Vasiyat: वो कहते है ना बुढ़ापे में आकर एक साथी की बहुत ज़रूरत होती है। पति के बिना पत्नी और पत्नी के बिना पति कितना अधूरा हो जाता है, इसका बुढ़ापे में एहसास होता है। माँ के जाने के बाद तो बाबू जी की भी जिजीविषा समाप्त हो गयी थी इसलिए वे भी जल्दी ही हमहें छोड़ कर चले गए।
जब तक माँ -बाबू जी थे ..मैं मायके कभी भी चली जाती थी ,किंतु बाद में पता नही क्यूँ एक लक्षमण रेखा सी खिंच गयी।एक साल हो गया था मुझे मायके गये ,यहाँ तक कि रक्षा बंधन पर मैंने राखी भेज दी थी ।पर इस बार भैया के बहुतआग्रह पर मैंने छुट्टियों में मायके रहने का दो दिन का छोटा सा प्रोग्राम बनाया ।पूरे रास्ते ट्रेन की गति और मेरे ख़्यालों कीगति जुगलबंदी कर रहे थे । बाबू जी की बरसी के बाद पहली बार मायके जा रही थी ।सबका व्यवहार कैसा होगा …यहीसोच कर हृदय बैठा जा रहा था ।जब से बाबू जी ने अपनी वसीयत में भैया के साथ मेरा नाम भी जोड़ दिया था ,तब सेभाभी भाभी का व्यवहार मेरे प्रति बदल गया था । रिश्तों में एक अजीब सी दरार आ गयी थी ।भाई -बहन का प्यार वसीयतकी बली चढ़ गया था ।अरे बेटियाँ अपने मायके सिर्फ़ अपने माता -पिता , भाई-भाभी का स्नेह लेने के लालच में मायकेआती है ।उन्हें सिर्फ़ यही लालच होता है की उनके मायके के द्वार उनके लिए सदा खुले रहे ।यही सोचते -सोचते मैं अपनेगंतव्य पर पहुँच गयी थी ।
भैया स्टेशन पर मुझे लेने आए थे ।स्टेशन से घर तक सिर्फ़ भैया ने दो वाक्य बोले थे ,” कैसे हो छोटी “ ,“ रास्ते में कोई तकलीफ़ तो नहीं हुई “बस । उसके बाद तो भैया ने जैसे मौन व्रत रख लिया था ।घर पहुँच कर भाभी ने जिस तरह से दरवाज़ा खोला , उनकेव्यवहार से मन में कुछ दरक सा गया ।घर में चारों तरफ़ माँ -बाबू जी की यादें बसी थी और हर कोने में मेरा बचपन खेलरहा था ।वो बचपन जिसे में सहेजना चाहती थी , फिर से जीना चाहती थी , जिसके लिए मैं मायके आयी थी ।
हर बेटी की तरह मुझे भी मेरा मायका जान से ज़्यादा क़ीमती था ।
वो दो दिन मुझे अपनों के बीच परायों जैसा लगा था ।आँखें बार -बार छलकने को बेचैन थीं ।
रात को खाने की टेबल पर मैंने कमरे में पसरे मौन को तोड़ते हुए बोला,
“ भैया कुछ बात करनी है “
“ बोल छोटी .,”
“ वो बाबू जी की वसीयत के विषय में …”
“ देख छोटी ..इस विषय में मुझे कोई बात नहीं करनी ,इसके अतिरिक्त कुछ और कहना हो तो बोलो ..” कह कर भैया उठकर अपने कमरे में चले गए
“ स्नेहा तुम सिर्फ़ दो दिनों के लिए अपने मायके आयी हो , आराम से रहो “ भाभी कह कर टेबल से सामान उठाने लगी
“ सिर्फ़ दो दिन..” भाभी के कहे ये शब्द मेरे का कानों में शीसा घोल रहे थे । मैं बिना किसी क़सूर के अपने मायके में मुजरिमों के कटघरे में खड़ी थी जिसकी सुनवाई होनी नामुमकिन सी थी ।
जिस घर में मैं पली -बढ़ी , वो घर , मेरा मायका अब पराया सा प्रतीत हो रहा था ।जैसे -तैसे दो दिन गुज़ार के अपने घरवापिस आ गयी ।
अपने घर वापिस पहुँचते ही भाभी का फ़ोन आया
“ स्नेहा ..ठीक से पहुँच गयी तुम , रास्ते में कोई परेशानी तो नहीं हुई “ वे थोड़ा हिचक कर बोली
“ हाँ भाभी पहुँच गयी ..” मैंने रुँधी आवाज़ में बोला
“ स्नेहा ..ये लिफ़ाफ़ा तुम टेबल पर छोड़ गयी
थीं “ वे फिर हिचकते हुई बोली
“ भाभी छोड़ नहीं गयी थी ,रख कर आयी थी …आप लोगों क़े लिए “
“ स्नेहा …तुमने ये क्यूँ किया …”
“ भाभी मैंने तो सिर्फ़ अपना फ़र्ज़ निभाया है ।यही बात तो मैं आप दोनों से करना चाहती थी पर …
ये तो आपकी ही अमानत थी , वापिस तो मुझे देनी थी ।बाबू जी ने अपनी प्रॉपर्टी में मुझे हिस्सा दिया ..ये उनका फ़र्ज़ थाऔर उस हिस्से को जिसका हक़ था …मैंने उसे वापिस करके अपना फ़र्ज़ निभाया ।भाभी मुझे आपकी प्रॉपर्टी नहीं आपकालोगों का प्यार चाहिए , साथ चाहिए और वो अपनापन चाहिए जिसके लिए बेटियाँ अपने मायके आती हैं ।मायका एकबेटी के लिए उसका अस्तित्व होतीं हैं ।उससे दूर होने की जो पीड़ा होती है , वह बहुत असहनीय होती है ।मेरा मायकावसीयत की बली चढ़ रहा था भाभी ।
ऐसी प्रॉपर्टी का मैं क्या करूँगी भाभी …जो मुझे मेरे मायके से दूर कर दे , मेरे भाई को मुझसे दूर कर दे ।मेरे लिए ये पपेर्जबोझ थे । मैं तो पहले ही आपको देना चाहती थी किंतु मायके के रास्ते जाने पर कदम थम जाते थे ।भाभी मुझे कभी भीप्रॉपर्टी का लालच नहीं रहा , मुझे तो सिर्फ़ मेरे मायके का लालच था ।मुझे तो सिर्फ़ मेरा मायका चाहिए “ कह कर मेरी आवाज़ मेरे गले में अटक गयी
“ छोटी ..तू कब इतनी बड़ी हो गयी ..पता ही नहीं चला ।तेरी बातों ने तो मुझे बौना कर दिया ।हम तो स्वार्थ औरग़लतफ़हमी की आग में अपने रिश्ते स्वाह कर रहे थे ….मुझे माफ़ कर दे छोटी ।तेरा मायका तेरा था और तेरा ही रहेगा ।“
दूसरी तरफ़ से भैया की आवाज़ सुन कर अब तक आँखों में रुके मेरे आँसू अविरल बहने लगे
