पहनने-ओढऩे व चाल-चलन का असर जब जीवन पर पड़ सकता है तो लेखन पर क्यों नहीं। आज तक संस्कारी औरत की तरह साड़ी बांधे, कंधे पर पल्लू डाले, कलाइयों में चूडिय़ां पहने झनम-झनम शब्द रचती रही। हां लिखते समय सीधे हाथ की चूडिय़ां उतारनी पड़ती, क्योंकि चूडिय़ों के निशान कागज पर उभर आते थे। यदि खाली कलाई कभी सासू मां देख लेतीं तो वो लानत-मलानत भेजतीं कि कान पकड़कर तौबा करनी पड़ती। इसी से हमेशा कमरा बंद करके ही कलम पकड़ पाती।

संस्कारी बहू संस्कार कैसे छोड़ दे। कमरे में तो पल्लू सिर से उतरकर कमर के गिर्द लिपट जाता है। यहां कौन देखने वाला है। बार-बार पल्लू संभालने की ज़हमत से छुटकारा मिल जाता है।

दुनिया फास्ट हो रही है। सब दौड़ रहे हैं। रिश्ते-रिश्तों को पीछे छोड़कर भाग रहे हैं। परंपराएं पड़ी सिसक रही हैं। कैरियर की चिंता सभी को है। विवाह का क्या है, हो ही जाएगा। कैरियर बन जाए, फिर सोच लेंगे। फिर ऐसा है भी क्या जिसके विषय में व्यर्थ की माथापच्ची की जाए। आजकल वह सब तो विवाह से पहले ही होता रहता है।

यह सारी बातें मेरे मन में आज ही क्यों आ रही हैं? शायद इसलिए कि मैंने साड़ी की जगह टॉप-जींस पहनने की सोची है। यदि सोचने मात्र से इतना परिवर्तन आ सकता है, तो पहनने से कितना आएगा? सोचते ही मेरे गाल शर्म से लाल हो गए। हाय! मैं कैसी लगूंगी? सासू मां क्या कहेंगी? वे तो ननद को भी सलवार-सूट से आगे नहीं बढऩे देतीं। मुझे तो घर से ही निकाल देंगी।

मां ने कंधे पर दुपट्टा ऐसा फिट किया कि साड़ी बांधने और ससुराल जाने पर ही उतरा। टॉप-जींस पहनकर बार-बार पल्लू संभालने में लगे वक्त की बरबादी से बचा जा सकता है। मैंने अपनी पीठ ठोंकी, ऐसा धांसू आइडिया पहले क्यों नहीं आया। असल में मेरी चाल ही धीमी है। अत: उसका असर सोच पर पडऩा ही था। संभव है अब फास्ट गति के साथ भी फास्ट सोचूं।

अब जब मन में इच्छा पैदा हुई है तो एक बार अनुभव अवश्य करूंगी। चाहे बंद कमरे में ही पहनकर देखूं। देखती हूं क्या-क्या परिवर्तन आते हैं, कितनी बिंदास लगती हूं। डेटिंग क्या होती है मैं नहीं जानती। एक-दो बार पतिदेव ने किसी कॉफी हाउस में चलकर कॉफी पीने के लिए कहा तो मैंने झट मना कर दिया। कोई देख लेगा तो यही कहेगा कि लड़की कितनी बेशर्म है। हमेशा शरीर को ढके रही। कहीं से कुछ दिख न जाए। बदन न उघाडूं। यहां तो आधे बदन के कपड़े देखकर आज भी नजरें झुक जाती हैं। भला ये भी कोई संस्कार हुए कि वक्त के साथ चल भी न पाओ और हर वक्त स्वयं में सिकुड़े, सिमटे संस्कारों की जुगाली करते रहो।

दुनियां लैपटॉप से आगे बढ़ गई। फेसबुक पर लोग चैटिंग करने लगे और यहां मोबाइल में नंबर फीड करने भी नहीं आए। ये सब पिछड़ेपन की निशानी है। संस्कारी लोग मेरी तरह ही पिछड़ते हैं। कूंद-फांद कर आगे नहीं बढ़ते। अब छह मीटर की साड़ी संभाल लो या आगे बढ़ लो। इसीलिए आज लोग महिलाओं के लिए ड्रेस कोड लिए घूमते हैं। यही बुर्जुआ दकियानूसी सोच औरत को हमेशा अपने घेरे में लिए रहती है। मेरी कहानी की नायिकाएं सदा संस्कारी रहीं और पति के हाथों ठुकती-पिटती जीवन तमाम करती रहीं। किसी को भी घर की चौखट लंघवाकर बिंदास नहीं बना पाई।

हमने तो कभी कोई वर्जनाएं नहीं तोड़ीं। वर्जिनिटी के बारे में भी पत्रिकाओं में पढ़ा। हाय! अब तो कलम औरत के अंतरतम क्षणों में, अंदर के हिस्सों में झांक आती है। मैं तो अभी भी पढ़ते-पढ़ते पानी-पानी हो जाती हूं। नाभि दर्शना साड़ी, टॉपलैस स्कर्ट गाउन, गोरी चिकनी मांसल भुजाएं, संगमरमरी कंधे और गर्दने, बलखाती-इठलाती नवयौवनाएं देख मुझे अक्सर लगता है कि मेरे जीवन में जवानी और जोश आया ही नहीं। बुढ़ापा पहले आ गया।

बात टॉप जींस से शुरू की थी, फिर वहीं पहुंच रही हूं। एक दिन चुपके से अपनी सखी से एक दिन के लिए टॉप जींस मांग लाई। कमरा बंद कर पहनकर शीशे के सामने खड़ी थी। तभी पतिदेव ने दरवाजा खटखटाया। जल्दी में कपड़े, बदलना भूल गई और ऐसे ही दरवाजा खोल दिया। पतिदेव विस्फारित नेत्रों से अवाक् देख रहे थे।

‘तुम रंजना ही हो उन्होंने मुझे झिंझोड़ा। तभी ख्याल आया। मैंने उन्हें जल्दी से अंदर खींचा और दरवाजा बंद कर लिया। वे अभी भी बदहवास थे, पूछ रहे थे- ‘तुम्हें ये सब पहनने की क्या जरूरत आ पड़ी?

‘मैं अपना लेखन सुपरफास्ट करना चाहती थी। कैसी लग रही हूं? मैंने इतरा कर पूछा।

इतना सुनना था कि उन्होंने कलम तोड़ दी, कागज फाड़ दिए और कड़क आवाज में बोले, ‘मैं जानता था, ऐसा कुछ जरूर होगा। तुम नए-नए प्रयोग करोगी। मैं पहले ही तुम्हारे लेखन के खिलाफ था…।

हाय! अब तो कलम औरत के अंतरतम क्षणों में, अंदर के हिस्सों में झांक आती है। मैं तो अभी भी पानी-पानी हो जाती हूं। बलखाती-इठलाती नवयौवनाएं देख मुझे लगता है कि मेरे जीवन में जोश आया ही नहीं। बुढ़ापा पहले आ गया।

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