Home Story: आधी रात होने को थी मगर अर्चना का कहीं अता पता नहीं था। यह कोई नयी बात नहीं थी। कभी-कभी आफिस के काम से उसे देर हो जाया करती थी। तो भी मोबाईल किस लिए है। कितनी बार कहा कि मोबाइल ऑन रखा करो। मगर उसके कान पर जूं नहीं रेंगती। कहती, ‘काम के बीच मोबाईल डिस्टर्ब करता है।’ मैं कहता खुद ही इत्तला कर दिया करो कि कब आओगी। जिसपर उसका जवाब बड़ा तल्ख होता। ‘मेरे पास इतना समय नहीं है।’
‘जब परिवार के लिए समय नहीं है तब ऐसी नौकरी करने से क्या फायदा? कमा किस लिए रही हो?’
‘मेरे लिए कैरियर पहले है फिर परिवार। मुझे बहुत कुछ हासिल करना है। मैं तुम्हारी तरह बैंक की मामूली क्लर्क बन कर नहीं रहना चाहती।’ सुनकर मुझे बुरा लगा। ‘याद रखो, आज तुम जो भी हो मेरी वजह से हो। मैंने तुम्हारा सर्पोट नहीं किया होता तो मामूली सी मैनेजर ही रहती।’ ‘क्या सपोर्ट किया है?’ अर्चना तैश में आ गयी। ‘नौ महीने मैंने अनन्या को कोख में रखा है। इसके बावजूद आफिस आती जाती रही। जरा सा संभाल लिया तो इतना एहसान जता रहे हो।’ सुनकर मुझे आत्मग्लानि हुयी। ‘सिर्फ जन्म देने से कोई मां नहीं बन जाता। बच्चे की परवरिश मायने रखती है। तुमने कितना समय दिया है अनन्या को?’
‘समय देती तो आज इतने बड़े मुकाम पर नहीं पहुंचती। खुद को देखो क्लर्क के क्लर्क रह गये। आज मैं तुमसे कई गुना ज्यादा कमाती हूं।’ ‘पैसा ही सबकुछ नहीं होता। तुम्हें अनन्या को जो समय देना चाहिए वह नहीं दिया। अब वह बड़ी हो चुकी है। तुमसे अपने मन की बात शेयर करना चाहती है। और एक तुम हो जो समय न होने का बहाना बना देती हो।’ ‘बहाने का रूपया नहीं मिलता है मुझे। काबिलियत है मुझमें, जो तुममे नहीं है। ऐसा क्यों नहीं कहते।’ अर्चना के तेवर कम होने का नाम नहीं ले रहे थे। अर्चना ने कभी भी अपनी गलती नहीं मानी। मुझे इसी बात का अफसोस होता। आये दिन इस तरह से तू-तू, मैं-मैं होते रहते। जो मुझे बेहद बुरे लगते। सोचता बेचारी अनन्या पर क्या प्रभाव पड़ता होगा। जब भी हमदोनों के बीच इस तरह का वादविवाद होता तो वह एक कमरे में सहमी सी बैठी रहती।
अर्चना हमेशा ऐसी नहीं थी। हमदोनों ने प्रेमविवाह किया था। सबकुछ अच्छे से चल रहा था। अनन्या हुयी तो उसके पालने की समस्या आयी तो मां को दिल्ली बुला लिया। जब वह दस साल की थी तब मां चल बसी। उसके बाद आया के भरोसे आफिस जाता। मैं तो समय से आ जाता मगर अर्चना पहले से ज्यादा व्यस्त होने लगी। कभी शाम सात तो कभी आठ बज जाते उसे घर आने में। मैंने इसे गंभीरता से नहीं लिया। चलो हो जाता है। मगर अब तो हद हो गई। घर के प्रति बिल्कुल बेखबर हो गयी। ‘तुम हो ना?’ सुनकर मेरी भृकुटि तन गयी। ‘जवाब देने का यह तरीका है?’ ‘और कैसे दूं? तुम्हारे पैर पडूं।’ ‘यह संस्कारी लोगों के लिए है। जब तुम्हें मां का फर्ज पता नहीं तो पैर क्या पकड़ोगी।’ ‘कुछ भी कहो। मां तो मैं उसकी हूं ही। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता। रही फर्ज की बात तो एक बात कान खोलकर सुन लो। मैं अपने कैरियर के साथ कोई समझौता नहीं कर सकती।’ ‘तुम चाहते हो कि मैं बच्चों की फौज खड़ी कर दूं।’ ‘तुम हमेशा मेरे कथन का गलत अर्थ लगाती हो।’ ‘मैं खूब समझती हूं। तुम्हें बेटा चाहिए न?’ ‘नहीं, बस यही चाहता हूं कि तुम अनन्या को अपनी बेटी समझो।’
‘उसके लिए क्या करना होगा?’ अर्चना का लहजा व्यंग्यात्मक था।’
‘मेरी तुमसे हाथ जोड़कर विनती है कि अनन्या को अपनी कमी न खलने दो। नहीं तो एक दिन हाथ मलने के लिए कुछ नहीं रह जाएगा तुम्हारे पास।’ ‘वह संभव नहीं। उसके लिए तुम हो।’ ‘अनन्या बड़ी हो रही है। वह दोनों के तल्ख संवादों का उस पर बुरा असर पड़ रहा है। जब भी मेरी नजर उस पर पड़ती है तब उसका मुरझाया चेहरा देखकर मेरा मन पीड़ा से भर उठता है। कितनी अभागिन है वह जिसे मां नहीं बल्कि पैसा कमाने वाली मशीन मिली है।’ एक रोज आफिस से आते बोली, ‘मैं तीन दिनों के लिए सिंगापुर जा रही हूं।’ ‘अकेले जा रही हो?”नहीं, मेरे साथ रंजन सर जा रहे है।’
रंजन, अर्चना के बॉस थे। रंजन की पत्नी का पिछले साल देहावसान हुआ था। उनके दो बच्चे थे। वे काफी तेज और होनहार अधिकारी थे। ‘क्या उनके साथ तुम्हारा जाना उचित होगा?’ मेरे सवाल पर वह तिलमिला गयी। उसने मेरे सवाल का जो अर्थ लगाया वही मैं चाहता था। ‘जमाना कहां से कहां चला गया और एक तुम हो जो अब भी वही दकियानूसी सोच में डूबे रहते हो। ‘तुम सोचते रहो। किसी को क्या फर्क पड़ता है। मैं नहीं जाऊंगी तो कोई और चला जाएगा। वह आगे बढ़ेगा और मैं जहां हूूं वहीं रह जाऊंगी।’ ‘इज्जत भी कुछ होती है?’ ‘मेरी इज्जत को क्या होगा। मैं वहां काम करने जा रही हूं।’
‘बनो मत।’ ‘वह तो समय बतलायेगा।’ अर्चना चली गयी। अनन्या एक कमरे में बैठी सुबक रही थी।
‘पापा, मम्मी को क्या हो गया है?’ अनन्या 14 साल की हो चुकी थी।
आगे पूछा, ‘पापा, ये रंजन अंकल कौन है?’ पहले सोचा टाल दूं। मगर अनन्या से छुपाना आसान न था। वह समझदार हो रही थी। तुम्हारी मां के बॉस।’ कहकर मैंने चुप्पी साध ली। सिंगापुर से लौट कर आने के बाद अर्चना बेहद खुश थी। बताने लगी कि कैसे रंजन सर उसके काम से बेहद खुश थे। जिन-जिन पार्टियों से मैंने डील की उन सबने हमारी कंपनी को आर्डर दिया। उन्होंने वहीं पर मुझे एक्जूयूटिव निदेशक बनाने की घोषणा कर दी।’ न मैंने, न ही अनन्या ने इस पर कोई प्रतिक्रिया जताई। उसने तंज कसा, ‘होगे भी क्यों? कहां बैंक का मामूली क्लर्क कहां मैं एक बहुराष्ट्रीय कंपनी की एक्यूजिक्टिव डाइरेक्टर। ‘होश रखकर बात करो। बहुत हो चुका’, मैं चीखा। मेरा रौद्र रूप देखकर अनन्या डर गयी। ऐसा पहली बार हुआ था। ‘तुमने यह पद कैसे पाया है यह मैं अच्छी तरह जानता हूं। मेरा मुंह मत खुलवाओ।’ ‘खोलकर मेरा क्या बिगाड़ लोगे।’ ‘हां मैं हताश हूं। इसलिए नहीं कि तुम मुझसे कई गुना ज्यादा कमाती हो बल्कि इसलिए कि जिस रास्ते पर तुम चल रही हो उससे मंजिल के नाम पर एक अंधा कुंआ मिलेगा, जिसमें गिरकर तुम कभी उबर नहीं पायोगी।’
अर्चना ने बातचीत का प्रसंग बदला। ‘सिंगापुर से तुम्हारे लिए एक बेहतरीन घड़ी लायी हूं।’ कहकर उसने अपना सूटकेस खोला। जैसे ही घड़ी निकालकर मेरी तरफ बढ़ाया। मैंने उसके हाथ उसी की तरफ घुमाकर बोला, ‘मुझे नहीं चाहिए तुम्हारे उपहार।’ ‘तुम इस लायक हो भी नहीं।’ अर्चना का इतना कहना भर था कि मैंने अपने आप पर से नियत्रंण खो दिया। एक जोरदार तमाचा उसके गाल पर रसीद कर दिया। वह बिफर पड़ी, ‘जाहिल, गंवार तुमने मेरे गाल पर चांटा मारा। अपनी औकात भूल गये।’ ‘हां, भूल ही गया था। अगर याद रहता तो कब का सुधार दिया होता। तुमने मेरी शराफत का नाजायज फायदा उठाया।’
अनन्या यह सब देखकर जोर-जोर से रोने लगी। मैं तेजी से चलकर उसके पास आया। चुप कराने की कोशिश कराने लगा। पापा, कहकर वह मेरे सीने से लिपट गयी। उस रात किसी को नींद नहीं आयी। अर्चना ने जमकर अपनी भडास निकाली। अंतत: मुझे ही चुप होना पड़ा। सुबह हुयी। हमेशा की तरह मैं आफिस जाने की तैयारी करने लगा। हम दोनों के बीच संवादहीनता की स्थिति थी। अर्चना बिना चाय-नाश्ते के अपने समय से आफिस चली गयी। उसके प्रमोशन की खुशी में एक छोटी सी पार्टी आफिस में रखी गयी थी।
अनन्या से बोलकर गयी कि आज देर हो जाएगी उसका इंतजार नहीं करेगी। रात वह घर पर नहीं आयी। रात दस बजे के करीब अर्चना का फोन आया कि वह आज रात नहीं आ पायेगी। क्यों? यह जानने का मेरा अधिकार था, मगर उसने फोन काट दिया। इसके बाद कोशिश की पर सब बेकार रहा। दो दिन से घर नहीं आ रही थी। पता किया तो चला कि वह किसी होटल में रह रही है। मैंने भी चुप्पी साध ली यह सोचकर कि देखें कितना दिन होटल में रहती है। इस बीच अनन्या को मैंने हर तरह से संभालने की कोशिश की। वह उम्र के उस पायदान पर थी जहां समझदारी तो थी पर उम्र का तर्जुबा नहीं था। मैं आफिस से आता तो उसे भरसक कंपनी देता। उसे हमेशा नयी-नयी सीख देता ताकि वह इस परिस्थिति में घबराये नहीं।
एक हफ्ते बाद वह घर आयी। बाहर उसकी कार खड़ी थी, जो शायद डाईरेक्टर बनने के बाद कंपनी से मिली थी। आते ही अपने सारे कपड़े गहने समेटने लगी। मैं हैरान था। ‘कहां जा रही हो?’
‘हम दोनो का निबाह नहीं हो सकता।’अर्चना का जवाब था। ‘मैं समझा नहीं।’ उसने चेहरा मेरी तरफ उठाया। ‘मैं तुमसे तलाक चाहती हूं।’ मुझे अर्चना से यह उम्मीद नहीं थी। हां कभी-कभी मेरे मन में ये ख्याल आता था कि इस तरह कैसे चलेगा। अर्चना का रवैया एकतरफा था। उसे अपने आगे कुछ नहीं सूझता था। उसे मुझसे नफरत हो सकती थी मगर मां होने के नाते अपनी औलाद के प्रति इस तरह सौतेलापन होना मेरी समझ से परे था।
‘अपनी बेटी का क्या करोगी। अब वह 15 साल की हो चली है।’ ‘बेटी सिर्फ तुम्हारी है मेरी तो कुछ लगती नहीं।’ अर्चना ने तंज कसा। ‘मैं तुमसे बहस नहीं करना चाहता। ठंडे दिमाग से सोचकर बताना।’
‘अब बताने के लिए कुछ नहीं बचा। मैंने मन बना लिया है। अब उससे पीछे नहीं हटूंगी।’ मैं नहीं चाहता था कि अनन्या को मां के साये से वचिंत रहना पड़े। मैंने तो यहां तक सोच लिया था कि अर्चना जैसे रहना चाहे रहे मगर तलाक न ले। जब काफी समझाने बुझाने के बाद भी उस पर कोई असर नहीं पड़ा तो कहा, ‘अनन्या का क्या होगा?’ ‘यह फैसला अनन्या पर छोड़ दो’ अर्चना बोली। ‘उसे तो मां-बाप दोनों चाहिए।’ ‘मगर मुझे तुम जैसा पति नहीं चाहिए।’ ‘मान लो अनन्या तुम्हारे साथ रहना चाहे तो क्या तुम उसके साथ न्याय कर पाओगी?’ ‘मां हूं कोई सौतन नहीं।’ ‘अगर उसकी जिंदगी में कोई सौतेला बाप आ गया तब?’ अर्चना चिढ़ गयी। मानो उसकी चोरी पकड़ी गयी। ‘तुम पुरुष होकर सौतेली मां ला सकते हो तो मैं क्यों नहीं सौतेला बाप ला सकती हूं?’ ‘अगर वह मेरी तरह महत्वाकांक्षी, समान विचारों और उद्देश्य वाला होगा तो हर्ज ही क्या है?’
एक तरह से अर्चना ने मन बना लिया था कि वह अकेली नहीं रहेगी। बच्चों को मां-बाप दोनो चाहिए। बच्चों को मां से अतिषय लगाव होता है मगर यहां तो उल्टा ही था। बाप बेटी के लिए मर्मान्तक पीड़ा से गुजर रहा है वहीं मां इन सब से बेखबर अपने महत्वाकांक्षा पूरी करने में व्यस्त है। ऐसी निश्ठुर मां मैंने नहीं देखी। ‘पापा, आप मम्मी को समझाते क्यों नहीं? उन्हे हो क्या गया है।’ अनन्या सुबक रही थी। ‘तुम्ही समझाकर देखो मैं हार गया हूं।’ मैं लगभग रूआंसा हो गया। ‘मम्मी, आप समझना क्यों नहीं चाहती? तलाक लेकर आपको क्या हासिल हो जाएगा?’ ‘मैं तुम्हारे पिता के साथ नहीं रहना चाहती। हम दोनों के स्टेट्स में जमीन आसमान का अंतर है। मुझे यह कहते शर्म आती है कि वह एक बैंक का मामूली क्लर्क है।’ ‘क्लर्क तो पहले भी थे। तब आपने कैसे शादी की?’ ‘मैं गड़े मुर्दे नहीं उखाड़ना चाहती। मैं सिर्फ आगे देखती हूं, पीछे देखना मेरा स्वभाव नहीं।’ ‘पीछे तो मैं भी हूं?’
‘अनन्या।’ अर्चना चीखी। ‘तुम्हें नहीं रहना है मत रहो मेरे साथ।’ ‘नहीं रहूंगी।’ डबडबाई आंखों से चीखी। अनन्या का दृढ़निश्चय देखकर मैं चकित था। ‘क्या?’ अर्चना विस्फारित नेत्रों से देखने लगी।
‘मैंने हमेशा पापा दादी का प्यार पाया है। आपका नहीं। आपका होना न होना बराबर है मेरे लिए। इस बीच अर्चना ने विधूर रंजन से शादी कर ली। पत्रकारिता की डिग्री लेकर अनन्या एक बड़े न्यूज चैनल की पत्रकार बन गयी। उसी की पसंद के लड़के से उसकी शादी तय कर दी। आज उसकी मेंहदी की रस्म थी। अनन्या को स्वावलंबी बनाने के साथ-साथ नैतिक रूप से भी सबल बनाया। रस्म की अदायगी चल रही थी तभी फाटक के सामने एक कार रूकी। देखा एक महिला ऊतर कर आ रही थी। मुझे पहचानते देर न लगी कि वह अर्चना थी। सबकी नजर अर्चना पर थम गयी। अर्चना, अनन्या की तरफ बढ़ी। अर्चना को आगे बढ़ता देखकर उसके करीब मेंहदी लगाने वाले लोग हट गये। वह अनन्या के करीब आयी। आते ही उसके गले लगकर फूटफूटकर रोने लगी। मेरी बहन से रहा न गया मेरी तरफ देखते हुए बोली, ‘येे यहां क्यो आयी है?’
‘अपनी बेटी से मिलने’ अर्चना के मुख से यह सुनकर किसी को अच्छा नहीं लगा। ‘नया आशियाना बनाते हुए बेटी का ख्याल नहीं आया?’ मेरा स्वर तल्ख था। ‘दस साल बिन मां के उसने काटे। कितने मुश्किल भरे दिन थे। मैंने किसी तरह खुद को तो समझा लिया मगर अनन्या को कैसे समझाता। वह तो बच्ची थी। अक्सर एकांत में बैठकर तुम्हारी याद में आंसू बहाती। एक पिता मां की जगह कभी नहीं ले सकता?’ कहते-कहते मेरा गला भर आया। आसपास सभी की आंखें नम थी। मेरे बड़े भाई ने मुझे संभाला। मुझे देखकर अनन्या का भी दिल भर आया। ‘मैंने बहुत बड़ी गलती की है’ अर्चना बोली।
मैंने कहा, ‘छोड़ो इन बातों को। तुम्हारा यहां कैसे आना हुआ?’ मैं मूल विषय पर आया। ‘मैंने नौकरी और रंजन दोनों को छोड़ दिया है।’ ‘रंजन को? वह तो तुम्हारा पति है। क्या उससे भी नहीं निभी?’ मैंने तंज कसा। ‘अब बस भी करो।’
अर्चना का गला विंध गया। अर्चना को शर्मशार होते अनन्या को देखा न गया। जो वह उसकी मां थी। आज और कल में बहुत फर्क था। आज वह कमजोर और लाचार दिखी। ‘रंजन से मेरा तलाक हो गया है’ कहकर वह चुप्प हो गयी। ‘मैं घरवापसी करना चाहती हूं।’ ‘हम पति-पत्नी तो हैं नहीं फिर किस हक से तुम इसे घर कह रही हो?’ मेरे प्रश्नों का बिना जवाब दिये वह उठी। भरे कदमों से चलकर बाहर का रूख करने लगी। फाटक के पास पहुंची ही थी। इस बीच अनन्या विनती करते हुए बोली, ‘पापा, मम्मी को रोक लीजिए। सुबह का भूला शाम को आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते। वो मेरी मां है।’ ‘कहां जा रही हो?’ ‘स्त्री का कोई घर नहीं होता।’ ‘मगर मां का तो होता है। आज से तुम एक मां की हैसियत से रहोगी।’ अर्चना पीछे से बोली। ‘आप दोनों एक दूसरे के लिए बने हैं।’
