grhaneeti by munshi premchand
grhaneeti by munshi premchand

जब माँ बेटे से बहू की शिकायतों का दफ्तर खोल देती है और यह सिलसिला किसी तरह खतम होते नजर नहीं आता, तो बेटा उकता जाता है और दिन-भर की थकन के कारण कुछ झुँझलाकर माँ से कहता है- ‘तो आखिर तुम मुझसे क्या करने को कहती हो अम्मा? मेरा काम स्त्री को शिक्षा देना तो नहीं है। यह तो तुम्हारा काम है। तुम उसे डांटो, मारो, जो सजा चाहे दो। मेरे लिए इससे ज्यादा खुशी की और क्या बात हो सकती है कि तुम्हारे प्रयत्न से वह आदमी बन जाए? मुझसे मत कहो कि उसे सलीका नहीं है, तमीज नहीं है, बेअदब है। उसे डाँटकर सिखाओ।’

माँ- ‘वाह, मुँह से बात निकालने नहीं देती, डांटू तो मुझे ही नोंच खाये। उसके सामने अपनी आबरू बचाती फिरती हूँ कि किसी के मुँह पर मुझे कोई अनुचित शब्द न कह बैठे।’

बेटा- ‘तो फिर इसमें मेरी क्या खता है? मैं तो उसे सिखा नहीं देता कि तुमसे बेअदबी करे।’

माँ- ‘तो और कौन सिखाता है।’

बेटा- ‘तुम तो अंधेर करती हो अम्मा।’

माँ- ‘अंधेर नहीं करती, सत्य कहती हूँ। तुम्हारी ही शह पाकर उसका दिमाग बढ़ गया है। जब वह तुम्हारे पास जाकर टसवे बहाने लगती है, तो कभी तुमने उसे डाँटा, कभी समझाया कि तुझे अम्मा का अदब करना चाहिए? तुम तो खुद उसके गुलाम हो गए हो। वह भी समझती है, मेरा पति कमाता है, फिर मैं क्यों न रानी बनूं, क्यों किसी से दबूं। मर्द जब तक शह न दे, औरत का इतना गुर्दा हो ही नहीं सकता।’

बेटा- ‘तो क्या मैं उससे कह दूँ कि मैं कुछ नहीं, बिलकुल निखट्टू हूँ! क्या तुम समझती हो, तब वह मुझे जलील न समझेगी? हर एक पुरुष चाहता है कि उसकी स्त्री उसे कमाऊ, योग्य, तेजस्वी समझे और सामान्यतः वह जितना है, उससे बढ़कर अपने को दिखाता है। मैंने कभी नादानी नहीं की, कभी स्त्री के सामने डींग नहीं मारी, लेकिन स्त्री की दृष्टि में अपना सम्मान खोना तो कोई भी न चाहेगा।’

माँ- ‘तुम कान लगाकर, ध्यान देकर और मीठी मुस्कुराहट के साथ उसकी बातें सुनोगे, तो वह क्यों न शेर होगी? तुम खुद चाहते हो कि स्त्री के हाथों मेरा अपमान कराओ। मालूम नहीं, मेरे किन पापों का तुम मुझे यह दंड दे रहे हो। किन अरमानों से, कैसे-कैसे कष्ट झेलकर मैंने तुम्हें पाला। खुद नहीं पहना, तुम्हें पहनाया, खुद नहीं खाया, तुम्हें खिलाया। मेरे लिए तुम उस मरने वाले की निशानी थे और मेरी सारी अभिलाषाओं के केन्द्र। तुम्हारी शिक्षा पर मैंने अपने हजारों के आभूषण होम कर दिए। विधवा के पास दूसरी कौन-सी निधि थी? इसका तुम मुझे यह पुरस्कार दे रहे हो?’

बेटा- ‘मेरी समझ में नहीं आता कि आप मुझसे चाहती क्या हैं? आपके उपकारों को मैं कब मेट सकता हूँ? आपने मुझे केवल शिक्षा ही नहीं दिलायी, मुझे जीवन- दान दिया, मेरी सृष्टि की। अपने गहने ही नहीं होम किए, अपना रक्त तक पिलाया। अगर में सौ बार अवतार लूँ तो भी इसका बदला नहीं चुका सकता। मैं अपनी जान में आपकी इच्छा के विरुद्ध कोई काम नहीं करता, यथासाध्य आपकी सेवा में कोई बात उठा नहीं रखता, जो कुछ पाता हूं लाकर आपके हाथों पर रख देता हूँ और आप मुझसे क्या चाहती हैं? और मैं कर ही क्या सकता हूँ? ईश्वर ने हमें तथा आपको और सारे संसार को पैदा किया। उसका हम उसे क्या बदला दे सकते हैं? उसका नाम भी तो नहीं लेते। उसका यश भी तो नहीं गाते। इससे क्या उसके उपकारों का भार कुछ कम हो जाता है? माँ के बलिदानों का प्रतिशोध कोई बेटा नहीं कर सकता, चाहे यह भूमंडल का स्वामी ही क्यों न हो। ज्यादा- से-ज्यादा मैं आपकी दिलजोई ही तो कर सकता हूँ और मुझे याद नहीं आता कि मैंने कभी आपको असन्तुष्ट किया हो।’

माँ- ‘तुम मेरी दिलजोई करते हो? तुम्हारे घर में मैं इस तरह रहती हूँ जैसे कोई लौंडी। तुम्हारी बीवी कभी मेरी बात भी नहीं पूछती। मैं भी कभी बहू थी। रात को घंटे-भर सास की देह दबाकर, उनके सिर में तेल डालकर, उन्हें दूध पिलाकर तब बिस्तर पर जाती थी। तुम्हारी स्त्री नौ बजे अपनी किताबें लेकर अपनी सहनची में जा बैठती है, दोनों खिड़कियाँ खोल लेती है और मजे से हवा खाती है। मैं मरूं या जीऊँ, उससे मतलब नहीं, इसीलिए मैंने तुम्हें पाला था।’

बेटा- ‘तुमने मुझे पाला था, तो यह सारी सेवा मुझसे लेनी चाहिए थी, मगर तुमने मुझसे कभी नहीं कहा। मेरे अन्य मित्र भी हैं। उसमें भी मैं किसी को माँ की देह में मुक्कियाँ लगाते नहीं देखता। आप मेरे कर्तव्य का भार मेरी स्त्री पर क्यों डालती हैं? यों अगर वह आपकी सेवा करे, तो मुझसे ज्यादा प्रसन्न और कोई न होगा। मेरी आँखों में उसकी इज्जत दूनी हो जाएगी! शायद उससे और ज्यादा प्रेम करने लगूं। लेकिन अगर वह आपकी सेवा नहीं करती, तो आपको उससे अप्रसन्न होने का कोई कारण नहीं है। शायद उसकी जगह मैं होता, तो मैं भी ऐसा ही करता। सास मुझे अपनी लड़की समझती, प्यार करती, तो मैं उसके तलुए सहलाता, इसीलिए नहीं कि वह मेरे पति की माँ होती, बल्कि इसलिए कि मुझसे मातृवत् स्नेह करती; अगर मुझे यह बुरा लगता है कि वह सास के पाँव दबाए। कुछ दिन पहले स्त्रियाँ पति के पाँव दबाती थीं। आज भी उस प्रथा का लोप नहीं हुआ है लेकिन मेरी पत्नी मेरे पाँव दबाए, तो मुझे ग्लानि होगी। मैं उनसे कोई ऐसी खिदमत नहीं लेना चाहता, जो मैं उसकी भी न कर सकूँ। यह रस्म उस जमाने की यादगार है, जब स्त्री पति की लौंडी समझी जाती थी। अब पत्नी और पति, दोनों बराबर हैं। कम-से-कम मैं ऐसा ही समझता हूँ।’

मां- ‘तभी तो कहती हूँ कि तुम्हीं ने उसे ऐसी-ऐसी बातें पढ़ाकर शेर कर दिया है। तुम्हीं मुझसे बैर साध रहे हो। ऐसी जिन्न, ऐसी बदज़बान, ऐसी टर्रीं, फूहड़ छोकरी संसार में नहीं होगी। घर में अकसर मुहल्ले की बहनें मिलने आती रहती हैं। यह राजा की बेटी न जाने किन गंवारों में पली है कि किसी का भी आदर-सत्कार नहीं करती। कमरे से निकलती तक नहीं। कभी-कभी जब वे खुद उसके कमरे में चलीं जाती हैं, तो भी यह गधी चारपाई से नहीं उठती। प्रणाम तक नहीं करती, चरण छूना तो दूर की बात है।’

बेटा- ‘वह देवियाँ तुमसे मिलने आती होंगी। तुम्हारे और उनके बीच में न जाने क्या बातें होती हों; कम-से-कम मैं तो कभी पसंद नहीं करूंगा कि जब मैं अपने मित्रों से बातें कर रहा हूँ तो तुम या तुम्हारी बहू वहाँ जाकर खड़ी हो जाए। स्त्री भी अपनी सहेलियों के साथ बैठी हो, तो मैं वहाँ बिना बुलाए न जाऊंगा। यह तो आजकल का शिष्टाचार है।’

माँ- ‘तुम तो हर बात में उसी का पक्ष करते हो बेटा, न जाने उसने कौन- सी जड़ी-बूटी सूंघा दी है तुम्हें। यह कौन कहता है कि वह हम लोगों के बीच में आ कूदें लेकिन बड़ों का उसे कुछ तो आदर-सत्कार करना ही चाहिए।’

बेटा- ‘किस तरह?’

माँ- ‘जाकर आँचल से उनके चरण छुए, प्रणाम करे, पान खिलाए, पंखा झले। इन्हीं बातों से बहू का आदर होता है। लोग उसकी प्रशंसा करते हैं, नहीं तो सब- की-सब यही कहती होंगी कि बहू को घमण्ड हो गया है, किसी से सीधे मुँह बात नहीं करती!’

बेटा- (विचार करके) ‘हां यह अवश्य उसका दोष है। मैं उसे समझा दूँगा।’

मां- (प्रसन्न होकर) ‘तुमसे सच कहती हूँ बेटा, चारपाई से उठती तक नहीं। सब औरतें थू-थू करती हैं, मगर उसे तो शर्म जैसे छू ही नहीं गई और मैं हूँ कि मारे शर्म के मरी जाती हूँ।’

बेटा- ‘यही मेरी समझ में नहीं आता कि तुम हर बात में अपने को उसके कामों का जिम्मेदार क्यों समझ लेती हो? मुझ पर दफ्तर में न जाने कितनी घुड़कियाँ पड़ती हैं। रोज ही तो जवाब-तलब होता है, लेकिन तुम्हें उलटे मेरे साथ सहानुभूति होती है। क्या तुम समझती हो, अफसरों को मुझसे कोई बैर है, जो अनायास ही मेरे पीछे पड़े रहते हैं, या उन्हें उन्माद हो गया है, जो अकारण ही मुझे काटने दौड़ते हैं? नहीं, इसका कारण यही है कि मैं अपने काम में चौकस नहीं हूँ। गलतियाँ करता हूँ सुस्ती करता हूँ। लापरवाही करता हूँ। जहाँ अफसर सामने से हटा कि लगे समाचारपत्र पढ़ने या ताश खेलने। क्या उस वक्त हमें यह खयाल नहीं रहता कि काम पड़ा हुआ है और ताश खेलने का अवसर नहीं है; लेकिन कौन परवाह करता है! सोचते हैं, साहब डाँट ही तो बताएँगे, सिर झुकाकर सुन लेंगे, बाधा टल जाएगी। पर तुम मुझे दोषी समझकर भी मेरा पक्ष लेती हो और तुम्हारा बस चले, तो हमारे बड़े बाबू को मुझसे जवाब-तलब करने के अभियोग में काले-पानी भेज दो।’

माँ- (खिलकर) ‘मेरे लड़के को कोई सजा देगा, तो क्या मैं पान-फूल से उसकी पूजा करूँगी?’

बेटा- ‘हरेक बेटा अपनी माता से इसी तरह की कृपा की आशा रखता है, और सभी मां अपने लड़कों के ऐबों पर पर्दा डालती हैं। फिर बहुओं की ओर से क्यों उनका हृदय इतना कठोर हो जाता है, यह मेरी समझ में नहीं आता। तुम्हारी बहू पर जब दूसरी स्त्रियाँ चोट करें, तुम्हारे मातृ-स्नेह का यह धर्म है कि तुम उसकी तरफ से क्षमा माँगो, कोई बहाना कर दो, उनकी नजरों में उसे उठाने की चेष्टा करो। इस तिरस्कार में तुम क्यों उनसे सहयोग करती हो? तुम्हें क्यों उसके अपमान में मजा आता है? मैं भी तो हरेक ब्राह्मण या बढ़े-बूढ़े का आदर-सत्कार नहीं करता। मैं किसी ऐसे व्यक्ति के सामने सिर झुका ही नहीं सकता, जिससे मुझे हार्दिक श्रद्धा न हो। केवल सफेद बाल, सिकुड़ी हुई खाल, पोपला मुँह और झुकी हुई कमर किसी को आदर का पात्र नहीं बना देती, और न जनेऊ या तिलक या पण्डित और शर्मा की उपाधि ही भक्ति की वस्तु है। मैं लकीर-पीट सम्मान को नैतिक अपराध समझता हूँ। मैं तो उसी का सम्मान करूँगा, जो मनसा-वाचा-कर्मणा-हर पहलू से सम्मान के योग्य है। जिसे मैं जानता हूँ कि मक्कारी, स्वार्थ-साधन और निन्दा के सिवा और कुछ नहीं करता, जिसे मैं जानता हूँ कि रिश्वत और सूद तथा खुशामद की कमाई खाता है, वह अगर ब्रह्मा की आयु लेकर भी मेरे सामने आए, तो भी मैं उसे सलाम नहीं करूँ। इसे तुम मेरा अहंकार कह सकती हो। लेकिन मैं मजबूर हूँ जब तक मेरा दिल न झुके, मेरा सिर भी न झुकेगा। मुमकिन है, तुम्हारी बहू के मन में भी उन देवियों की ओर से अश्रद्धा के भाव हों। उनमें से दो-चार को मैं भी जानता हूँ। हैं वे सब बड़े घर की; लेकिन सबके दिल छोटे। कोई निंदा की पुतली है, तो कोई खुशामद में युक्त, कोई गाली- गलौज में अनुपम। सभी रूढ़ियों की गुलाम, ईर्ष्या-द्वेष से जलने वाली। एक भी ऐसी नहीं, जिसने अपने घर को नरक का नमूना न बना रखा हो। अगर तुम्हारी बहू ऐसी औरतों के आगे सिर नहीं झुकाती, तो मैं उसे दोषी नहीं समझता।’

माँ- ‘अच्छा, अब चुप रहो बेटा! देख लेना, यह तुम्हारी रानी एक दिन तुमसे चूल्हा न जलवाए और झाडू न लगवाए, तो सही। औरतों को बहुत सिर चढ़ाना अच्छा नहीं होता। इस की भी कोई हद है कि बूढ़ी सास तो खाना पकाए और जवान बहू बैठी उपन्यास पढ़ती रहे।’

बेटा- ‘बेशक यह बुरी बात है और मैं हरगिज नहीं चाहता कि तुम खाना पकाओ और वह उपन्यास पढ़े, चाहे वह उपन्यास प्रेमचंदजी ही के क्यों न हों लेकिन यह भी तो देखना होगा कि उसने अपने घर कभी खाना नहीं पकाया। वहाँ रसोइया महाराज हैं। और जब चूल्हे के सामने जाने से उसके सिर में दर्द होने लगता है, तो खाना पकाने के लिए मजबूर करना उस पर अत्याचार करना है। मैं तो समझता हूँ ज्यों-ज्यों हमारे घर की दशा का उसे ज्ञान होगा, उसके व्यवहार में आप-ही-आप इसलाह होती जाएगी। यह उसके घरवालों की गलती है कि उन्होंने उसकी शादी किसी धनी घर में नहीं की। हमने भी यह शरारत की कि अपनी असली हालत उनसे छिपाई और यह प्रकट किया कि हम पुराने रईस हैं। अब हम किस मुँह से कह सकते हैं कि तू खाना पका, या बरतन साफ कर अथवा झाडू लगा? हमने उन लोगों से छल किया है और उसका फल हमें चखना पड़ेगा। अब तो हमारी कुशल इसी में है कि अपनी दुर्दशा को नम्रता, विनय और सहानुभूति से ढके, और उसे अपने दिल को यह तसल्ली देने का अवसर दें कि बला से धन नहीं मिला, घर के आदमी तो अच्छे मिले। अगर यह तसल्ली भी हमने उससे छीन ली, तो तुम्हीं सोचो, उसको कितनी विदारक वेदना होगी। शायद वह हम लोगों की सूरत से भी घृणा करने लगे।’

माँ- ‘उसके घरवालों को सौ दफे गरज थी, तब हमारे यहाँ ब्याह किया। हम कुछ उनसे भीख माँगने गए थे?’

बेटा- ‘उनको अगर लड़के की गरज थी, तो हमें धन और कन्या, दोनों की गरज थी।’

माँ- ‘यहाँ के बड़े-बड़े रईस हमसे नाता करने को मुँह फैलाए हुए थे।’

बेटा- ‘इसीलिए कि हमने रईसों का स्वाँग बना रखा है। घर की असली हालत खुल जाए, तो कोई बात भी न पूछे।’

माँ- ‘तो तुम्हारे ससुराल वाले ऐसे कहीं के रईस हैं। इधर जरा वकालत चल गई, तो रईस हो गए, नहीं तो तुम्हारे ससुर के बाप मेरे सामने चपरासीगीरी करते थे। और लड़की का यह दिमाग कि खाना पकाने से सिर में दर्द होता है। अच्छे-अच्छे घरों की लकड़ियाँ गरीबों के घर आती हैं और घर की हालत देखकर वैसा ही बर्ताव करती हैं। यह नहीं कि बैठी अपने भाग्य को कोसा करें। इस छोकरी ने हमारे घर को अपना समझा ही नहीं।’

बेटा- ‘जब तुम समझने भी दो। जिस घर में घुड़कियों, गालियों और वक्ताओं के सिवा और कुछ न मिले, उसे अपना घर कौन समझे? घर तो वह है, जहाँ स्नेह और प्यार मिले। कोई लड़की डोली से उतरते ही सास को अपनी माँ नहीं समझ सकती। माँ तभी समझेगी, जब सास पहले उसके साथ माँ का-सा बर्ताव करे बल्कि अपनी लड़की से ज्यादा प्रिय समझे।’

मां- ‘अच्छा, अब चुप रहो। जी न जलाओ। यह जमाना ही ऐसा है कि लड़कों ने स्त्री का मुँह देखा और उसके गुलाम हुए। ये सब न-जाने कौन-सा मंतर सीखकर आती हैं। यह बहू-बेटी के लच्छन हैं कि पहर दिन चढ़े सोकर उठे। ऐसी कुलच्छनी बहू का तो मुँह न देखे।’

बेटा- ‘मैं भी तो देर से सोकर उठता हूँ अम्मा। मुझे तो तुमने कभी नहीं कोसा।’