daamul ka kaidee by munshi premchand
daamul ka kaidee by munshi premchand

‘गोपी की घरवाली कहती है कि इसका स्वभाव भी गोपी जैसा ही है।’

‘सेठजी गूढ़ मुस्कान के साथ बोले- ‘भगवान की लीला है कि जिसकी मैंने हत्या की, वही मेरा पुत्र हो। मुझे तो विश्वास है, गोपीनाथ ने ही इसमें अवतार लिया है।’

प्रमीला ने माथे पर हाथ रखकर कहा- ‘यही सोचकर तो कभी-कभी मुझे न जाने कैसी शंका होने लगी है।’

सेठजी ने श्रद्धा-भरी आँखों से देखकर कहा- ‘भगवान हमारे परम सुहृदय हैं। वह जो कुछ करते हैं, प्राणियों के कल्याण के लिए करते हैं। हम समझते हैं, हमारे साथ विधि ने अन्याय किया पर यह हमारी मूर्खता है। विधि अबोध बालक नहीं है जो अपने ही सिरजे हुए खिलौनों को तोड़-फोड़कर आनंदित होता हो। न वह हमारा शत्रु है, जो हमारा अहित करने में सुख मानता है। वह परम दयालु है, मंगल-रूप है। यही अवलम्ब था, जिसने निर्वासन काल में मुझे सर्वनाश से बचाया। इस आधार के बिना कह नहीं सकता, मेरी नौका कहां-कहां भटकती और उसका क्या अंत होता।’

बिन्नी ने कई कदम चलने के बाद कहा- मैंने तुमसे झूठ-मूठ कहा कि अम्मा बीमार हैं। अम्मा तो अब बिलकुल अच्छी हैं। तुम कई दिन से गए नहीं इसलिए उन्होंने मुझसे कहा- इस बहाने से बुला लाना। तुमसे वह एक सलाह करेंगी।’

कृष्णचन्द्र ने कौतूहल भरी आँखों से देखा।

‘मुझसे सलाह करेगी! मैं भला क्या सलाह दूँगा? मेरे दादा आ गए, इसीलिए नहीं आ सका।’

‘तुम्हारे दादा आ गए! तो उन्होंने पूछा होगा, यह कौन लड़की है?’

‘नहीं, कुछ नहीं पूछा।’

‘दिल में तो कहते होंगे, कैसी बेशरम लड़की है।’

‘दादा ऐसे आदमी नहीं हैं। मालूम हो जाता कि यह कौन है, तो बड़े प्रेम से बातें करते। मैं तो कभी-कभी डरा करता था कि न जाने उनका मिज़ाज कैसा हो। सुनता था, कैदी बड़े कठोर-हृदय हुआ करते हैं, लेकिन दादा तो दया के देवता हैं।’

दोनों कुछ दूर फिर चुपचाप चले गए। तब कृष्णचन्द्र ने पूछा- ‘तुम्हारी अम्मा मुझसे कैसी सलाह करेंगी?’

बिन्नी का ध्यान जैसे टूट गया।

‘मैं क्या जानूं, कैसी सलाह करेंगी। मैं जानती कि तुम्हारे दादा आए हैं, तो न जाती। मन में कहते होंगे, इतनी बड़ी लड़की मारी-मारी फिरती है।’ कृष्णचन्द्र कहकहे मारकर बोला- हां, कहते तो होंगे। मैं जाकर और जड़ दूँगा।’

बिन्नी बिगड़ गई।

‘क्या तुम जड़ दोगे? बताओ, मैं कहां घूमती हूं? तुम्हारे घर के सिवा मैं और कहीं जाती हूँ?’

‘मेरे जी में जो आया, सो कहूंगा।, नहीं तो मुझे बता दो, कैसी सलाह है?’

‘तो मैंने कब कहा था कि मैं नहीं बताऊंगी। कल हमारे मिल में फिर हड़ताल होनेवाली है। हमारा मैनेजर इतना निर्दयी है कि किसी को पाँच मिनट की भी देर हो जाए, तो आधे दिन की तलब काट लेता है और दस मिनट देर हो जाए, तो दिन-भर की मजदूरी गायब। कई बार सभी ने जाकर उससे कहा-सुना, मगर मानता ही नहीं। तुम हो तो जरा-से पर अम्मा को न जाने तुम्हारे ऊपर क्यों इतना विश्वास है, और मजदूर लोग भी तुम्हारे ऊपर बड़ा ही भरोसा करते हैं। सबकी सलाह है कि तुम एक बार मैनेजर के पास जाकर दो टूक बातें कर लो। हां या नहीं अगर वह अपनी बात पर अड़ा रहे, तो फिर हम भी हड़ताल करेंगे।’ कृष्णचन्द्र विचारों में मग्न था। कुछ न बोला।

बिन्नी ने फिर उद्दण्ड-भाव से कहा- ‘यह कड़ाई इसीलिए तो है कि मैनेजर जानता है, हम बेबस हैं और हमारे लिए और कहीं ठिकाना नहीं है। तो हमें भी दिखा देना है कि हम चाहे भूखे मरेंगे, मगर अन्याय न सहेंगे।’

कृष्णचन्द्र ने कहा- ‘उपद्रव हो गया, तो गोलियाँ चलेंगी।’

‘तो चलने दो। हमारे दादा मर गए, तो क्या हम लोग जिए नहीं?’ दोनों घर पहुँचे, तो वहाँ द्वार पर बहुत से मजदूर जमा थे और इसी विषय पर बातें हो रही थी।

कृष्णचन्द्र को देखते ही सभी ने चिल्लाकर कहा- ‘लो, भैया आ गए।’

वही मिल है, जहाँ सेठ खूबचंद ने गोलियाँ चलाई थी। अब उन्हीं का पुत्र मजदूरों का नेता बना हुआ गोलियों के सामने खड़ा है।

कृष्णचन्द्र और मैनेजर की बातें हो चुकी। मैनेजर ने नियमों को नर्म करना स्वीकार न किया। हड़ताल की घोषणा कर दी गई। आज हड़ताल है। मजदूर मिल के अहाते में जमा हैं, और मैनेजर ने मिल की रक्षा के लिए फौजी दस्ता बुला लिया है। मिल-मजदूर उपद्रव नहीं करना चाहते थे। हड़ताल केवल उनके असन्तोष का प्रदर्शन थी लेकिन फौजी दस्ता देखकर मजदूरों को भी जोश आ गया। दोनों तरफ से तैयारी हो गई है। एक ओर गोलियाँ हैं, दूसरी ओर ईंट-पत्थर के टुकड़े। युवक कृष्णचन्द्र ने कहा- ‘आप लोग तैयार हैं? हमें मिल के अंदर जाना है, चाहे सब मार डाले जाए।’

बहुत-सी आवाजें आई-सब तैयार हैं।

‘जिनके बाल-बच्चे हों, वह अपने घर चले जाएं।’

बिन्नी पीछे खड़ी-खड़ी बोली-बाल-बच्चे, सबकी रक्षा भगवान करता है। कई मजदूर घर लौटने का विचार कर रहे थे। इस वाक्य ने उन्हें स्थिर कर दिया। जय-जयकार हुई और एक हजार मजदूरों का दल मिल-द्वार की ओर चला। फौजी दस्ते ने गोलियाँ चलाईं। सबसे पहले कृष्णचन्द्र गिरा, फिर और कई आदमी गिर पड़े। लोगों के पैर उखड़ने लगे।

उसी वक्त सेठ खूबचंद नंगे सिर, नंगे पाँव अहाते में पहुँचे और कृष्णचन्द्र को गिरते देखा। परिस्थिति उन्हें घर ही पर मालूम हो गई थी। उन्होंने उन्मत्त होकर कहा- ‘कृष्णचन्द्र की जय’! और दौड़कर आहत युवक को कंठ से लगा लिया। मजदूरों में एक अद्भुत साहस और धैर्य का संचार हुआ ।

‘खूबचंद।’ इस नाम ने जादू का काम किया। इस 15 साल में ‘खूबचंद’ ने शहीद का ऊँचा पद प्राप्त कर लिया था। उन्हीं का पुत्र आज मजदूरों का नेता है। धन्य है भगवान की लीला! सेठजी ने पुत्र की लाश जमीन पर लिटा दी और अविचलित भाव से बोले- ‘भाइयों, यह लड़का मेरा पुत्र था। मैं पन्द्रह साल डामूल काटकर लौटा, तो भगवान की कृपा से मुझे इसके दर्शन हुए। आज आठवाँ दिन है। आज फिर भगवान ने उसे अपनी शरण में ले लिया। वह भी उसकी कृपा थी। मैं जो मूर्ख अज्ञानी तब था, वही अब भी हूँ। इस बात का मुझे गर्व है कि भगवान ने मुझे ऐसा वीर बालक दिया। अब आप लोग मुझे बधाइयाँ दें। किसे ऐसी वीर-गति मिलती है? अन्याय के सामने जो छाती ठोक कर खड़ा हो जाए, वही सच्चा वीर है, इसलिए बोलिए-कृष्णचन्द्र की जय।’

एक हजार गलों से जय-ध्वनि निकली और उसी के साथ सब-के-सब हल्ला मारकर दफ्तर के अंदर घुस गए। गारद के जवानों ने एक बंदूक भी न चलाई। इस विलक्षण कांड ने इन्हें स्तम्भित कर दिया था।

मैनेजर ने पिस्तौल उठा लिया और खड़ा हो गया। देखा, तो सामने सेठ खूबचंद।

लज्जित होकर बोला- ‘मुझे बड़ा दुःख है कि आज देवगति से ऐसी दुर्घटना हो गई पर आप खुद समझ सकते हैं, मैं क्या कर सकता था।’

सेठजी ने शान्त स्वर में कहा- ‘ईश्वर जो कुछ करता है, हमारे कल्याण के लिए ही करता है। अगर इस बलिदान से मजदूरों का कुछ हित हो, तो मुझे इसका जरा भी खेद न होगा।’

मैनेजर सम्मान-भरे स्वर में बोला- ‘लेकिन इस धारणा से तो आदमी को संतोष नहीं होता। ज्ञानियों का भी मन चंचल हो जाता है।’

सेठजी ने इस प्रसंग का अंत कर देने के इरादे से कहा- ‘तो अब क्या निश्चय कर रहे हैं?’

मैनेजर सकुचाता हुआ बोला- ‘मैं इस विषय में स्वतन्त्र नहीं हूँ। स्वामियों की जो आज्ञा थी, उसका मैं पालन कर रहा था।’ सेठजी कठोर स्वर में बोले- ‘अगर आप समझते हैं कि मजदूरों के साथ अन्याय हो रहा है, तो आपका धर्म है कि उनका पक्ष लीजिए। अन्याय में सहयोग करना अन्याय करने ही के समान है।’

एक तरफ तो मजदूर लोग कृष्णचन्द्र के दाह-संस्कार का आयोजन कर रहे थे, दूसरी तरफ दफ्तर में मिल के डायरेक्टर और मैनेजर सेठ खूबचंद के साथ बैठे कोई ऐसी व्यवस्था सोच रहे थे कि मजदूरों के प्रति इस अन्याय का अन्त हो जाए।

दस बजे सेठजी ने बाहर निकलकर मजदूरों को सूचना दी- ‘मित्रों, ईश्वर को धन्यवाद दो, कि उसने तुम्हारी विजय स्वीकार कर ली। तुम्हारी हाजिरी के लिए अब नए नियम बनाए जाएंगे और जुर्माना की वर्तमान प्रथा उठा दी जाएगी। मजदूरों ने सुना, पर उन्हें आनंद न हुआ, जो एक घंटा पहले होता। कृष्णचन्द्र को बलि देकर बड़ी-से-बड़ी रियायत भी उनकी निगाहों में हेय थी।

अभी अर्थी न उठने पाई थी कि प्रमीला लाल आँखें किए उन्मत्त-सी दौड़ी आई और उस देह से चिपट गई, जिसे उसने अपने उदर से जन्म दिया और अपने रक्त से पाला था। चारों तरफ हाहाकार मच गया। मजदूर और मालिक ऐसा कोई नहीं था, जिसकी आँखों से आँसुओं की धारा न निकल रही हो।

सेठजी ने समीप जाकर प्रमीला के कंधे पर हाथ रखा और बोले- ‘क्या करती हो प्रमीला, जिसकी मृत्यु पर हँसना और ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए, उसकी मृत्यु पर रोती हो।’

प्रमीला उसी तरह शव को हृदय से लगाए पड़ी रही। जिस निधि को पाकर उसने विपत्ति को सम्पत्ति समझा था, पति-वियोग के अंधकारमय जीवन में जिस दीपक से आशा, धैर्य और अवलम्ब पा रही थी, वह दीपक बुझ गया था। जिस विभूति को पाकर ईश्वर की निष्ठा और भक्ति उसके रोम-रोम में व्याप्त हो गई थी, वह विभूति उससे छीन ली गई थी।

सहसा उसने पति को अस्थिर नेत्रों से देखकर कहा- ‘तुम समझते होंगे, ईश्वर जो कुछ करता है, हमारे कल्याण के लिए ही करता है। मैं ऐसा नहीं समझती। समझ ही नहीं सकती। कैसे समझूँ? हाय मेरे लाल! मेरे लाड़ले! मेरा राजा, मेरे सूर्य, मेरे जीवन के आधार! मेरे सर्वस्व! तुझे खोकर कैसे चित्त को शान्त रखूँ? जिसे गोद में देखकर मैंने अपने भाग्य को धन्य माना था, उसे आज धरती पर पड़ा देखकर हृदय को कैसे संभालू? नहीं मानता! हाय नहीं मानता!’

यह कहते हुए उसने जोर से छाती पीट ली।

उसी रात को शोकातुर माता संसार से प्रस्थान कर गई। पक्षी अपने बच्चे की खोज में पिंजरे से निकल गया।

तीन साल बीत गए।

श्रमजीवियों के मुहल्ले में आज कृष्णाष्टमी का उत्सव है। उन्होंने आपस में चन्दा करके एक मंदिर बनवाया है। मंदिर आकार में बहुत सुन्दर और विशाल नहीं, पर जितनी भक्ति से यहाँ सिर झुकते हैं, वह बात इससे कहीं विशाल मंदिरों को प्राप्त नहीं। यहाँ लोग अपनी संपत्ति का प्रदर्शन करते नहीं, बल्कि अपनी श्रद्धा की भेंट देने आते हैं। मजदूर स्त्रियाँ गा रही हैं, बालक दौड़-दौड़कर छोटे-छोटे काम कर रहे हैं, और पुरुष झांकी के बजाय-श्रृंगार में लगे हुए हैं।

उसी वक्त सेठ खूबचंद आये। स्त्रियाँ और बालक उन्हें देखते ही चारों ओर से दौड़कर जमा हो गए। यह मंदिर उन्हीं के सतत उद्योग का फल है। मजदूर परिवारों की सेवा ही अब उनके जीवन का ध्येय है। उनका छोटा-सा परिवार अब विराट रूप हो गया है। उनके सुख को वह अपना सुख और उनके दुःख को अपना दुःख मानते हैं। मजदूरों में शराब, जुए और दुराचरण की वह कसरत नहीं रही। सेठजी की सहायता, सत्संग और सद्व्यवहार पशुओं को मनुष्य बना रहा है। सेठजी ने बाल-रूप भगवान् के सामने जाकर सिर झुकाया और उनके मन अलौकिक आनंद से खिल उठी। उस झाँकी में उन्हें कृष्णचन्द्र की झलक दिखाई दी। एक ही क्षण में उसने जैसे गोपीनाथ का रूप धारण किया। दाहिनी ओर से देखते थे, तो कृष्णचन्द्र; बायीं ओर से देखते थे, तो गोपीनाथ।

सेठजी का रोम-रोम पुलकित हो उठा। भगवान की व्यापक दया का रूप आज जीवन में पहली बार उन्हें दिखाई दिया। अब तक भगवान की दया को वह सिद्धान्त रूप से मानते थे। आज उन्होंने उनका प्रत्यक्ष रूप देखा। एक पथ-भ्रष्ट, पतनोन्मुखी आत्मा के उद्धार के लिए इतना दैवी विधान! इतनी अनवरत ईश्वरीय प्रेरणा सेठजी के मानस-पटल पर अपना सम्पूर्ण जीवन सिनेमा-चित्रों की भांति दौड़ गया। उन्हें जान पड़ा, जैसे आज बीस वर्ष से ईश्वर की कृपा उन पर छाया किए हुए है। गोपीनाथ का बलिदान क्या था? विद्रोही मजदूरों ने जिस समय उनका मकान घेर लिया था, उस समय उनका आत्मसमर्पण ईश्वर की दया के सिवा और क्या था? पन्द्रह साल के निर्वासित जीवन में, फिर कृष्णचन्द्र के रूप में, कौन उनकी आत्मा की रक्षा कर रहा था?

सेठजी के अन्त-करण से भक्ति की विह्वलता में डूबी हुई जय-ध्वनि निकली- कृष्ण भगवान की जय! और जैसे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड दया के प्रकाश से जगमगा उठा।