गुप्त धन - गृहलक्ष्मी की कहानियां

सपना देखते-देखते मृत्युंजय उछल पड़ा।

दिन-भर वन में घूमकर बड़े कष्ट से रास्ता खोजकर बिना कुछ खाए संध्या-समय मृत्युप्राय अवस्था में मृत्युंजय गाँव को लौटा।

दूसरे दिन चादर में चिवड़ा बाँधकर फिर उसने वन की यात्रा की। अपराह्वन में वह एक बावड़ी के पास जा पहुँचा।

बावड़ी के पश्चिमी किनारे पर मृत्युंजय अचानक चौंककर खड़ा हो गया। देखा, इमली के एक पेड़ को घेरकर एक विशाल वट वृक्ष खड़ा था। तत्क्षण उसे याद आया‒

तेंतुल बटेर कोले (वट की गोद में इमली)

दक्षिणे याओ चले (दक्षिण दिशा में चले जाओ)

कुछ दूर दक्षिण दिशा की ओर जाने पर वह घने जंगल में जा पहुँचा। वहाँ बेंत की झाड़ियों को पार करके चलना उसके लिए एकदम असंभव हो गया। जो हो, मृत्युंजय ने तय किया, इस वृक्ष को खो देने से किसी भी प्रकार काम नहीं चलेगा।

इस पेड़ के पास लौटकर आते हुए पास ही वृक्ष के बीच से एक मंदिर का शिखर दिखाई पड़ा। उसी दिशा की ओर लक्ष्य करके चलता हुआ मृत्युंजय एक टूटे मंदिर के पास आ पहुँचा। उसने देखा, पास ही एक छोटा-सा चूल्हा, जली लकड़ी और राख पड़ी थी। ख़ूब सावधानी से मृत्युंजय ने मंदिर के टूटे दरवाज़े में झाँका। वहाँ कोई आदमी नहीं था, प्रतिमा नहीं थी, केवल एक कंबल; एक कमंडल और एक गेरुआ उत्तरीय पड़ा था।

उस समय संध्या हो चली थी; गाँव बहुत दूर था, अँधेरे में वन में रास्ता ढूँढ़ा जा सकेगा या नहीं, अतः इस मंदिर में मनुष्य के बसने का लक्षण देखकर मृत्युंजय ख़ुश हुआ। मंदिर का एक बहुत बड़ा पत्थर का टुकड़ा टूटकर द्वार के पास पड़ा हुआ था; उस पत्थर पर बैठकर नीचा सिर किए सोचते-सोचते मृत्युंजय ने अचानक पत्थर पर जाने क्या खुदा हुआ देखा। झुककर देखा, एक चक्र अंकित था, उसमें कुछ स्पष्ट कुछ लुप्तप्राय ढंग से निम्नलिखित सांकेतिक अक्षर खुदे हुए थे‒

यह मृत्युंजय का सुपरिचित चक्र था। अमावस्या की कितनी रातों में उसने सुगंधित धूप के धुएँ और घी के दीये से प्रकाशित पूजा-गृह में रुई के काग़ज़ पर अंकित हुए चक्र-चिह्न पर झुककर रहस्य जानने के लिए एकाग्रचित्त से देवी की कृपा की याचना की थी। अभीष्ट सिद्धि के अत्यंत पास आ पहुँचने पर आज उसका सर्वांग जैसे काँपने लगा। कहीं किनारे आकर नौका न डूब जाए, कहीं किसी एक साधारण-सी भूल के कारण उसका सब-कुछ नष्ट न हो जाए, कहीं वह संन्यासी पहले ही आकर सब-कुछ ढूँढ़कर न ले जा चुका हो, इसी आशंका से उसके हृदय में उथल-पुथल मच गई, उस समय उसका क्या कर्तव्य था, यह वह न सोच सका। उसे लगा, वह कदाचित् ऐश्वर्य-भंडार के बिलकुल ऊपर बैठा है, फिर भी कुछ जान नहीं पा रहा है।

बैठे-बैठे वह काली का नाम जपने लगा; संध्या का अंधकार घना हो आया; झिल्ली की झनकार से वनभूमि मुखरित हो उठी।

तभी कुछ दूर घने जंगल में आग की चमक दिखाई पड़ी। मृत्युंजय अपना पत्थर का आसन छोड़कर उठा और उस अग्नि-शिखा को लक्ष्य करके चलने लगा।

अत्यंत कठिनाई से कुछ दूर जाकर पीपल के तने की ओट से स्पष्ट देखा, उसका वही परिचित संन्यासी अग्नि के प्रकाश में वह रुई काग़ज़ का लेख फैलाकर एक सींक से राख के ऊपर एकाग्र मन से हिसाब लगा रहा था।

मृत्युंजय के घर के उस पैतृक लेख की लिखावट! अरे पाखंडी चोर! इसी कारण इसने मृत्युंजय से शोक न करने को कहा था।

संन्यासी बार-बार हिसाब लगाता और एक छड़ी लेकर ज़मीन नापता। थोड़ी दूर नापकर हताश होकर गर्दन हिलाकर फिर आकर हिसाब लगाने में जुट जाता।

इस तरह करते हुए जब रात समाप्त होने को आई, जब रात के अंत की शीतल वायु से वनस्पतियों की चोटियों के पत्ते मर्मरित हो उठे, तब संन्यासी वह लेखपत्र लपेटकर चला गया।

मृत्युंजय यह न समझ सका कि क्या करे। वह यह भली-भाँति समझ गया कि संन्यासी की सहायता के बिना इस लिखावट का रहस्य-भेद करना उसके लिए संभव न था। और यह भी निश्चित था कि लुब्ध संन्यासी मृत्युंजय की सहायता नहीं करेगा। अतः छिपकर संन्यासी के ऊपर निगाह रखने के अतिरिक्त और कोई उपाय न था। किन्तु, दिन में गाँव में बिना गए उसे भोजन नहीं मिलेगा; अतएव कम-से-कम कल सवेरे एक बार गाँव जाना आवश्यक था।

भोर की तरफ़ अंधकार के तनिक फीका पड़ते ही वह पेड़ से नीचे उतर आया जहाँ संन्यासी राख पर सवाल लगा रहा था, वहाँ अच्छी तरह देखा, कुछ समझ न सका। चारों ओर घूमकर देखा, जंगल में कोई ख़ास बात न थी।

वन-प्रांत का अंधकार धीरे-धीरे जब क्षीण हो आया, तब बड़ी सावधानी से चारों ओर देखता हुआ मृत्युंजय गाँव की ओर चला। उसे डर था कि कहीं संन्यासी उसे देख न ले।

जिस दुकान में मृत्युंजय ने आश्रय ग्रहण किया था, उसके पास एक कायस्था गृहिणी व्रत के उपलक्ष्य में उस दिन ब्राह्मण-भोजन कराने की तैयारी कर रही थी। वहीं अब मृत्युंजय को भोजन मिल गया। कई दिन के भोजन के कष्ट के पश्चात् आज उसका भोजन भारी हो गया। इस भारी भोजन के बाद उसने जैसे ही हुक़्क़ा पीकर दुकान की चटाई पर ज़रा लेटने की इच्छा की, वैसे ही गत रात्रि को न सो सकने के कारण मृत्युंजय ने सोचा था कि जल्दी ही भोजनादि करके काफ़ी दिन रहते बाहर निकलेगा। हुआ ठीक इसका उल्टा। जब उसकी नींद टूटी, तब सूर्य अस्त हो चुका था। तो भी मृत्युंजय निरुत्साहित नहीं हुआ। अँधेरे में ही उसने वन में प्रवेश किया।

देखते-देखते रात घनीभूत हो आई। पेड़ों की छाया में निगाह काम नहीं देती थी, जंगल में रास्ता रुक जाता। मृत्युंजय किस ओर कहाँ जा रहा था, इसका उसे कोई पता न चला। जब रात बीत गई, तब देखा कि सारी रात वह वन के किनारे एक ही जगह चक्कर काटता रहा था।

कौओं का झुंड काँव-काँव करता हुआ गाँव की ओर उड़ चला। यह शब्द मृत्युंजय के कानों को व्यंग्यपूर्ण धिक्कार-वाक्य जैसा लगा।

गणना करने में बार-बार भूल होती रही थी, वही भूल ठीक करते-करते अंत में संन्यासी ने सुरंग का रास्ता ढूँढ़ लिया। मशाल लेकर वे सुरंग में घुसे। पक्की भीत पर काई जमी थी। बीच-बीच में किसी-किसी जगह से जल टपक रहा था। जगह-जगह अनेक मेंढक एक-दूसरे से सटे हुए स्तूपाकार होकर सो रहे थे। इस रपटीले रास्ते से कुछ दूर जाते ही संन्यासी ने देखा, सामने दीवार खड़ी थी। राह अवरुद्ध थी। कुछ भी न समझ सके। हर जगह दीवार में लोहे के डंडे से ठोंककर देखा, कहीं से पोली होने की आवाज़ न आई, कहीं रंध्र नहीं। इसमें संदेह न रहा कि वह रास्ता यहीं समाप्त हो गया था।

फिर वही काग़ज़ खोला। सिर पर हाथ धरकर बैठे सोचने लगे। वह रात इसी तरह कट गई।

दूसरे दिन गणना पूरी करके फिर सुरंग में प्रवेश किया। उस दिन गुप्त संकेत का अनुसरण करते हुए एक स्थान विशेष से पत्थर सरकाकर दूसरे रास्ते की खोज की। उस रास्ते पर चलते-चलते फिर एक जगह रास्ता बंद हो गया।

अंत में पाँचवीं रात सुरंग में प्रवेश करके संन्यासी बोल उठे, “आज मुझे रास्ता मिल गया है, अब आज मुझसे कोई भूल न होगी।”

रास्ता अत्यंत जटिल था; उसकी शाखा-प्रशाखाओं का अंत न था‒कहीं ऐसा सँकरा कि घुटनों के बल चलना पड़ता। बड़ी सावधानी से मशाल लिए चलते-चलते संन्यासी गोलाकार कमरे-जैसी एक जगह में जा पहुँचे। कमरे के बीच में एक बड़ा-सा कुआँ था। मशाल की रोशनी में संन्यासी उसका तला न देख सके। कमरे की छत से लोहे की एक विशाल मोटी ज़ंजीर कुएँ में लटक रही थी। संन्यासी के प्राणपण से बलपूर्वक ठेलते ही इस जंज़ीर के थोड़ा-सा हिलने-मात्र से ठन् करके एक शब्द कुएँ के गह्वर से उठा और कमरा प्रतिध्वनित होने लगा। संन्यासी उच्च स्वर से चीख़ उठे ‘मिल गया।’

उनके चीख़ने के साथ ही कमरे की टूटी हुई दीवार से एक पत्थर खिसककर गिरा और उसी के साथ-साथ एक और कोई जीवित पदार्थ धम्म से गिरकर चीख उठा। संन्यासी इस आकस्मिक आवाज़ से चौंक पड़े और उनके हाथ से मशाल गिरकर बुझ गई।

संन्यासी ने पूछा, “तुम कौन हो?” कोई उत्तर नहीं मिला। इस पर अँधेरे में टटोलकर देखने से उनका हाथ एक आदमी की देह से टकराया। उसको हिलाकर पूछा, “तुम कौन?”

कोई उत्तर नहीं मिला। आदमी मूर्च्छित हो गया था।

तब चकमक रगड़-रगड़कर संन्यासी ने बड़ी मुश्किल से मशाल जलाई। इस बीच वह आदमी भी सचेत हो गया था और उठने का प्रयत्न करते हुए पीड़ा से आर्त्तनाद कर उठा।

संन्यासी ने कहा, “अरे यह तो मृत्युंजय है। तुम्हारी ऐसी मति क्यों हुई।”

मृत्युंजय बोला, “बाबा, माफ़ करो! भगवान् ने मुझे दंड दिया है। पत्थर फेंककर तुम्हें मारने जा रहा था, सँभल नहीं सका‒फिसलकर पत्थर-सहित मैं गिर पड़ा, पैर अवश्य ही टूट गया होगा।”

संन्यासी ने कहा, “मुझे मारने से तुम्हें क्या लाभ होता।”

मृत्युंजय ने कहा, “तुम लाभ की बात पूछ रहे हो। तुम लोभ के मारे मेरे पूजा-घर से लेख चुराकर इस सुरंग में घूमते फिर रहे हो। तुम चोर हो, तुम पाखंडी हो! मेरे पितामह को जिन संन्यासी ने यह लेख दिया था, उन्होंने कहा था कि हमारे ही वंश का कोई इस लेख के संकेत को समझ पाएगा। यह गुप्त ऐश्वर्य हमारे ही वंश का प्राप्य है। इसलिए मैं कई दिन से, बिना खाए, बिना सोए छाया के समान तुम्हारे पीछे घूमता रहा। आज जिस समय तुम चिल्लाए ‘मिल गया’ तो मुझसे और नहीं रहा गया। मैं तुम्हारे पीछे आकर इसे गड्ढे में छिपा बैठा था। वहाँ से एक पत्थर सरकाकर तुमको मारने चला था, किन्तु शरीर दुर्बल था, जगह बहुत रपटीली थी‒इसी से गिर पड़ा‒इस समय तुम मुझे मार डालो तो वह भी अच्छा है‒मैं यक्ष होकर इस धन की रक्षा करूँगा‒किन्तु तुम इसे ले नहीं पाओगे‒किसी भी प्रकार नहीं। यदि लेने का यत्न करोगे, तो मैं ब्राह्मण हूँ, तुम्हें अभिशाप देकर इस कुएँ में कूदकर आत्महत्या कर लूँगा। यह धन तुम्हारे लिए ब्राह्मण, गौ के रक्त के समान होगा‒इस धन का तुम कभी भी सुख से भोग न कर सकोगे। हमारे पिता-पितामह इस धन पर पूर्ण ममता रखकर मरे हैं‒इस धन का ध्यान करते-करते हम दरिद्र हो गए हैं‒इस धन की खोज में मैं घर में अनाथा स्त्री और छोटे बच्चे छोड़कर, आहार-निद्रा त्यागकर अभागे पागल के समान घट-मैदानों में घूमता फिर रहा हूँ‒इस धन को तुम मेरे देखते कभी नहीं ले सकोगे।”

संन्यासी बोले, “मृत्युंजय, तो फिर सुनो? तुम्हें सारी बात सुनाता हूँ। तुम जानते हो, तुम्हारे पितामह का एक छोटा सहोदर भाई था, उसका नाम था शंकर।”

मृत्युंजय ने कहा, “हाँ, वे घर से लापता हो गए थे।”

संन्यासी ने कहा, “मैं वही शंकर हूँ।” मृत्युंजय ने हताश होकर दीर्घ निश्वास छोड़ी, इतने दिन तक वह यह निश्चय किए बैठा था कि इस गुप्त धन पर एकमात्र उसी का अधिकार है, उसी के वंश के आत्मीय ने आकर यह अधिकार नष्ट कर दिया।

शंकर ने कहा, “संन्यासी से लेख पाने के बाद भैया ने उसे मुझसे छिपाने का पूरा यत्न किया था। किन्तु वे जितना ही छिपाने लगे, मेरी उत्सुकता उतनी ही बढ़ने लगी। उन्होंने इस लेख को देवी के आसन के नीचे बक्स में छिपाकर रखा था, मुझे इसका पता लग गया; और दूसरी चाबी बनवाकर प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा करके लेख की प्रतिलिपि करने लगा। जिस दिन नक़ल समाप्त कर ली, उसी दिन मैं इस धन की खोज में घर छोड़कर बाहर निकल पड़ा। मेरे भी घर में अनाथा स्त्री और एक बच्चा था। आज उनमें से कोई नहीं बचा है।

“कितने देश-देशांतरों में भ्रमण किया है इसका विस्तार से वर्णन करने की आवश्यकता नहीं है। संन्यासी के दिए हुए इस लेख को कोई संन्यासी मुझे अवश्य समझा देगा, यह समझकर मैंने अनेक संन्यासियों की सेवा की। अनेक पाखंडी संन्यासियों ने मेरे इस काग़ज़ का पता लगाकर इसे चुराने की भी कोशिश की। इस प्रकार एक के बाद एक कितने ही वर्ष बीत गए, मेरे मन को क्षण-भर के लिए भी सुख नहीं मिला, शांति नहीं मिली।

“अंत में पूर्व जन्म में अर्जित पुण्य के प्रभाव से कुमायूँ-पर्वतों में बाबा स्वरूपानंद स्वामी का संग मिला। उन्होंने मुझसे कहा, “बैठो, तृष्णा दूर करो, तभी विश्वव्यापी अक्षय संपदा अपने-आप तुम्हें प्राप्त होगी।’

“अंत में पूर्व जन्म में अर्जित पुण्य के प्रभाव से कुमायूँ-पर्वतों में बाबा स्वरूपानंद स्वामी का संग मिला। उन्होंने मुझसे कहा, “बैठो, तृष्णा दूर करो, तभी विश्वव्यापी अक्षय संपदा अपने-आप तुम्हें प्राप्त होगी।’

“उन्होंने मेरे मन के ताप को शीतल कर दिया। उनकी कृपा से आकांक्षा का आलोक और धरती की श्यामलता मेरे लिए राज-संपदा हो गई। एक दिन पर्वत की शिला के नीचे शीतकाल की संध्या के दिन परमहंस बाबा की धूनी में आग जल रही थी‒उसी आग को अपना काग़ज समर्पित कर दिया। बाबा थोड़ा मुस्कुराए। उस हँसी का अर्थ उस समय नहीं समझा था, आज समझा हूँ। उन्होंने अवश्य मन-ही-मन कहा हो कि काग़ज़ को राख कर डालना आसान है, किन्तु वासना इतनी जल्दी भस्मसात् नहीं होती।

“काग़ज़ का जब कोई चिह्न शेष न रहा, तब जैसे मेरे मन के चारों ओर से एक नागपाश-बंधन पूर्ण रूप से खुल गया हो। मुक्ति के अपूर्व आनंद से मेरा चित्त परिपूर्ण हो उठा। मैंने सोचा ‘अब मुझे कोई भय नहीं‒जगत् में मैं और कुछ नहीं चाहता।’

“उसके कुछ समय बाद परमहंस बाबा का हाथ छूट गया। उनको बहुत ढूँढ़ा, कहीं भी उन्हें न देख सका।

“अब मैं संन्यासी होकर निरासक्त मन से विचरने लगा। अनेक वर्ष बीत गए‒उस लेख की बात प्रायः भूल ही गया था।

“इस बीच एक दिन धारागोल के इस जंगल में प्रवेश करके एक टूटे मंदिर में आश्रय ग्रहण किया। दो-एक दिन रहते-रहते देखा, मंदिर की भीत पर स्थान-स्थान पर अनेक प्रकार के चिह्न बने हुए हैं। ये चिह्न मेरे पूर्व परिचित थे।

“कभी बहुत दिनों तक जिसकी खोज में फिरा था, उसका सुराग मिल गया, इसमें मुझे संदेह न रहा। मैंने कहा, ‘यहाँ अब रहना नहीं होगा, यह वन छोड़ चलूँ।’

“किन्तु छोड़कर जाना संभव नहीं हुआ। सोचा, ‘देख ही क्यों न लिया जाए, क्या है‒कौतूहल को बिलकुल शांत कर देना ही अच्छा है।’ चिह्नों को लेकर काफ़ी विचार किया; कोई फल न निकला। बार-बार लगने लगा कि वह काग़ज़ क्यों जला डाला‒उसको रखे रहने में ही क्या क्षति थी?

“तब मैं फिर अपने जन्म-स्थान गया। अपने पैतृक घर की अत्यंत दुर्व्यवस्था देखकर सोचा, ‘संन्यासी हूँ, मुझे धन-रत्नों से क्या प्रयोजन, किन्तु ये ग़रीब लोग तो गृहस्थ हैं, उस गुप्त संपत्ति का इनके लिए उद्धार करने में कोई दोष नहीं है।’

“मुझे पता था कि वह लेख कहाँ है, उसे प्राप्त करना मेरे लिए तनिक भी कठिन नहीं हुआ।

“उसके बाद एक वर्ष से यह काग़ज़ लिए मैंने इस निर्जन वन में गणना की है और खोज की है। मन में और कोई चिन्ता न थी। बार-बार जितनी बाधाएँ आती थीं, उत्तरोत्तर उतना ही आग्रह बढ़ता जाता था‒उन्मत्त की भाँति रात-दिन इसी एक अध्यवसाय में रत रहा।

“इस बीच कब तुमने मेरा पीछा किया, मैं न जान सका। मैं अपनी सहज अवस्था में रहता तो तुम कभी अपने को मुझसे छिपाकर न रख पाते, किन्तु मैं तन्मय था, बाहर की घटनाएँ मेरी दृष्टि आकर्षित नहीं करती थीं।

“उसके बाद, जो खोज रहा था, वह आज अभी मिला है। यहाँ जितना है, पृथ्वी पर किसी राजराजेश्वर के भंडार में भी उतना धन नहीं है। बस केवल एक संकेत का रहस्य समझते ही वह धन मिल जाएगा।

“यह संकेत ही सबसे कठिन है। किन्तु वह संकेत भी मैंने मन-ही-मन जान लिया है। इसलिए ‘मिल गया’ कहकर मन के उल्लास में चीख़ उठा। यदि चाहूँ तो क्षण-भर में उस सोने और माणिकों के भंडार के बीच खड़ा हो सकता हूँ।”

मृत्युंजय ने शंकर के पैर पकड़कर कहा, “तुम संन्यासी हो, तुम्हें धन की कोई ज़रूरत नहीं है‒मुझे उस भंडार में ले चलो। मुझे वंचित मत करो!”

शंकर ने कहा, “आज मेरा अंतिम बंधन खुल गया है। तुम जो पत्थर फेंककर मुझे मारने के लिए तैयार हुए थे, उसकी चोट तो मेरे शरीर में नहीं लगी, किन्तु उसने मेरे मोहावरण को भेद डाला है। आज मैंने तृष्णा की कराल मूर्ति देख ली। मेरे गुरु परमहंसदेव की गूढ़ प्रशांत हँसी ने इतने दिनों के बाद मेरे हृदय में कल्याण-दीप की सदा जलनेवाली आलोक-शिखा जला दी है।”

मृत्युंजय ने शंकर के पैर पकड़कर फिर कातर स्वर में कहा, “तुम मुक्त पुरुष हो, मैं मुक्त नहीं, मैं मुक्ति नहीं चाहता, मुझे इस ऐश्वर्य से वंचित नहीं कर पाओगे।”

संन्यासी ने कहा, “वत्स, तब तुम अपना यह लेख लो। यदि न धन ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो!”

इतना कहकर अपना डंडा और लेख मृत्युंजय के पास रखकर संन्यासी चले गए। मृत्युंजय ने कहा, “मुझ पर दया करो, मुझे छोड़कर मत जाओ‒मुझे दिखा दो!”

कोई उत्तर नहीं मिला।

तब मृत्युंजय ने लाठी का सहारा लेकर हाथ से टटोलते हुए सुरंग से बाहर निकलने की चेष्टा की। किन्तु रास्ता अत्यंत जटिल था, गोरखधंधे के समान बार-बार रुकावटें आने लगीं। अंत में घूमते-घूमते थककर एक जगह लेट गया और नींद आते देर नहीं हुई। नींद से जब जगा, तब रात थी या दिन; या कितना समय था, यह जानने का कोई उपाय न था। ख़ूब भूख लगने पर मृत्युंजय ने चादर के कोने में बँधा चिवड़ा खोलकर खा लिया। उसके बाद फिर एक बार हाथ से टटोलकर सुरंग से बाहर निकलने का रास्ता खोजने लगा। अनेक जगह रुकावट मिलने के कारण बैठ गया। तब चिल्लाकर पुकारा, “हे संन्यासी! तुम कहाँ हो।”

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