सावित्री को वैसे ही काफी चिन्ता हो रही थी क्योंकि उसका पति ग्यारह बजे आने की कहकर अभी तक ट्रक नही लेकर नहीं आया था। उसका पति सुखवंत ट्रक चलाता था। सावित्री को अच्छी तरह पता था कि सुखवंत रात के समय शराब पीकर ट्रक चलाता है। इसीलिए उसकी चिन्ता जायज थी। आशंकाओं के बादल उसके मन में घिरने लगे थे, ऊपर से मुन्ने का लगातार रोना भी उसे और ज्यादा परेशान कर रहा था। सावित्री के पिता ने जब सुखवंत के हाथों में उसका हाथ दिया था तब सुखवंत इसी घर में अकेला रहता था और किराये की जीप चलाता था फिर उसने ट्रक चलाना शुरू कर दिया। सावित्री को आज भी वह दिन अच्छी तरह याद है जब सावित्री के पिता आखिरी बार बेटी-दामाद से मिलने आये तो दरवाजा सुखवंत ने ही खोला।
‘‘अरे-आप-? आइये आइये-
‘‘इधर से गुजरा था सोचा मिलता जाऊं-।” सावित्री के पिता अंदर आते हुए बोले। सावित्री अपना उभरा हुआ पेट साड़ी के पल्लू से ढकने का असफल प्रयास करते हुए बोली,
‘‘पिताजी-आपकी तबियत कैसी है अब-?”
‘‘मैं ठीक हूं-बेटे सुखवंत मेरी एक आखिरी विनती मानोगे-?”
पिताजी, सुखवंत से मुखातिब होकर बोले।
‘‘जी कहिए-।”
‘‘बेटे-ईश्वर की कृपा से तुम अब दो से तीन होने वाले हो मैं चाहता हूं तुम शराब छोड़ दो नहीं तो तुम्हारे बच्चे पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है-।” ‘‘जी-मैं कोशिश करूंगा-।
‘‘दृढ निश्चय करोगे तो कोशिश सफल जरूर होगे।
‘‘अच्छा मैं अब चलता हूं- ” पिताजी खाट से उठते हुए बोले, ‘‘मैं वचन देता हूं कि अपने बच्चे को अच्छे संस्कार देने के लिए शराब को अब कभी हाथ नहीं लगाऊंगा-” सुखवंत, पिताजी के साथ बाहर आते हुए बोला। दरवाजे की सांकल जोर से बजी, सावित्री की तन्द्रा भंग हुई और वह अतीत से बाहर आई, मुन्ना अभी भी रो रहा था। सावित्री ने दरवाजा खोला, दरवाजे पर एक पुलिस कांस्टेबल को देख वह घबराई, हिम्मत करके पूछा, ‘‘क्या है भाई-?”
‘‘ट्र्क चालक सुखवंत का घर यही है क्या-? कांस्टेबल ने पूछा ।
‘‘जी यही है -मैं उनकी पत्नी हूं-” सावित्री घबराए स्वर में बोली।
‘‘आपके पति का ट्रक नदी में गिर गया-जब वह पुल पार कर रहे थे तो अधिक नशे के कारण ट्रक से कंट्रोल खो बैठे। उनकी लाश थाने में रखी है, सुबह आकर ले जाना-।” कांस्टेबल इतना कहकर चला गया।
‘‘हे भगवान-” सावित्री जमीन पर पछाड़ खाने लगी हाथों की चूड़ियां स्वतः ही गोल दायरे का रूप छोड़ने लगीं। इसके बाद तो सावित्री की जिन्दगी की दिनचर्या ही बदल गई, दिन भर बड़े लोगों के घर में चौका-बर्तन करना और रात को चार-चार घण्टे सिलाई करना जब सावित्री दूसरों के घर चौका-बर्तन करने जाती तब भी मुन्ना उसके साथ ही होता था। गुजरते समय के साथ मुन्ने की परवरिश भी अच्छे ढंग-से होने लगी।
बाइस वर्ष गुजर गये। मुन्ना, मुन्ना ना रहकर इंजीनियर मोहन हो गया और सावित्री सिलाई मशीन चलाते-चलाते साठ वर्ष की बुढ़िया नजर आने लगी। आज बरसों बाद सावित्री के मन में उमंगे थी, क्योंकि उसका बेटा मोहन शहर से इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर आ रहा था। सावित्री ने पूजा की थाली तैयार करके रख ली। बार-बार उसकी निगाहें दरवाजें पर जा रही थी। जब किसी का इंतजार हो तो समय भी पहाड़ सा हो जाता है। सावित्री की बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी तभी दरवाजे पर साइकिल रूकी और उससे डाकिया उतरकर एक लिफाफा हाथ में लेता हुआ सावित्री की ओर बढ़ाकर बोला, ‘‘आपकी चिट्ठी-।”
डाकिया चला गया, सावित्री हैरानी से लिफाफा देखती रही फिर उसे खोलकर एक पत्र निकालकर पढ़ने लगी लिखा था।
‘‘पूज्य मां, चरण स्पर्श
मेरा आना अभी नहीं हो सका इसके लिए शर्मिन्दा हूं। मुझे शहर के एक बहुत बड़े बिल्डर के यहां अच्छी नौकरी मिल गई है, साथ ही रहने के लिए फ्लैट और कार भी। मां, इससे ज्यादा तुम्हें यह जानकर खुशी होगी कि उनकी लड़की से मेरी मंगनी हो गई है और दस दिन बाद शहर के एक शानदार होटल में हमारी शादी है। मैं बाद में तुम्हारी बहू के साथ तुमसे मिलने जरूर आऊंगा, कब आऊंगा, यह पत्र द्वारा सूचित कर दूंगा-अपना ख्याल रखना।
तुम्हारा बेटा
मोहन
पूरा पत्र पढ़कर सावित्री के चेहरे पर एक रंग आया और चला गया फिर वह जोरों से हंसने लगी, तब तक हंसती रही जब तक फूटकर रोना नहीं पड़ी। कई दिन बीतने पर सावित्री को जब आत्म-बोध हुआ तो उसे लगा, सब कुछ व्यर्थ है अब उसके फर्ज पूरे हुए, उसे चलना चाहिए। पांच वर्ष बीत गये मगर कोई यह नहीं जान पाया कि सावित्री अपना घर यूं लावारिस छोड़कर कहां चली गई।
मोहन की शादी को पांच वर्ष बीतने पर भी वह सन्तान का मुख नहीं देख पाया, डाॅक्टरों ने भी उसकी पत्नी मनोरमा को बांझ साबित कर दिया था मगर एक दिन मनोरमा को पता चला कि काशी में गंगा-किनारे एक आश्रम में एक साध्वी हैं, जिनका आशीर्वाद ही चमत्कार है उसने मोहन से उनके दर्शन की जिद की तो मोहन को मजबूर होकर मनोरमा को काशी लेकर जाना पड़ा।
काशी जाकर जब मोहन, मनोरमा के साथ उस साध्वी के आश्रम में पहुंचा तो उन्हें पता चला कि साध्वी अपने विशेष पूजा-ध्यान के कक्ष में हैं तब तक मनोरमा ने इन्तजार करना उचित समझा लेकिन मोहन समय की बर्बादी बेकार समझ मनोरमा के साथ सीधा साध्वी के विशेष पूजा कक्ष में पहुंच गया। वहां साध्वी दरवाजे की ओर से पीठ फेरे ध्यान -मग्न बैठी थी मोहन वहीं कक्ष में एक तरफ बिछे कालीन पर बैठ गया। मनोरमा घुटनों के बल वहीं जमीन पर बैठकर अपना आंचल फैलाकर भर्राए स्वर में बोली।
‘‘माई-मेरी शादी को पांच वर्ष हो गये मगर सन्तान नसीब नहीं हुई। दुनिया बांझ कहती है, मैं आपके पास बड़ी उम्मीद लेकर आई हूं अपने आशीष से मुझे ममता का वरदान दे दो माई-।”
‘‘क्या करोगी बेटी ममता का वरदान लेकर-यह सन्तान बड़ी निर्मोही होती है-‘ साध्वी का डूबा सा स्वर उभरा, मोहन इस आवाज पर थोड़ा पहले तो चौंका मगर फिर सामान्य हो गया।
‘‘ऐसा मत कहो माई- बड़े भरोसे के साथ आई हूं आपके पास ” मनोरमा गिड़गिड़ाई।
‘‘पति के पापों का कुछ तो प्रायश्चित देना ही होगा पुत्री- तुम सन्तान का मुख नहीं देख सकोगी-‘‘ साध्वी की वही डूबी आवाज उभरी।
‘‘एेसा श्राप मत दो माई-मेरे पति निष्पाप हैं-”मनोरमा के इतना कहते ही साध्वी ने अपना चेहरा घुमाया और ठीक मनोरमा के सामने मुख करके बैठ गई उसके चेहरे पर नजर पड़ते ही मोहन मुंह से यकायक निकला, ‘‘मां-त-तुम-।”
‘‘मां-यह क्या कह रहे हैं आप-? आप तो कहते थे कि आप अनाथ हैं, आपके माता-पिता एक दुर्घटना का शिकार हो गये। आपने मुझसे ऐसा क्यों कहा- ?”
मनोरमा ने मोहन से कहा तो उसकी नजरें झुकती चली गई। सावित्री फीकी मुस्कान के साथ बोली, ‘‘तुम मां को भले ही चेहरे से पहचानो मगर मां अपने बच्चों को आहट से पहचानती है-। मैंने तुम्हें शहर में रहकर अच्छी-से-अच्छी शिक्षा पाने का अवसर दिया मगर अफसोस तुम संस्कार याद नहीं रख सके। मैंने तुम्हारी तीन माह की उम्र से ही तुम्हें अकेले पाला और पिता की कमी महसूस ना होने दी। अपने सारे फर्ज पूरे किये मगर तुम अपने फर्ज भूल गये।”
‘‘मैं यह सोचकर गर्व करती थी कि आपने अपनी अकेले की मेहनत से अपनी मंजिल पाई मगर आज मुझे आपकी पत्नी होने पर शर्म महसूस हो रही है-।” मनोरमा सिसक कर बोली।
‘‘अब हमारे सत्संग का समय हो रहा है तुम दोनों जा सकते हो-” सावित्री खड़ी होते हुए बोली। ‘‘मां-मुझे बांझ होने के श्राप से तो मुक्ति देती जाओ-”मनोरमा, सावित्री के पैर पकड़ते हुए बोली।
‘‘पुत्री -मैं खुद नहीं जानती मेरे मुंह से यह वचन कैसे और क्यों निकले, मगर शायद यही कुदरत का न्याय हो फिर भी तुम मन में धैर्य धारण कर उसी कुदरत की कृपा की प्रतीक्षा करो जिसने तुम्हें यह श्राप दिया।-” सावित्री ऐसा कहकर कक्ष से बाहर निकल गई। अपने पीछे छोड़ गई बिलखती मनोरमा और पश्चाताप के आंसू आंखों में लिये मोहन।
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