Story of Daughter: बेटा तू घर कब आ रही है। अब तो बच्चों की छुट्टियां भी हो गई है। जल्दी आ जा। बता देना मैं तेरे भाई को लेने भेज दूंगी। सुनिधि की मम्मी फोन पर सुनिधि से कह रही थी।
वक्त मिलेगा जब आ जाऊंगी, कह कर सुनिधि ने फोन रख दिया। उसकी मम्मी को बड़ा अटपटा सा लगा। पहले तो ऐसा ना करती थी उनकी बेटी। कुछ दिन से व्यवहार में परिवर्तन हो रहा है।
सुनिधि के पापा को भी फर्क दिखाई दे रहा था। पापा तो पापा ही होते हैं ना। सबको बिना बताए पहुंच गये बिटिया रानी के घर। पहले तो सुनिधि ने कुछ नहीं बताया। लेकिन पापा की पारखी नजरों के आगे ज्यादा देर तक सच्चाई छुप ना सकी। थोड़ी देर बाद सुनिधि पापा से लिपट कर रोने लगी।
“पापा इनकी जॉब चली गई है। घर पर बहुत परेशानी चल रही है। जब से इनकी जॉब गई है यह बहुत चिड़चिड़े हो गए हैं। घर में हर वक्त तनाव का सा माहौल रहता है। खर्चो की भी समस्या हो रही है। ऐसे में अगर मैं इनको छोड़कर छुट्टी मनाने मायके जाऊंगी तो इनका मन और उखड़ जाएगा।” सुनिधि रोते-रोते पापा से कहती है।
“बेटा तू इतनी परेशान थी और तूने हमें बताना भी जरूरी नहीं समझा। हम क्या मर गए हैं अभी? हमारे पास जो कुछ भी है तुम्हारा ही तो है।” सुनिधि के पिता उसे समझाते हुए बोले।
“नहीं पापा। मैं अब आपसे कुछ नहीं ले सकती। हर्षित को अच्छा नहीं लगेगा और वैसे भी आपके पैसे पर हक आपकी बहू बेटों का ही है।” सुनिधि ने कहा
तुझसे ऐसा किसने कह दिया। मेरे पैसों पर हक तेरे भाई का ही है। मैंने तो कभी फर्क नहीं किया तुम दोनों भाई बहनों में। फिर तेरा भाई ही मालिक कैसे हो गया और तू पराई कैसे? सुनिधि के पिताजी बोले।
पापा आप चाहे जो भी कुछ कहें इस समय में अगर आपसे मदद लूंगी तो इनको अच्छा नहीं लगेगा।
सुनिधि के पापा बोले चल मेरी रानी बेटी जैसा तू कहे। मैं मान लेता हूँ लेकिन मैंने अपनी बेटी को पढ़ा लिखा कर इतना काबिल तो बनाया है ना जो वक्त पड़ने पर अपने पैरों पर खड़ा हो सके।
हां पापा वही कर रही हूँ। बहुत दिन से कार्य नहीं किया है इसलिए जॉब मिलने में दिक्कत हो रही है। कोशिश कर रही हूँ वैसे। सुमित प्रसाद जी को बड़ा गर्व होता है अपनी बेटी पर। कैसे बेटियाँ इतनी जिम्मेदारियां ओढ़ लेती हैं। कुछ सालों तक अल्हड़ सी रहने वाली लड़की आज इतनी समझदार हो गई।
पापा घर पर कुछ मत कहना। पापा के जाते समय सुनिधि ने कहा।
नम आंखों से सुनिधि के पापा घर लौट आए। लेकिन बेटी की चिंता उनको सता रही थी।
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परिस्थितियों और अधिक विपरीत हो गई जब सुनिधि का भी एक्सीडेंट हो गया। अब सुमित प्रसाद जी के सब्र का बांध टूट गया। वह सुनिधि को उसके परिवार के साथ अपने घर ही ले आए। शुरू में तो उनकी बहू का बर्ताव सही रहा लेकिन जब उसे असलियत पता चली उसका तो व्यवहार ही बदल गया। उसे लगता कहीं पापा यानी कि उसके ससुर सुनिधि के नाम कुछ रुपए पैसा या जमीन जायदाद ना कर दे। उसको तो बस यही लगता था कि सास ससुर के पैसे पर उसका ही एकमात्र हक है। क्योंकि उसका पति इकलौता बेटा था ना इस घर का।
एक दिन तो हद ही हो गई बहु किरण सुनिधि से लड़ ही पड़ी।
“अपने घर क्यों नहीं जाती। पूरा घर डिस्टर्ब कर दिया है। सब बहानें हैं। नियत खराब हो गई है तुम्हारी।”
किरण सुनिधि को सुना रही थी।
उसकी यह बात सुनकर पूरे घर को बहुत बुरा लगा। सुनिधि बहुत रोई। सुनिधि के पिताजी सुमित प्रसाद जी वैसे तो बहू के कभी मुंह नहीं लगे। पर आज अपनी सर से ऊपर हो गया था। इसलिए उन्हें बोलना पड़ा।
उन्होंने अपनी बहू बेटों से कहा कि तुम्हारे दो बच्चे हैं। तुम्हें इनमें से कौन सा अधिक प्यारा है। किरण को लगा कि उसके ससुर का दिमाग खराब हो गया है। यह भी कोई पूछने की बात है। उसे तो अपने दोनों बच्चे ही प्यारे हैं।
उसके ससुर ने कहा कल को तुम अपनी बेटी की शादी करके उससे मुंह मोड़ लोगी क्या?
उसके सुख-दुख से तुम्हारा कोई सरोकार नहीं होगा क्या?
दुख की अवस्था में तुम उससे मुंह मोड़ लोगी।
किरण तुरंत बोली ऐसे कैसे छोड़ दूंगी मैं अपनी बेटी को। मेरी बेटी तो मुझे जान से भी अधिक प्यारी है।
सुमित प्रसाद जी बोले जिस प्रकार तुम्हारी बेटी सबको प्यारी है तो क्या मेरी बेटी का कोई हक नहीं इस घर पर।
वैसे तो हिंदुस्तान में अधिकांश जमीन जायदाद बहू बेटों के हिस्से की आती हैं लेकिन परिस्थिति के अनुसार मुझे कुछ फैसला लेना होगा।
किरण तुम अपने पति और बच्चों के साथ अलग रहने जा सकती है। यह घर हमारा है और इस पर सबका हक है।
मैं करोड़ों की जायजाद तुम्हारे लिए छोड़ दूं और मेरी बेटी दरबदर की ठोकर खाती रहे। यह तो कोई नहीं उचित नहीं होगा।
ससुर की सख्ती देखकर किरण चुप हो जाती है। उसे अपनी औकात पता पड़ जाती है। पति की कमाई पर इतना ऐशो आराम थोड़ी कर पाएगी, कितनी शान शौकत सी जिंदगी बसर कर रही है।
अब तो किरण शांत हो गई है लेकिन सुमित प्रसाद जी जानते थे कि यह चुप्पी ज्यादा दिन की नहीं है इसलिए उन्होंने कानूनी कार्यवाही करके अपनी बेटी सुनिधि और उसके बच्चों के भविष्य के लिए कुछ हिस्सा सुरक्षित किया।
सुमित प्रसाद जी भी आज अपराध बोध से मुक्त थे कि उन्होंने अपनी बेटी को बीच मझधार में नहीं छोड़ा।
बेटियाँ भी तो घर का ही हिस्सा होती है। इस आंगन से पालकर दूसरे आंगन में चली जाती हैं लेकिन परिस्थिति में विपरीत हो तो संजोयी भी तो जाती है बेटियाँ।

