Posted inमुंशी प्रेमचंद की कहानियां, हिंदी कहानियाँ

कानूनी कुमार – मुंशी प्रेमचंद

मि. कानूनी कुमार, एम.एल.ए. अपने ऑफिस में समाचार पत्रों, पत्रिकाओं और रिपोर्टों का एक ढेर लिये बैठे हैं। देश की चिंताओं से उनकी देह स्थूल हो गई है, सदैव देशोद्धार की फिक्र में पड़े रहते हैं। सामने पार्क है। उसमें कई लड़के खेल रहे हैं। कुछ परदेवाली स्त्रियाँ भी हैं। फेसिंग के सामने बहुत से […]

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गृहनीति – मुंशी प्रेमचंद

जब माँ बेटे से बहू की शिकायतों का दफ्तर खोल देती है और यह सिलसिला किसी तरह खतम होते नजर नहीं आता, तो बेटा उकता जाता है और दिन-भर की थकन के कारण कुछ झुँझलाकर माँ से कहता है- ‘तो आखिर तुम मुझसे क्या करने को कहती हो अम्मा? मेरा काम स्त्री को शिक्षा देना […]

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नेउर – मुंशी प्रेमचंद

आकाश में चाँदी के पहाड़ भाग रहे थे, टकरा रहे थे, गले मिल रहे थे, जैसे सूर्य- मेघ संग्राम छिड़ा हुआ हो। कभी छाया हो जाती थी, कभी तेज धूप चमक उठती थी। बरसात के दिन थे, उमस हो रही थी। हवा बंद हो गई थी। गाँव के बाहर कई मजदूर एक खेत की मेंड़ […]

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डामुल का कैदी – मुंशी प्रेमचंद

दस बजे रात का समय, एक विशाल भवन में एक सजा हुआ कमरा, बिजली की अँगीठी, बिजली का प्रकाश। बड़ा दिन आ गया है। सेठ खूबचंद जी अफसरों की डालियां भेजने का सामान लगा रहे हैं। फलों, मिठाइयों, मेवों, खिलौनों की छोटी-छोटी पहाड़ियां सामने खड़ी हैं। मुनीम जी अफसरों के नाम बोलते जाते थे और […]

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जीवन का शाप – मुंशी प्रेमचंद

कावसजी ने पत्र निकाला और यश कमाने लगे। शापूरजी ने रूई की दलाली शुरू की और धन कमाने लगे। कमाई दोनों ही करते थे, पर शापूरजी प्रसन्न थे, कावसजी विरक्त। शापूरजी को धन के साथ सम्मान और यश आप-ही- आप मिलता था। कावसजी को यश के साथ धन दूरबीन से देखने पर भी न दिखाई […]

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बालक – मुंशी प्रेमचंद

गंगू को लोग ब्राह्मण कहते हैं और वह अपने को ब्राह्मण समझता भी है। मेेरे साईस और ख़िदमतगार मुझे दूर से सलाम करते हैं। गंगू मुझे कभी सलाम नहीं करता। वह शायद मुझसे पालागन की आशा रखता है। मेरा जूठा गिलास कभी हाथ से नहीं छूता और न मेरी कभी इतनी हिम्मत हुई कि उससे […]

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दूध का दाम – मुंशी प्रेमचंद

अब बड़े-बड़े शहरों में दाइयाँ, नर्सें और लेडी डाक्टर, सभी पैदा हो गयी हैं; लेकिन देहातों में जच्चेखानों पर अभी तक भंगिनों का ही प्रभुत्व है और निकट भविष्य में इसमें कोई तब्दीली होने की आशा नहीं। बाबू महेशनाथ अपने गाँव के जमींदार थे, शिक्षित थे और जच्चेखानों में सुधार की आवश्यकता को मानते थे, […]

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बासी भात में खुदा का साझा – मुंशी प्रेमचंद

शाम को जब दीनानाथ ने घर आकर गौरी से कहा कि मुझे एक कार्यालय में पचास रुपये की नौकरी मिल गई है, तो गौरी खिल उठी। देवताओं में उसकी आस्था और भी दृढ़ हो गई। इधर एक साल से बुरा हाल था। न कोई रोजी, न रोजगार। घर में जो थोड़े-बहुत गहने थे, वह बिक […]

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मुफ्त का यश – मुंशी प्रेमचंद

उन दिनों संयोग से हाकिम-जिला एक रसिक सज्जन थे। इतिहास और पुराने सिक्कों की खोज में उन्होंने अच्छी ख्याति प्राप्त कर ली थी। ईश्वर जाने, दफ्तर के सूखे कामों से उन्हें ऐतिहासिक छान-बीन के लिए कैसे समय मिल जाता था। यहाँ तो जब किसी अफ़सर से पूछिए, तो वह यही कहता है- ‘मारे काम के […]

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रियासत का दीवान – मुंशी प्रेमचंद

महाशय मेहता उन अभागों में थे, जो अपने स्वामी को प्रसन्न नहीं रख सकते थे। वह दिल से अपना काम करते थे और चाहते थे कि उनकी प्रशंसा हो। वह यह भूल जाते थे कि वह काम के नौकर तो हैं ही, अपने स्वामी के सेवक भी हैं। जब उनके अन्य सहकारी स्वामी के दरबार […]