दस बजे रात का समय, एक विशाल भवन में एक सजा हुआ कमरा, बिजली की अँगीठी, बिजली का प्रकाश। बड़ा दिन आ गया है।
सेठ खूबचंद जी अफसरों की डालियां भेजने का सामान लगा रहे हैं। फलों, मिठाइयों, मेवों, खिलौनों की छोटी-छोटी पहाड़ियां सामने खड़ी हैं। मुनीम जी अफसरों के नाम बोलते जाते थे और सेठजी अपने हाथों यथासम्मान डालियाँ लगाते जाते हां।
खूबचंद जी एक मिल के मालिक हैं, बम्बई के बड़े ठेकेदार। एक बार नगर के मेयर भी रह चुके हैं। इस वक्त भी कई व्यापारी सभाओं के मंत्री और व्यापार- मंडल के सभापति हैं। इस धन, यश, मान की प्राप्ति में डालियों का कितना भाग है, यह कौन कह सकता है पर इस अवसर पर सेठजी के दस-पाँच हजार बिगड़ जाते थे। अगर कुछ लोग उन्हें खुशामदी, टोड़ी, जी हुजूर कहते हैं, तो कहा करें। इससे सेठजी का क्या बिगड़ता है? सेठजी उन लोगों में नहीं हैं, जो नेकी करके दरिया में डाल दें।
पुजारी जी ने आकर कहा- सरकार, बड़ा विलम्ब हो गया। ठाकुरजी का भोग तैयार है।
अन्य धनियों की भांति सेठजी ने एक मंदिर बनवाया था। ठाकुरजी की पूजा करने के लिए एक पुजारी नौकर रख लिया था।
पुजारी को रोष-भरी आँखों से देखकर कहा- देखते नहीं हो, क्या कर रहा हूँ? यह भी एक काम है, खेल नहीं, तुम्हारे ठाकुरजी ही सब कुछ न दे देंगे। पेट भरने पर ही पूजा सूझती है। घंटे-आधा घंटे की देर हो जाने से ठाकुरजी भूखों न मर जाएँगे।
पुजारी जी अपना-सा मुँह लेकर चले गए और सेठजी फिर डालियाँ सजाने में मसरूफ हो गए।
सेठजी के जीवन का मुख्य काम धन कमाना था, और उसके साधनों की रक्षा करना उनका मुख्य कर्तव्य। उनके व्यवहार इसी सिद्धान्त के अधीन थे। मित्रों से इसलिए मिलते थे कि उनसे धनोपार्जन में मदद मिलेगी। मनोरंजन भी करते थे, तो व्यापार की दृष्टि से, दान बहुत देते थे, पर उसमें भी यही लक्ष्य सामने रहता था। संध्या और वंदना उनके लिए पुरानी लकीर थी, जिसे पीटते रहने में स्वार्थ सिद्ध होता था, मानो कोई बेगार हो। सब कामों से छुट्टी मिली, तो जाकर ठाकुर-द्वारे में खड़े हो गए, चरणामृत लिया और चले आए।
एक घंटे के बाद पुजारी जी फिर सिर पर सवार हो गए। खूबचंद उनका मुँह देखते ही झुँझला उठे। जिस पूजा में तत्काल फायदा होता था, उसमें कोई बार-बार विघ्न डाले, तो क्यों न बुरा लगे? बोले- कह दिया, अभी मुझे फुरसत नहीं है। खोपड़ी पर सवार हो गए। मैं पूजा का गुलाम नहीं हूँ। जब घर में पैसे होते हैं, तभी ठाकुरजी की भी पूजा होती है। घर में पैसे न होंगे, तो ठाकुरजी भी पूजे न जाएँगे।
पुजारी हताश होकर चला गया और सेठजी फिर अपने काम में लगे।
सहसा उनके मित्र केशवराम जी पधारे। सेठजी उठकर उनके गले से लिपट गए और बोले-किधर से? मैं तो अभी तुम्हें बुलाने वाला था।
केशवराम जी ने मुस्कराकर कहा- इतनी रात गए तक डालियाँ ही लग रही हैं। अब तो समेटो। कल का सारा दिन पड़ा है, लगा लेना। तुम कैसे इतना काम करते हो, मुझे तो यही आश्चर्य होता है। आज क्या प्रोग्राम था, याद है?
सेठजी ने गर्दन उठाकर स्मरण करने की चेष्टा करके कहा- क्या कोई विशेष प्रोग्राम था? मुझे तो याद नहीं आता। (एकाएक स्मृति जाग उठती है) अच्छा, यह बात! हां याद आ गया। अभी देर तो नहीं हुई। इस झमेले में ऐसा भूला कि जरा भी याद न रही।
‘तो चलो फिर। मैंने तो समझा था, तुम वहाँ पहुँच गए होगे।’
‘मेरे न जाने से लैला नाराज तो नहीं हुई?’
‘यह तो वहाँ चलने पर मालूम होगा।’
‘तुम मेरी ओर से क्षमा माँग लेना।’
‘मुझे क्या गरज पड़ी है, जो आपकी ओर से क्षमा मांगूं। वह तो त्यौरियाँ चढ़ाए बैठी थी। कहने लगी- ‘उन्हें मेरी परवाह नहीं, तो मुझे भी उनकी परवाह नहीं। मुझे आने ही न देती थी। मैंने शान्त तो कर दिया है लेकिन कुछ बहाना करना पड़ेगा।’
खूबचंद ने आंख मारकर कहा- ‘मैं कह दूँगा, गवर्नर साहब ने जरूरी काम से बुला भेजा था।’
‘जी नहीं, यह बहाना वहाँ न चलेगा। कहेंगी, तुम मुझसे पूछकर क्यों नहीं गए। वह अपने सामने गवर्नर को समझती ही क्या है? रूप और यौवन बड़ी चीज है भाई साहब! आप नहीं जानते।’
‘तो फिर तुम्हीं बताओ, कौन-सा बहाना करूँ?’
‘अजी, बीस बहाने हैं। कहना, दोपहर से 106 डिग्री ज्वर था। अभी-अभी उठा हूँ।’
दोनों मित्र हँसे और लैला का मुजरा सुनने चले।
सेठ खूबचंद का स्वदेशी मिल देश के बहुत बड़े मिलों में है। जब से स्वदेशी आंदोलन चला है, मिल के माल की खपत दूनी हो गई है। सेठजी ने कपड़े की दर में दो आने रुपए बढ़ा दिए हैं। फिर भी बिक्री में कोई कमी नहीं है, लेकिन इधर अनाज कुछ रास्ता हो गया है, इसलिए सेठजी ने मजदूरी घटाने की सूचना दे दी है। कई दिन से मजदूरों के प्रतिनिधियों और सेठजी में बहस होती रही। सेठजी जौ-भर भी न दबना चाहते थे। जब उन्हें आधी मजदूरी पर नए आदमी मिल सकते हैं, तब वह क्यों पुराने आदमियों को रखें। वास्तव में यह चाल पुराने आदमियों को भगाने ही के लिए चली गई थी।
अंत में मजदूरों ने यही निश्चय किया कि हड़ताल कर दी जाए।
प्रातःकाल का समय है। मिल के अहाते में मजदूरों की भीड़ लगी हुई है। कुछ लोग चारदीवारी पर बैठे हैं, कुछ जमीन पर, कुछ इधर-उधर मटरगश्ती कर रहे हैं। मिल के द्वार पर कांसटेबल का पहरा है। मिल में पूरी हड़ताल है। एक युवक को बाहर से आते देखकर सैकड़ों मजदूर इधर-उधर से दौड़कर उसके चारों ओर जमा हो गए। हरेक पूछ रहा था- ‘सेठजी ने क्या कहा?’
यह लंबा-दुबला, साँवला युवक मजदूरों का प्रतिनिधि था। उसकी आकृति में कुछ ऐसी दृढ़ता, कुछ ऐसी निष्ठा, कुछ ऐसी गंभीरता थी कि सभी मजदूरों ने उसे नेता मान लिया था।
युवक के स्वर में निराशा थी, क्रोध था, आहत सम्मान का रुदन था। ‘कुछ नहीं हुआ। सेठजी कुछ नहीं सुनते।’
चारों और से आवाजें आई- ‘तो हम भी उनकी खुशामद नहीं करते।’