले, दूसरे हाथ से कान की लव पकड़ कर कहने लगी, “वो देख कीकर पर चील-कौवें।”

मेरा ध्यान कीकर की ओर गया ही था कि उसने मेरे कान की लव में शूल घुसा दी। मेरी चीख निकल गई।

“ऐसे ही चीख रही है। कान छिदते वक्त मेरे हाथ से किसी को पता भी नहीं लगता।” इतना कह कर उसने मेरे दूसरे कान की लव में शूल घुसा दी।

मैं खुशी से पागल हुई घूमने लगी। अब मेरे कानों में झुमके झूलेंगे। जब मैं कान छिदवा कर उठी तो सामने पड़ोसन बुढ़िया खाली परात ले कर किसी के घर से आटा लेने जा रही थी। उस कुलच्छणी औरत की नजर पत्थर फाड़ देती थी। एक पत्थर फाड नजर दसरा खाली बर्तन…। शायद इसलिए मेरे कान सारी उम्र खाली रहे। घर आकर कानों में नीम की पतली-सी डंडियां डाल ली।

फिर मेरे कान पक गए। मां हर रोज घी में हल्दी मिला कर कानों पर लगाती रही।

हम पांचों भाई-बहन आपस में लड़ते-मरते रहते। मैं उनके काबू ना आती। उन्हें मुझे काबू करने का गुर मिल गया। वह मेरे कान दुखा देते। मैं रोती, सिर पकड़ कर रोने लगती। लेकिन कानों से इंडियां ना निकालती, कहीं कान बंद ना हो जाएं। मुझे तो कानों के लिए बालियां चाहिए थी। मेरी दोनों बहनों के कानों में भी नीम की डंडियां ही थी।

हम बहनें कानों में कुछ पहनने की जिद करती तो मां कहती, “किसी दिन शहर जाऊंगी, सुनार से अपनी बालियां तुड़वा कर तीन जोड़े छोटी-छोटी बालियों के बनवा लाऊंगी।” मगर वह दिन कभी नहीं आया।

मां कभी समझाने लगती, “जमाना बहुत खराब है। वही लड़की सुन्दर लगती है जो अपने मां-बाप की इज्जत को दाग नहीं लगने देती। भले वह गहनों से लदे ससुराल जाए मगर लड़कियों का असली गहना तो इज्जत ही होती है।”

हम गिल्ट की बनावटी बालियां कानों में लटकाए, इज्जत संभाले चलती रहती और उस समय का इंतजार करती, जब गहनों से लदी ससुराल जाएंगी।

मुझे विवाह का अधिक चाव गहनों के कारण ही था। मेरा दिल करता, डिजाईनदार गले वाला सूट हो, गले में रानीहार, कलाइयों में सोने की चूड़ियां, अंगुलियों में अंगूठियां व छल्ले हों। बालों में मांग निकाल कर, एक ओर सोने का फूल लगा हो। सिर हिला-हिला कर बातें करने पर कानों में पड़ी बालियां झूमने लगें। मगर मां-बाप ने मुझे विवाह के समय केवल कानों की बालियां और अगूंठी ही दी। मां कह रही थी, “बेटियों को तो सारी उम्र देना होता है। कभी भले दिन भी आएंगे। तुम जानती हो, हम कबीलदार लोग हैं। अभी हम से इतना ही जुट पाया है। गरीबी में औरत का असली गहना तो उसका पति होता है। पाल सिंह बहुत जंचेगा तेरे साथ चलते हुए।”

विवाह के बाद पहली रात मैं कमरे में बेड पर घूघट निकाले बैठी थी। हैप्पी के बाप का इंतजार करते-करते मैं थक कर लेट गई। वह आधी रात को नशे में धुत् होकर आया। आते ही मुझ पर टूट पड़ा। मैं डर से सिमट गई। वह बदमाशों जैसी हरकतें करता रहा। मेरा दुपट्टा फाड़ कर फेंक दिया। मेरी जान सूखने लगी।

“यह भी उतार दो, वो भी उतार दो। क्यों सब संभाल कर रखना। जब सब कछ आग पर जल ही जाएगा। उतार दे सारे गहने अपने उतार दे।”

मुझे बहुत सदमा लगा। ऐसे मौके पर चिता की बात करना कितना अपशगुन भरा है।

मुझे अधनग्न हालत में बिठा कर, खुद हंसने लगा, जैसे जंग जीत ली हो। मैंने दोनों हाथों से मुंह ढांप लिया। शर्म से मर रही थी। डरी-सहमी भी थी, गुस्सा भी आ रहा था। शर्म, हया, इज्जत, जिन्हें मां गहना कहा करती थी. जिसे मैंने इसके लिए हमेशा संभाल कर रखा था। यह उज्जड आदमी चार फेरे लेकर, उस हया का मजाक उडा रहा था। लटना चाह रहा था। जी चाहा, ‘थ’ कह कर बाहर निकल जाऊं।

मैंने कहा, “मेरा दिल घबरा रहा है। मुझे डर लग रहा है।”

“डर कैसा, कुछ नहीं होगा। आ जा, मेरी बांहों के गहनों में। चिता में सब जल ही जाना है।’

मेरी चीख निकल गई। उसने हाथ से मेरा मुंह दबा दिया।

दूसरे दिन सुबह देर से उठी। अपने आप को संभाला। मेरी बालियां व अगूंठी गायब थी। मैं सन्न रह गई। मैं लुट गई थी।

पाल मुझे बहुत संयम से समझाने लगा, “कोई बात नहीं। शोर मत मचाना। रिश्तेदार हैं यहां। आखिर क्या सोचेंगे। बेबे को चीजें संभाल कर रखने की आदत है, उसने संभाल कर रख दिए होंगे।”

मुझे आस-पड़ोस वाली औरतें शगुन देने के लिए आई। मैं अपने कान अच्छे से ढंक कर बैठी रही।

फिर पाल ने उसी प्रकार की बनावटी बालियां मुझे ला दीं, जिन्हें मैंने कानों में पहन लिया। जब उन पर से सोने का रंग उतरने लगा, तब मुझे सास पर गुस्सा आने लगा। पता नहीं कहां संभाल कर रख दी थी मेरी बालियां और अगूंठी। एक दिन हार कर मैंने उससे पूछ ही लिया। वह तो मेरे पीछे ही पड़ गई। कहने लगी, “यही बात तो मैं तुम से कई दिनों से पूछना चाह रही थी। मुझे लगा, तुम ने गहने अपने मायके भिजवा दिए हैं। पहले ही भूखे-नंगों ने कुछ नहीं दिया। जो भी दिया, वो भी वापस ले गए। ऐसे तो तुम मेरे पुत्त का घर ही लुटा दोगी।” मैं यह सब सुन कर हैरान रह गई।

बाद में पता लगा, यह सारी करतूत पाल की ही थी। वह घर का बाकी सामान भी बेचता रहता था। वह कहता, “यदि मेरे पास सौ रुपए हों और जब तक मैं उन्हें खर्च ना कर दूं, मुझे बेचैनी लगी रहती है।”

मेरे मन में आता रहा। पापी, तुझे इतनी जल्दबाजी किस बात की थी। मुझे लूट लेने की। कुछ दिन मेरे चाव ही पूरे होने देता।

किसी अन्य का हार-श्रृंगार देख कर मेरा दिल डूबने लगता था। दिल करता, यह सब मेरे पास भी होना चाहिए। मैं कई-कई दिन पाल के साथ नाराज रहती।

रात को पाल मनाने लगता, “रुठे ना मेरी झांजर वाली, जग भले सारा रुठ जाए।”

झांजर वाली कह कर उसने मेरे जख्मों पर नमक छितरा दिया था।

मैं गुस्से से बोलने लगती, “मैं कहती हूं, कीड़े पड़े तुझे। दारू-शराब के लिए तो तुझे बहुत पैसे जुड़ जाते हैं। मैं तो कहती हूं, तेरा कख्ख (कुछ भी) ना रहे। मेरे कानों को सूना कर दिया।”

पाल ने मुझे बहुत पीटा। मैं रुठ कर मायके चली गई। बात पंचायत तक जा पहुंची।

पंचायत में बापू मेरे दुख से दुखी कहने लगा, “इसने लड़की को जानवर समान पीटा है। सारे शरीर पर नील पड़े हैं। अगर इसे ऐसा ही दौरा पड़ता है तो जाकर जानवरों को पीटा करे।”

“क्यों जानवरों को क्यों पीटे, वो तो दूध देते हैं।” जानवर समान ही पाल बोला। सारी पंचायत में हंसी गूंजने लगी।

आखिर बात दबा दी गई। मुझे फिर ससुराल भेज दिया गया क्योंकि मेरी कोख में हैप्पी था।

मैंने गहने लेने की इच्छा को भुला ही दिया, परन्तु कभी-कभी अब भी दिल मचलने लगता था।

एक दिन मैं मायके में थी। मां को उलाहना देते हुए मैंने कहा, “मुझे नंगा ही ब्याह दिया था।”

मां कहने लगी, “संयोग की बात है बेटा। कोई मां-बाप ऐसा नहीं करना चाहता। कोई नहीं भगवान करेगा, दिन फिरेंगे। वैसे भी तुझे क्या कमी है, तेरी गोद में हीरे जैसा पुत्र है।”

“वैसे मेरे मन में है। जरा-सा हाथ खुला होने दे, तुझे बालियां बनवा कर देंगे। मगर उस नशेड़ी का क्या पता, फिर कहीं बेच खाएं।”

मैं तल्ख हो गई, “मैं कौन-सा उस नशेड़ी के साथ भाग कर गई थी। आप ने ही ढूंढा था मेरे लिए। जैसा भी है, मेरा है, जीता रहे।”

आज भाग सिंह का भोग (क्रिया) है। बहू ने मेरे कानों में बालियां देख लीं। वह मुस्कुराई। मुझे लगा, जैसे मन में कहा हो, ‘बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम!’

हैप्पी हंसने लगा, “मां, तेरे कानों में बालियां बहुत जंच रही हैं। जी करता है, तुम्हें इससे भी सुन्दर बालियां बनवा कर दूं। मगर मंहगाई ने मार दिया है। चल अब भोग पर जाने के लिए तैयार हो जा। बालियां उतार कर डिबिया में डाल दे।”

मैं गुस्से में आ गई, “मैं तुम्हें दवा के लिए भी कहती हूं तो तुम्हें मुसीबत लगने लगती है। रानी के पास बहुत कुछ है। आग लगाने से भी खत्म ना हो। उसे बालियां बनवा कर दे दी। बता तो पैसे किस कएं से निकाल कर लाया?”

“मां, अब तुम खुद समझदार हो। तुम्हें क्या समझाऊं? तुम खुद ही कहती हो, भई बेटियों को सारी उम्र देना होता है। बहाना ढूंढना पड़ता है, उन्हें देने के लिए। फिर रीति-रिवाज को तो निभाना ही पड़ता है।” हैप्पी समझदारों की तरह बातें कर रहा था, जैसे उसमें पुरखों की रूह आ गई हो।”

“आग लगे, इन रिवाजों को। मैं नहीं उतारूंगी इन बालियों को। ना ही मुझे भोग पर जाना है।” मैंने दो टूक कहा।

“मां क्यों बच्चों जैसी बातें करती हो। बुआ ने खुद पैसे दिए थे, इन बालियों के लिए ताकि अपनी नाक बची रहे और उसे भी बिरादरी में मुंह ना छिपाना पड़े।”

हार कर मैंने बालियां उतार कर बहू के हाथों में दे दीं। बुझे मन से अंदर जा घुसी। सब कुछ सूना-सूना लगने लगा, जैसे शरीर में सांस बाकी न रही हो। मैं बिस्तर पर जा गिरी।

उधर पाल को खांसी का दौरा पड़ा। वह पुकार रहा है, “अरे, कोई दवा तो दे जाओ।”

मैं मन मार कर उठी। अंगीठी पर रखी दवा उठाई। खांसी के मारे पाल का बुरा हाल था। लगा, अगर दवा ना मिली तो चिता जल जाएगी।

मुझे पाल पर बहुत तरस आता है। लेकिन मैं दवा अंगीठी पर ही रख, बाहर की ओर चल दी।

पाल लगातार खांस रहा था, उसकी सांस उखड़ रही थी।

एकदम हैप्पी आ गया। उसने मुझे देख कर नजरें झुका ली। सोचता होगा, मां अब फिर से लड़ेगी कि अपने बाप को किसी अच्छे डॉक्टर को क्यों नहीं दिखाता। हां, मुझे कहना तो यही चाहिए था मगर मेरे दिल की बात जुबान पर आ गई। मैं हैप्पी से पूछने लगी, “अगर तेरा बाप मर गया तो तेरे मामा भी मुझे ऐसी ही बालियां पहनाएंगे?”

हैप्पी अजीब नजरों से मेरी ओर देखने लगा।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’

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