बेटों वाली-गृहलक्ष्मी की कहानियां: Son Story
Beto Wali

Son Story: कमला साग लेकर खेत से लौटी…उसकी नज़र अपनी बेटी चुन्नी पर पड़ी, देखते ही वह चिल्लाई, ‘अरी… ओ… छोरी, तेरे पेट मे आग लगी रहती है क्या? सुबह-सुबह थाली भर लेकर बैठ गई। कितनी बार कहा है भाईयों को खिला कर खुद खाया कर। मुई सुनती ही नहीं….’ 
‘अम्मा वो दोनों तो अभी-अभी सो कर उठे हैं। तैयार होंगे, खाएंगे और स्कूल चले जाएंगे। मैं मुंह अंधेरे से उठ कर काम कर रही हूं, मुझे भूख लगी है। अभी उनके कपड़े भी धोने है मुझे।’ रोटी का एक टुकड़ा दही में डुबो कर मुंह में रखती हुई चुन्नी बोली।

‘अच्छा….अच्छा… चुप कर, बड़ी आई काम करने वाली…. सारा मक्खन-मलाई तूं ही चट कर जाती है, तभी जंगली झाड़ सी बढती जा रही है।’  कमला साग की टोकरी एक ओर पटकती हुई बोली। तभी चुन्नी के बाबा कुदाल लेने आंगन में आए। पत्नी को यूं झल्लाते देख बोले, ‘क्या हुआ… क्यों डांट रही हो बिटिया को? तुम्हारे लाडले दिन चढ़े तक सोते रहेंगे तो वह भी भुखी-प्यासी बैठी रहे? उन्हें कोई काम-वाम तो करना नहीं है। एक बिटिया ही है जो सबका ख्याल रखती है। तुम हो कि उसे ही कोसती रहती हो।’
‘क्या कहा….?  मैं कोसती हूं!  अरे… छोरी जात है, पराए घर जाना है उसे। रहने-बसने के तौर-तरीके ना सिखाऊं? कल को ब्याह कर जाएगी, गलती करेगी तो सास-ननद मुझे गाली देंगी….कहेंगी, अम्मा को सिर्फ छोरी जनना ही आता था। कोई लूर-लक्षण ना सिखाया! यहाँ कुछ कहो तो मैं ही….।’  
कमला अभी और भी जाने क्या-क्या कहती कि उसकी बातों को बीच में ही काट कर किशोरी लाल बोले, ‘अरी भाग्यवान, क्यों हलकान होती हो? हमारी बेटी बहुत होशियार है किसी को शिकायत का मौका नहीं देगी। फिक्र ही करनी है तो अपने सपूतों की करो। जो… ना तो घर पर कभी पढ़ते है, ना ही कोई काम करते है।’ कहते हुए किशोरीलाल कुदाल उठा कर बाहर निकल गए। उनकी बातों से कमला चिढ़ गई।
‘जब देखो बेटों के पीछे पड़े रहते है। जाने बाप है या दुश्मन! कहते हैं काम नहीं करते। बेचारे दिन भर स्कूल में पढ़ कर घर आते है। पढ़ने में मेहनत नहीं लगती क्या? बेटी जरा दो काम क्या कर देती है सारा लाड-प्यार उसी के लिए। अरे, बेटों से वंश चलता है। बुढ़ापे का सहारा होता है। कल को जब थक कर खाट पर बैठोगे न, चुन्नी ना आवेगी तुम्हारी देख-भाल करने। यही बेटे काम आवेगें तब।’
कमला आंगन के कोने में बनी नाली के पास हाथ-मुंह धोती हुई धारा प्रवाह बोले जा रही थी। फिर उसने आंचल से हाथ पोछते हुए कहा, चुन्निया तू जा उपले थाप ले, आज बच्चों को मैं अपने हाथों से खिलाउंगी। जाने स्कूल  जाने की जल्दी में ठीक से खाते भी है या नहीं?”  कमला घी का डब्बा ले रोटी पर चुपड़ने लगी। चुन्नी झटपट रोटी खत्म कर थान की ओर निकल पड़ी। शाम के वक्त चून्नी, कमला के पावं दबाती बोली, ‘अम्मा!  मुझे भी आगे पढ़ना है बाजार वाले बड़े स्कूल में मेरा भी दाखिला करवा दो न…. मैं भी भाईयों के साथ जाऊंगी।’
‘नहीं! तूने गांव के स्कूल में पांचवी तक की पढ़ाई कर ली न…. लिखना-पढ़ना सीख लिया, अब और ज्यादा पढ़ कर क्या करना है तुझे? कुछ सिलाई-कढ़ाई सीख, गृहस्थी के काम आएगें।’
चार साल बाद चुन्नी की शादी हो गई, लड़का शहर मे नौकरी करता था।  वह चुन्नी को भी अपने साथ शहर में रखने लगा। इधर दोनों भाइयों में बड़ा दसवीं में दो बार फेल होने के बाद पढ़ाई छोड़ खेती करने लगा। छोटा भी इंटर से आगे नहीं बढ़ पाया। उसने गांव में ही गल्ले की दुकान खोल ली। जल्द ही दोनो की शादी भी हो गई।
अब कमला गृहस्थी की झंझट से पूरी तरह आज़ाद हो गई। घर संभालने को दो-दो बहुऐं थी। दो बेटो की अम्मा! दिन भर गरदन अकड़ाए गांव में घूमा करती। अलमारी संदूक की चाबी तो वह पहले ही बहुओं को सौंप चुकी थी। अब किसी पोते-पोती के जन्म की खुशी में तो कभी किसी त्योहार के अवसर पर उपहार स्वरूप अपने सारे गहने भी बहुओं के हवाले करती जा रही थी। कमला के इस अंधे पुत्र-प्रेम को देखकर किशोरीलाल उसे समझाने का प्रयास करते, 
‘कमला! यूं सब कुछ बेटे-बहू के हाथ सौंप देना उचित नहीं। हमारी भी कुछ जरूरतें है। हर छोटी-बड़ी जरूरतों के लिए उनका मुंह देखना अच्छा लगेगा क्या? स्त्री का जेवर उसकी पूंजी होती है। इसे अभी से बहुओं को क्यों सौंप रही हो?’ 
कमला को ऐसी बाते जरा न सुहाती। उल्टे वह पति को ही गलत ठहराने लगती, “आप क्यों हर वक्त अपने बच्चों पर शक-शुबहा करते रहते है? औलाद हैं हमारे कोई दुश्मन नहीं। जब हमारे शरीर थक जाएंगे, तब इन्हे ही संभालने हैं,  तो अभी से संभाले इसमे हर्ज़ ही क्या है….. फिर अभी बहुओं के पहनने-ओढ़ने के दिन है।
किशोरीलाल ऐसे बीमार हुए कि खाट से उठे ही नहीं! अब दोनो भाईयों मे बात-बात पर टकराव होने लगा। साल बीतते-न-बीतते दोनो के बीच बंटवारा हो गया। खेत से लेकर घर तक, एक-एक चीज़ दोनो के बीच बांट ली गई। अब माँ उनके लिए समस्या बन गई। कमला के दोनो सपूतों में से कोई भी उसे अपने साथ रखने को तैयार न हुआ। अंत में उसकी खाट बाहर वाली कोठरी में डाल दी गई। कभी बड़ी बहू खाना दे जाती, कभी छोटी। कभी-कभी तो फाकें भी करने पड़ते।
जिन बेटों को उसने घी में चुपड़ कर रोटी खिलाई थी, वे भूले से भी उसकी कोठरी में पांव न धरते। उन्हे सपने में भी ख्याल न आता कि उनकी माँ अभी जिंदा है। उसके पेट में अन्न का दाना गया या नहीं?
मन टूटा तो तन भी साथ छोड़ने लगा। कमला धीरे-धीरे खाट से लग गई। अब उसे चून्नी की बहुत याद आती। वह सोचती… जाने अब उसका मुंह देख भी पाउंगी या नहीं । बेटों की बेवफाई से अधिक अपनी नासमझी का अफसोस होता उसे। सबसे ज्यादा चून्नी के साथ किये गए व्यवहारों का। सोचती….  कभी दो पल प्यार नहीं किया उसे, उसकी इच्छाओं को अनदेखा कर सारी ममता इन बेटों पर लुटाती रही… और वह तड़प उठती। 
तभी एक दिन चुन्नी उसकी कोठरी में आ खड़ी हुई। माँ की स्थिति देख तड़प उठी। माँ-बेटी काफी देर तक गले लगकर रोती रही। फिर चुन्नी ने शिकायत भरे लहजे मे कहा, ‘अम्मा! तुम्हारी ऐसी स्थिति थी तो मुझे खबर क्यों नहीं किया? क्या मैं तुम्हारी कोई नहीं?  वहां शहर में रामदेव काका से मेरी मुलाकात हो गई। उन्होंने तुम्हारे बारे में बताया तो मैं तुरंत चली आई।’ 
कमला ने चुन्नी की बातों का कोई उत्तर नहीं दिया। बस हिचकियां ले-लेकर रोती रही। उसकी कमजोर काया ऐसे कांप रही थी मानो अंदर कोई तूफान उठा हो! चुन्नी काफी देर तक खाट पर बैठी उसके पांव दबाती रही। फिर सहारा दे उठाकर हाथ मुंह धुलवाया, कुछ फल तथा मिठाइयां जो वो अपने साथ लाई थी अपने हाथों से खिलाई। कुछ देर बाद एक नई साड़ी बैग से निकाल कमला के हाथों में रखती बोली, ‘अम्मा तुम तैयार हो जाओ तब तक मैं बाकी लोगों से मिलकर आती हूं। शाम की गाड़ी से तुम मेरे साथ शहर चल रही हो।’
‘नहीं… नहीं…बिटिया ये तू क्या कह रही है? मैं यहीं ठीक हूं। दुनिया छोड़ने से पहले एक बार तुझे देखने की इच्छा थी सो पूरी हो गई। मैं शहर जाकर क्या करूंगी!’
‘क्यों अम्मा! यदि भाइयों में से कोई शहर में होता और वो तुम्हे अपने साथ ले जाना चाहता तब भी तुम ऐसा कहती?’

  ‘तब बात और होती बिटिया।’  एक आह सी भर्ती हुई कमला बोली।
‘क्यों अम्मा? सिर्फ इसलिए कि वे बेटे है! वे बेटे… जो तुम्हे बोझ समझते हैं। उनके दरवाजे पड़े रहना मंजूर है तुम्हे, मैं जो तुम्हारी सेवा करना चाहती हूं मेरे साथ रहना गवांरा नहीं? क्योंकि मैं बेटी हूं! बेटी होना पाप है क्या अम्मा?’  
‘यह बात नहीं है बिटिया मैं तो अपने किये पर शर्मिंदा हूं। मैने कभी तुझे तेरे भाईयों के बराबर नही समझा। फिर आज किस मुंह से तेरे घर जाऊं! फिर दामाद जी क्या कहेंगे? दो-दो बेटों के होते बुढ़ापे में बेटी के घर…..।’ कहते हुए कमला की बूढ़ी बेबस आंखों से दर्द और पश्चाताप के आंसू बह चले थे, जिन्हे अपने दामन में समेटती चून्नी बोली,  ‘ऐसा क्यों सोचती हो अम्मा? तुम्हारी झिड़कियों ने ही तो मुझे एक सूघड़ गृहणी बनाया, तभी मुझे ससुराल मे मान मिला। रही बात तुम्हारे दामाद की बात तो उन्होने मुझे ख़ास तौर पर यह कह कर भेजा है कि सिर्फ मिल कर ना चली आना, अम्मा को साथ ही ले आना। अब तुम जाने से इनकार कर मुझसे यह हक भी छीन रही हो।’ 
चुन्नी की इस बात से कमला बुरी तरह तड़प उठी। उसने लरजते हुए कहा, ‘ना…ना… मेरी बिटिया ना…, अब मैं तुझसे तेरा कोई हक नहीं छीन सकती! चल ले चल मुझे इस नरक से।’ कह कर कमला चुन्नी द्वारा लाई साड़ी पहनने लगी। अब उसके शरीर में कोई कंपन नहीं था; लगा कोई नई ऊर्जा मिल गई हो।

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