गुप्त धन - गृहलक्ष्मी की कहानियां

उसकी वह पुकार सुरंग की समस्त शाखा-प्रशाखाओं से बार-बार प्रतिध्वनित होने लगी। थोड़ी दूर से उत्तर आया, “मैं तुम्हारे पास ही हूँ‒क्या चाहते हो, बोलो!”

मृत्युंजय ने दीन स्वर में कहा, “धन कहाँ है, दया करके मुझे दिखा दो!”

फिर कोई उत्तर नहीं मिला। मृत्युंजय ने बारंबार पुकारा। कोई उत्तर नहीं मिला। दंड प्रहरों द्वारा अविभक्त पृथ्वी की इस चिररात्रि में मृत्युंजय और एक बार सो लिया। नींद से फिर उसी अंधकार में वह जागा। चिल्लाकर पुकारा “अजी हो क्या!”

पास से ही उत्तर मिला, “यहीं हूँ। क्या चाहते हो?”

मृत्युंजय ने कहा, “मैं और कुछ नहीं चाहता‒इस सुरंग से मेरा उद्धार करके ले चलो!”

संन्यासी ने प्रश्न किया, “तुम धन नहीं चाहते?”

मृत्युंजय ने कहा, “नहीं, नहीं चाहता।”

तभी चक़मक़ रगड़ने का शब्द हुआ और कुछ देर बाद बत्ती जल गई। संन्यासी ने कहा, “तो फिर आओ मृत्युंजय, इस सुरंग से बाहर चलें।”

मृत्युंजय ने दयनीय स्वर में कहा, “बाबा, क्या सब-कुछ बिलकुल व्यर्थ जाएगा। इतने कष्ट के बाद भी क्या धन नहीं मिलेगा।”

उसी क्षण बत्ती बुझ गई। मृत्युंजय बोला, “तुम कितने निष्ठुर हो!” और यह कहकर वहीं बैठकर सोने लगा। समय का कोई हिसाब न था, अंधकार का कोई अंत न था। मृत्युंजय को इच्छा हुई कि अपने तन-मन के सारे बल से इस अंधकार को फोड़कर चूर्ण कर डाले। प्रकाश आकाश और विश्व-सौन्दर्य की विचित्रता के लिए उसके प्राण व्याकुल हो उठे, बोला, “हे संन्यासी! निष्ठुर संन्यासी! मैं धन नहीं चाहता, मेरा उद्धार करो!”

संन्यासी ने कहा, “धन नहीं चाहते? तो फिर मेरा हाथ पकड़ो। मेरे साथ चला!”

इस बार बत्ती नहीं जली। एक हाथ में लाठी और एक हाथ में संन्यासी का उत्तरीय पकड़कर मृत्युंजय धीरे-धीरे चलने लगा। बहुत देर तक कई टेढ़े-मेढ़े रास्तों में ख़ूब घूम-फिरकर एक जगह आकर संन्यासी ने कहा, “खड़े रहो!”

मृत्युंजय खड़ा रहा। उसके पश्चात् मोरचा लगे लोहे के एक दरवाज़े के खुलने का भयंकर शब्द सुनाई दिया। संन्यासी ने मृत्युंजय का हाथ पकड़कर कहा, “आओ!”

मृत्युंजय ने आगे बढ़कर जैसे किसी कमरे में प्रवेश किया। तब फिर चक़मक़ रगड़ने का शब्द सुनाई दिया। कुछ देर बाद जब मशाल जल गई, तब यह कैसा अद्भुत दृश्य! चारों ओर दीवारों पर पृथ्वी के गर्भ में रुद्ध प्रखर सूर्यालोक-पुंज के समान तह पर तह सोने का मोटा-मोटा पत्तर मढ़ा हुआ था। मृत्युंजय की आँखें चमकने लगीं। वह पागल की भाँति बोल उठा, “यह सोना मेरा है‒इसे मैं किसी भी प्रकार छोड़कर नहीं जा सकता।”

संन्यासी ने कहा, “अच्छा छोड़कर मत जाना, यह मशाल रही‒और वह सत्तू चिवड़ा और एक बड़े लोटे में जल रखे जाता हूँ।”

देखते-देखते संन्यासी बाहर चले गए और उस स्वर्ण-भंडार के लोहे के दरवाज़े के किवाड़ बंद हो गए।

मृत्युंजय बार-बार इस स्वर्ण-पुंज का स्पर्श करता हुआ सारे कमरे में चक्कर लगाने लगा। सोने के छोटे-छोटे टुकड़े तोड़कर ज़मीन के ऊपर फेंकने लगा, गोद में बटोरने लगा, एक से दूसरे को टकराकर शब्द करने लगा और सारे शरीर पर फेरकर उसका स्पर्श लेने लगा। अंत में थककर सोने का पत्तर बिछाकर उसके ऊपर लेटकर सो गया।

जगकर देखा, चारों ओर सोना झिलमिला रहा था। सोने के अलावा और कुछ न था। मृत्युंजय सोचने लगा, “धरती पर शायद अब तक प्रभात हो गया होगा, समस्त जीव-जंतु आनंद से जाग उठे होंगे।’ उसके घर में तालाब के किनारे के बाग़ से प्रातःकाल जो स्निग्ध सुगंध आती थी, वहीं मानो उनकी कल्पना में उसकी नाक में प्रवेश करने लगी। उसे मानो स्पष्ट दिखाई दिया कि छोटी-छोटी बत्तख़ें झूमती-झूमती कलरव करती हुईं प्रातःकाल आकर तालाब में तैर रही हों और घर की नौकरानी बामा कमर में आँचल लपेटे ऊपर उठे दाहिने हाथ में पीतल-काँसे की थाली कटोरियों का ढेर लिये घाट पर जमा कर रही है।

दरवाज़ा पीटकर मृत्युंजय पुकारने लगा, “ओ संन्यासी महाराज, हो क्या?”

द्वार खुल गया। संन्यासी ने कहा, “क्या चाहते हो?”

मृत्युंजय बोला, “मैं बाहर जाना चाहता हूँ‒किन्तु क्या सोने के दो-एक पत्तर भी साथ नहीं ले जा सकूँगा।”

उसका कोई उत्तर दिए बिना संन्यासी ने फिर मशाल जलाई‒एक भर हुआ कमंडल रख दिया और उत्तरीय से कई मुट्ठी चिवड़ा ज़मीन पर रखकर बाहर चले गए। द्वार बंद हो गया।

मृत्युंजय ने सोने का एक पतला पत्तर लेकर उसे मोड़कर टुकड़े-टुकड़े करके तोड़ डाला। उस टूटे हुए सोने को लेकर कमरे के चारों ओर मिट्टी के ढेले के समान बिखेरने लगा। कभी दाँतों से काटकर सोने के पत्तर में दाग़ करता। कभी सोने के किसी पत्तर को ज़मीन पर फेंककर उसके ऊपर बार-बार पदाघात करता। मन-ही-मन कह उठता, ‘पृथ्वी पर ऐसे सम्राट कितने हैं, जो सोने को इस प्रकार इधर-उधर बिखेर सकते हैं।’ मृत्युंजय पर मानो एक प्रलय की सनक सवार हो गई। उसकी इच्छा होने लगी कि वह उस स्वर्ण-राशि को चूर्ण करके धूल के समान फाँक-फाँककर उड़ा दे‒और इस प्रकार से पृथ्वी के सारे स्वर्ण-लुब्ध राजा-महाराजाओं का तिरस्कार करे।

इस तरह जितनी देर हो सका, मृत्युंजय ने सोने को लेकर खींच-तान की और फिर थककर सो गया। नींद खुलने पर वह अपने चारों ओर फिर वही स्पर्श-राशि देखने लगा। तब दरवाज़े को पीटकर वह चिल्लाकर बोल उठा, “ओ संन्यासी, मैं यह सोना नहीं चाहता‒सोना नहीं चाहता!”

किन्तु, द्वार नहीं खुला। चिल्लाते-चिल्लाते मृत्युंजय का नशा बैठ गया, किन्तु द्वार नहीं खुला। सोने के एक-एक पिण्ड को लेकर वह फेंककर दरवाज़े पर मारने लगा, किन्तु कोई परिणाम न निकला। मृत्युंजय का हृदय बैठने लगा, ‘तब क्या संन्यासी नहीं आएँगे। इस स्वर्ण-कारागार में तिल-तिल पल-पल करके सूखकर मर जाना होगा!’

तब सोना देखकर उसे डर लगने लगा। विभीषिका के मौन कठोर हास्य के समान सोने का वह स्तूप चारों ओर स्थिर होकर खड़ा था‒उसमें स्पंदन नहीं था, परिवर्तन नहीं‒मृत्युंजय का हृदय अब काँपने लगा, व्याकुल होने लगा, उसके साथ उनका कोई संपर्क नहीं था, वेदना का कोई संबंध न था। सोने के ये पिण्ड न प्रकाश चाहते थे, न आकाश, न वायु, न प्राण, न मुक्ति, ये इस चिर अंधकार में चिरकाल से उज्जवल रहकर, कठोर होकर, स्थिर होकर पड़े थे।

पृथ्वी पर अब गोधूलि वेला होगी! अहा! गोधूलि का वह सुनहलापन क्षण-भर के लिए आँखों को शीतल करके अंधकार-प्रांत में रोकर विदा लेता है। उसके पश्चात् कुटिया के आँगन में संध्या-तारा निर्निमेष दृष्टि से देखने लगता है। गौशाला में दीपक जलाकर बहू घर के कोने में संध्या-दीप रखती है। मंदिर की आरती का घंटा बजने लगता है।

गाँव की, घर की अत्यंत क्षुद्र और तुच्छ बातें आज मृत्युंजय की कल्पना-दृष्टि के आगे उज्ज्वल हो गईं। उनका वह भोला कुत्ता पूँछ-सिर एक करके आँगन के कोने में संध्या के बाद सोता रहता, वह कल्पना भी जैसे उसको व्यथित करने लगी। धारागोल गाँव में कई दिन जिस मोदी की दुकान में उसने आश्रय लिया था, वह इस समय रात में दीपक बुझाकर, दुकान बंद करके धीरे-धीरे गाँव में घर की ओर भोजन करने जा रहा होगा, यह बात स्मरण करके उसको लगने लगा, मोदी कितना सुखी है! आज कौन दिन है क्या पता! यदि रविवार होगा तो अब तक हाट से आदमी अपने-अपने घर लौट रहे होंगे, बिछुड़े हुए साथी को ऊँचे स्वर में बुला रहे होंगे, दल बनाकर पार जानेवाली नावों द्वारा पार हो रहे होंगे, मैदान के रास्ते, अनाज के खेतों की मेंड़ पार करके, गाँव के सूखे बाँसों के पत्तों से ढके आँगन की बग़ल से होकर किसान लोग हाथ में दो-एक मछली लटकाए सिर पर टोकरी लिये अँधेरे में तारों भरे आकाश के क्षीण प्रकाश में एक गाँव से दूसरे गाँव चले जा रहे होंगे।

पृथ्वी के ऊपरी तल की इस विचित्र वृहत् चिर-चंचल जीवन-यात्रा में तुच्छतम, दीनतम होकर अपना जीवन मिला देने के लिए मिट्टी के सैकड़ों स्तर भेजता हुआ जगत् का आह्वान उसके पास पहुँचने लगा। वह जीवन, वह आकाश, पृथ्वी के संपूर्ण मणि-माणिक्यों से उसे अधिक मूल्यवान प्रतीत होने लगा। उसको लगने लगा, ‘केवल क्षण-माणिक्यों से उसे अधिक मूल्यवान प्रतीत होने लगा। उसको लगने लगा, ‘केवल क्षण-भर के लिए एक बार यदि अपनी उस श्यामा जनी धारित्री की धूलि-भरी गोद में, उस उन्मुक्त आलोकित नील गगन के नीचे घास-पात की गंध से बसी उस वायु से हृदय भरकर एक बार अंतिम निश्वास लेकर मर सकता तो जीवन सार्थक हो जाता।’

इसी समय द्वार खुल गया। कमरे में प्रवेश करके संन्यासी ने कहा, “मृत्युंजय, क्या चाहते हो!”

वह बोल उठा, “मैं और कुछ नहीं चाहता‒मैं इस सुरंग से, अंधकार से, गोरख-धंधे से, इस सोने के कारागार से बाहर निकलना चाहता हूँ। मैं प्रकाश चाहता हूँ, आकाश चाहता हूँ, मुक्ति चाहता हूँ।”

संन्यासी ने कहा, “इस सोने के भंडार से भी अधिक मूल्यवान रत्नभंडार कहाँ है। एक बार वहाँ नहीं चलोगे?”

मृत्युंजय ने कहा, “नहीं, नहीं जाऊँगा।”

संन्यासी ने कहा, “एक बार देख आने की भी उत्सुकता नहीं है?”

मृत्युंजय ने कहा, “नहीं, मैं देखना भी नहीं चाहता। मुझे यदि कौपीन पहनकर भिक्षा माँगते घूमना पड़े तो भी मैं यहाँ क्षण-भर भी नहीं काटना चाहता।”

संन्यासी ने कहा, “अच्छा, तो फिर आओ।”

मृत्युंजय का हाथ पकड़कर संन्यासी उसे उस गहरे कुएँ के पास ले गए। उसके हाथ में वह लेख-पत्र देकर कहा, “इसे लेकर तुम क्या करोगे?”

मृत्युंजय ने उस पत्र को फाड़कर टुकड़े-टुकड़े करके कुएँ में फेंक दिया।

Leave a comment