Pativrata Savitri
Pativrata Savitri

Bhagwan Vishnu Katha: प्राचीन समय की बात है – मद्र देश में अश्वपति नामक राजा शासन करते थे। शत्रुओं की शक्ति को नष्ट-भ्रष्ट करना और मित्रों के कष्टों का निवारण करना ही उनका स्वभाव था। उनकी रानी का नाम मालती था। मालती एक धर्मनिष्ठ महिला थी। राज्य में सब ओर सुख-शांति थी। अश्वपति को बस एक ही दु:ख था कि वे अभी तक पिता नहीं बन सके थे। अतः मालती ने वसिष्ठजी के आदेश से भगवती सावित्री की आराधना आरम्भ की। देवी सावित्री के दर्शन नहीं हुए तो वह तपस्या त्याग कर घर लौट गई। तब राजा अश्वपति पुष्कर क्षेत्र में जाकर देवी सावित्री के स्तोत्र का पठन करते हुए कठोर तप करने लगे।

उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर देवी सावित्री साक्षात् प्रकट हुई और बोलीं – “राजन ! तुम्हारी जो अभिलाषा है, उसे मैं भली-भाँति जानती हूँ। तुम्हारी पत्नी की इच्छा भी मुझसे छिपी नहीं है। अतः तुम्हें सबकुछ देने के लिए ही मैं यहां प्रकट हुई हूँ। राजन ! तुम्हारी रानी कन्या चाहती है और तुम पुत्र चाहते हो। मेरे वर से तुम्हें दोनों की प्राप्ति होगी।”

राजा अश्वपति को वर देकर सावित्री माता ब्रह्म-लोक लौट गई। समयानुसार मालती ने एक सुंदर कन्या को जन्म दिया। भगवती सावित्री की आराधना से उत्पन्न हुई उस कन्या का नाम अश्वपति ने सावित्री रख दिया। वह बचपन से ही भगवती की श्रद्धापूर्वक आराधना करती थी।

युवा होने पर अश्वपति को सावित्री के विवाह की चिंता सताने लगी। सावित्री ने द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान के साथ विवाह करने की इच्छा प्रकट की। द्युमत्सेन का राज्य उसके शत्रुओं ने छीनकर उसे अंधा करके देश-निकाला दे दिया था। इसलिए वह अपने पुत्र सत्यवान के साथ एक ऋषि के आश्रम में रहता था।

देवर्षि नारद ने अश्वपति को बताया कि सत्यवान की आयु केवल एक वर्ष शेष है। तब अश्वपति ने अनेक प्रकार से सावित्री को समझाने की चेष्टा की, किंतु सावित्री अपने निश्चय पर दृढ़ रही। सत्यवान सुशील एवं उत्तम गुणों से सम्पन्न था। हारकर अश्वपति ने सावित्री की इच्छानुसार उसका विवाह सत्यवान से कर दिया। विवाह के बाद सत्यवान सावित्री के साथ आश्रम में ही रहने लगा। सत्यवान और सावित्री का जीवन सुखपूर्वक बीत रहा था। एक वर्ष का समय मानो पलभर में ही बीत गया हो।

एक बार द्युमत्सेन ने अपने पुत्र सत्यवान को वन से फल और ईंधन लाने के लिए कहा। पिता की आज्ञा के अनुसार सत्यवान वन में गया। उसके साथ उसकी साधवी पत्नी सावित्री भी थी। वन में पहुंचकर सावित्री फल एकत्रित करने लगी और सत्यवान एक वृक्ष पर चढ़कर लकड़ियां काटने लगा। सत्यवान का जीवनकाल पूरा होने को था, अतः उसके प्राणों को हरने के लिए यमराज वहां प्रकट हुए। नियत समय पर उन्होंने सत्यवान के प्राणों को अपने पाश में बांधा और यमपुरी की ओर चल पड़े।

प्राणहीन होते ही सत्यवान वृक्ष से नीचे फिर पड़ा। जब सावित्री ने यमराज को सत्यवान के प्राण ले जाते देखा तो वह भी उनके पीछे-पीछे चलने लगी। उसे अपने पीछे आते देखकर यमराज ठहर गए। सावित्री ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया।

तब यमराज बोले – “सावित्री ! तुम मानव देह के साथ कहाँ मेरे पीछे आ रही हो- मृत्युलोक का प्राणी इस प्रकार सशरीर यमलोक में नहीं जा सकता। जिसकी जितनी आयु होती है, उतनी आयु भोगने के बाद ही प्राणी शरीर त्यागकर यमलोक में प्रवेश कर सकता है। हे साधवी ! तुम्हारे पति की आयु पूर्ण हो चुकी है, अतः अपने अच्छे-बुरे कर्मों का फल भोगने के लिए वह मेरे साथ यमलोक में जा रहा है।” यह कहकर यमराज मौन हो गए।

सावित्री यमराज की स्तुति करते हुए बोली – “प्रभु ! आप तो ज्ञान के अथाह सागर हैं। आप ही बताइए, अपने प्राणनाथ को छोड़कर मैं अकेली कहाँ जाऊं-पति के बिना पत्नी का कोई अस्तित्व नहीं है। संसार के समस्त सुख उसके लिए विष के समान बन जाते हैं। भगवन् ! पत्नी का कर्तव्य सदा अपने पति का अनुसरण करना होता है। इसलिए मैं उनके साथ ही यमलोक जाऊंगी।”

सावित्री के वचन सुनकर यमराज बोले – “पुत्री ! इतनी छोटी उम्र में, इतनी ज्ञान की बातें ! तुम धान्य हो। तुम देवी सावित्री की अंश लगती हो। मैं तुम्हें वर देता हूं कि जिस प्रकार लक्ष्मी भगवान् विष्णु के पास, भवानी शिव के पास, शची इन्द्र के पास और संज्ञा सूर्य के पास शोभा पाती हैं, तुम भी सत्यवान की वैसी ही प्रिया बनो। इसके अतिरिक्त तुम्हें जो अभीष्ट हो, वह वर मांग लो। मैं तुम्हें इच्छित वर देने के लिए तैयार हूँ।”

सावित्री बोली – “भगवन् ! सत्यवान से मुझे सौ पुत्र प्राप्त हों – यही मेरा इच्छित वर है। साथ ही मैं यह भी चाहती हूं कि मेरे पिता भी सौ पुत्रों के जनक हों, मेरे श्वसुर के नेत्र ठीक हो जाएं और उन्हें उनका राज्य पुन: प्राप्त हो जाए। प्रभु ! सत्यवान के साथ मैं लम्बे समय तक आनन्दपूर्वक रहकर अंत में भगवती के धाम में चली जाऊं, ये वर भी देने की कृपा करें।”

सूर्यपुत्र यमराज ने सावित्री के पति सत्यवान को पुनर्जीवन प्रदान कर सावित्री को मनोवांछित वर प्रदान किए। फिर यमराज बोले – “पुत्री ! तुम्हारी सभी इच्छाएं मैं पूर्ण कर चुका हूँ। अब तुम अपने पति के साथ अपने घर जाओ और भगवती सावित्री का व्रत करो। चौदह वर्ष तक नियमित इस व्रत का पालन करने से तुम्हारे पिछले-अगले सभी पापों का अंत हो जाएगा और देवी की कृपा से तुम मोक्ष की अधिकारी बनोगी।”

इसके बाद यमराज अपने लोक को लौट गए। सावित्री भी सत्यवान को लेकर घर लौट आई। वर के प्रभाव से उसके पिता पुत्रवान हो गए। उसके श्वसुर के नेत्र ठीक हो गए और उन्हें उनका राज्य पुन: प्राप्त हो गया। धरती पर अनेक वर्षों तक सुखमय जीवन व्यतीत करने के बाद सावित्री सत्यवान के साथ भगवती सावित्री के लोक में चली गई।

ये कथा ‘पुराणों की कथाएं’ किताब से ली गई है, इसकी और कथाएं पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं Purano Ki Kathayen(पुराणों की कथाएं)