grhaneeti by munshi premchand
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पति- ‘बस, जरा पुरानी लकीर पर जान देती हैं।’

स्त्री- ‘इसे में क्षमा के योग्य समझती हूँ। जिस जलवायु में हम पलते हैं, उसे एकबारगी नहीं बदल सकते। जिन रूढ़ियों और परम्पराओं में उनका जीवन बीता है, उन्हें तुरन्त त्याग देना उनके लिए कठिन है। वह क्या, कोई भी नहीं छोड़ सकता। यह तो फिर भी बहुत उदार हैं। तुम अभी महाराज मत रखो। खामख्वाह खेरबार क्यों होगे, जब तरक्की हो जाए, तो महाराज रख लेना। अभी मैं खुद पका लिया करूंगी। तीन-चार प्राणियों का खाना ही क्या? मेरी जात से कुछ तो अम्मा को आराम मिले। मैं जानती हूँ सब कुछ, लेकिन कोई रोब जमाना चाहे, तो मुझसे बुरा कोई नहीं।’

पति- ‘मगर यह तो मुझे बुरा लगेगा कि तुम रात को अम्मा के पाँव दबाने बैठो।’

स्त्री- ‘बुरा लगने की कौन बात है? जब उन्हें मेरा इतना खयाल है, तो मुझे भी उनका लिहाज करना ही चाहिए। जिस दिन उनके पाँव दबाने बैठूंगी, वह मुझ पर प्राण देने लगेंगी। आखिर बहू-बेटे का कुछ सुख उन्हें भी तो हो। बड़ों की सेवा करने में हेठी नहीं होती। बुरा तब लगता है, जब वह शासन करते हैं, और अम्मा मुझसे पाँव दबवाएँगी थोड़े ही। सेंत का यश मिलेगा।’

पति- ‘अब तो अम्मा को तुम्हारी फिजूलखर्ची भी बुरी नहीं लगती। कहती थी, रुपए-पैसे बहू के हाथ में दे दिया करो।’

स्त्री- ‘चिढ़ कर तो नहीं कहती थीं?’

पति- ‘नहीं-नहीं, प्रेम से कह रही थी। उन्हें अब भय हो रहा है, कि उनके हाथ में पैसे रहने से तुम्हें असुविधा होती होगी। तुम बार-बार उनसे माँगते लजाती भी होगी और डरती भी होगी, एवं तुम्हें अपनी जरूरतों को रोकना पड़ता होगा।’

स्त्री- ‘ना भैया, मैं यह जंजाल अभी अपने सिर न -लूंगी। तुम्हारी थोड़ी-सी तो आमदनी है, कहीं जल्दी से खर्च हो जाए, तो महीना कटना मुश्किल हो जाए। थोड़े में निर्वाह करने की विद्या उन्हीं को आती है। मेरी ऐसी जरूरत ही क्या हैं? मैं तो बेकार अम्माजी को चिढ़ाने के लिए उनसे बार-बार रुपए माँगती थी। मेरे पास तो खुद सौ-पचास रुपए पड़े रहते हैं। बाबूजी का पत्र आता है, तो उसमें दस-बीस के नोट जरूर होते हैं लेकिन अब मुझे हाथ रोकना पड़ेगा। आखिर बाबूजी कब तक देते चले जाएंगे और यह कौन-सी अच्छी बात है कि मैं हमेशा उन पर टैक्स लगाती रहूँ?’

पति- ‘देख लेना, अम्मा अब तुम्हें कितना प्यार करती हैं।’

स्त्री- ‘तुम भी देख लेना, मैं उनकी कितनी सेवा करती हूँ’।

पति- ‘मगर शुरू तो उन्होंने किया?’

स्त्री- ‘केवल विचार में। व्यवहार में आरम्भ मेरी ही ओर से होगा। भोजन पकाने का समय आ गया, चलती हूँ। आज कोई खास चीज तो नहीं खाओगे?’

पति- ‘तुम्हारे हाथों की रूखी रोटियाँ भी पकवान का मजा देंगी।’

स्त्री- ‘अब तुम नटखटी करने लगे।’