daamul ka kaidee by munshi premchand
daamul ka kaidee by munshi premchand

पन्द्रह साल के बाद भूतपूर्व सेठ खूबचंद अपने नगर के स्टेशन पर पहुंचे। हरा-भरा वृक्ष ठूंठ होकर रह गया था। चेहरे पर झुर्रियां पड़ी हुई, सिर के बाल सन, दाढ़ी जंगल की तरह बड़ी हुई, दांतों का कहीं नाम नहीं, कमर झुकी हुई। ठूंठ को देखकर कौन पहचान सकता है कि यह वहीं वृक्ष है, जो फल-फूल और पत्तियों से लदा रहता था, जिस पर पक्षी कलरव करते रहते थे।

स्टेशन के बाहर निकलकर वह सोचने लगे- कहां जाये? अपना नाम लेते लज्जा आती थी। किससे पूछें, प्रमीला जीती है या मर गयी? परिवार है तो कहां है? उन्हें देख वह प्रसन्न होगी, या उनकी उपेक्षा करेगी?

प्रमीला का पता लगाने में ज्यादा देर न लगी। खूबचंद की कोठी अभी तक खूबचंद की कोठी कहलाती थी। दुनिया कानून के उलटफेर क्या जाने? अपनी कोठी के सामने पहुंचकर उन्होंने एक तम्बोली से पूछा- ‘क्यों भैया, यही तो सेठ खूबचंद की कोठी है?’ तम्बोली ने उनकी ओर कौतूहल से देखकर कहा- ‘खूबचंद की जब थी तब थी, अब तो लाला देशराज की है।’

‘अच्छा! मुझे यहाँ आए बहुत दिन हो गए। सेठजी के यहाँ नौकर था। सुना, सेठजी को कालापानी हो गया था।’

‘हां, बेचारे भलमनसी में मारे गए। चाहते तो बेदाग बच जाते। सारा घर मिट्टी में मिल गया।’

‘सेठानी तो होंगी?’

‘हां, सेठानी क्यों नहीं हैं। उनका लड़का भी है।’

सेठजी के चेहरे पर जैसे जवानी की झलक आ गई। जीवन का वह आनंद और उत्साह, जो आज पन्द्रह साल से कुम्भकरण की भांति पड़ा सो रहा था, मानो नई स्फूर्ति पाकर उठ बैठा और अब उस दुर्बल काया में समा नहीं रहा है। उन्होंने इस तरह तम्बोली का हाथ पकड़ लिया, जैसे घनिष्ठ परिचय हो और बोले- ‘अच्छा, उनके लड़का भी है! कहां रहती है भाई, बता दो, तो जाकर सलाम कर आऊँ। बहुत दिनों तक उनका नमक खाया है।’

तम्बोली ने प्रमीला के घर का पता बता दिया। प्रमीला इसी मुहल्ले में रहती थी। सेठजी जैसे आकाश में उड़ते हुए यहाँ से आगे चले।

वह थोड़ी ही दूर गए थे कि ठाकुरजी का मंदिर दिखाई दिया। सेठजी ने मंदिर में जाकर प्रतिमा के चरणों पर सिर झुका दिया। उनके रोम-रोम से आस्था का स्रोत-सा बह रहा था। इस पन्द्रह वर्ष के कठिन प्रायश्चित्त में उनकी सन्तप्त आत्मा को अगर कहीं आश्रय मिला था, तो वह अशरण-शरण भगवान के चरण थे। उन पावन चरणों के ध्यान में ही उन्हें शान्ति मिलती थी। दिन-भर ऊख के कोल्हू में जुते रहने या फावड़े चलाने के बाद जब वह रात को पृथ्वी की गोद में लेटते, तो पूर्व स्मृतियाँ अपना अभिनय करने लगतीं। वह अपना विलासमय जीवन, जैसे रुदन करता हुआ उनकी आँखों के सामने आस जाता और उनके अन्त-करण से वेदना में डूबी हुई ध्वनि निकलती-ईश्वर! मुझ पर दया करो। इस दया-याचना में उन्हें एक ऐसी अलौकिक शान्ति और स्थिरता प्राप्त होती थी, मानो बालक माता की गोद में लेटा हो।

जब उनके पास सम्पत्ति थी, विलास के साधन थे, यौवन था, स्वास्थ्य था, अधिकार था, उन्हें आत्म-चिंतन का अवकाश न मिलता था। मन प्रवृत्ति ही की ओर दौड़ता है, अब इन स्मृतियों को खोकर इस दीनावस्था में उनका मन ईश्वर की ओर झुका। पानी पर जब तक कोई आवरण है, उसमें सूर्य का प्रकाश कहीं? वह मंदिर से निकले ही थे कि एक स्त्री ने उसमें प्रवेश किया। खूबचंद का हृदय उछल पड़ा। यह कुछ कर्तव्य-भ्रम से होकर एक स्तम्भ की आड़ में हो गए। यह प्रमीला थी।

इन पन्द्रह वर्षों में एक दिन भी ऐसा नहीं गया, जब उन्हें प्रमीला की याद न आयी हो। वह छाया उनकी आँखों में बसी हुई थी। आज उन्हें उस छाया और इस सत्य में कितना अन्तर दिखाई दिया। छाया पर समय का क्या असर हो सकता है। उस पर सुख-दुःख का बस नहीं चलता। सत्य तो इतना अभेद्य नहीं। उस छाया में वह सदैव प्रमोद का रूप देखा करते थे-आभूषण, मुस्कान और लज्जा से रंजित। इस सत्य में उन्होंने साधना का तेजस्वी रूप देखा, और अनुराग में डूबे हुए स्वर की भांति उनका हृदय थरथरा उठा। मन में ऐसा उद्गार उठा कि इसके चरणों पर गिर पड़ू और कहूँ- देवी! इस पतित का उद्धार करो किन्तु तुरन्त विचार आया- कहीं यह देवी मेरी उपेक्षा न करे। इस दशा में उनके सामने जाते उन्हें लज्जा आई। कुछ दूर चलने के बाद प्रमीला एक गली में मुड़ी। सेठजी भी उसके पीछे- पीछे चले जाते थे। आगे एक कई मंजिल की हवेली थी। सेठजी ने प्रमीला को उस चाल में घुसते देखा पर यह न देख सके कि वह किधर गई। द्वार पर खड़े- खड़े सोचने लगे-किससे पूछूं?

सहसा एक किशोर को भीतर से निकलते देखकर उन्होंने उसे पुकारा। युवक ने उनकी ओर चुभती हुई आंखों से देखा और तुरन्त उनके चरणों पर गिर पड़ा। सेठजी का कलेजा धक से हो उठा। यह तो गोपी था, केवल उम्र में उससे कम। वही रूप था, वही डौल था, मानो वह कोई नया जन्म, लेकर आ गया हो। उनका सारा शरीर एक विचित्र भय से। सिहर उठा।

कृष्णचन्द्र ने एक क्षण में उठकर कहा- ‘हम तो आज आपकी प्रतीक्षा कर रहे थे। बंदर पर जाने के लिए गाड़ी लेने जा रहा था। आपको तो यहाँ आने में बड़ा कष्ट हुआ होगा। आइए, अंदर आइए। मैं आपको देखते ही पहचान गया। कहीं भी देखकर पहचान जाता।’

खूबचंद उसके साथ भीतर चले तो, मगर उनका मन जैसे अतीत के काँटों में उलझ रहा था! गोपी की सूरत क्या वह कभी भूल सकते थे? इस चेहरे को उन्होंने कितनी ही बार स्वप्न में देखा था। वह कांड उनके जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना थी, और आज एक युग बीत जाने पर भी, उनके पथ में उसी भांति अटल खड़ा था।

एकाएक कृष्णचन्द्र जीने के पास रुककर बोला- ‘जाकर अम्मा से कह आऊँ, दादा आ गए।’ आपके लिए नए-नए कपड़े बने रखे हैं।

खूबचंद ने पुत्र के मुख का इस तरह चुंबन किया, जैसे वह शिशु हो और उसे गोद में उठा लिया। वह उसे लिये जीने पर चढ़े जाते थे। यह मनोल्लास की शक्ति थी।

तीस साल से व्याकुल पुत्र-लालसा, यह पदार्थ पाकर, जैसे उस पर न्यौछावर हो जाना चाहती है। जीवन नई-नई अभिलाषाओं को लेकर उन्हें सम्मोहित कर रहा है। इस रत्न के लिए वह ऐसी-ऐसी कितनी ही यातनाएँ सहर्ष झेल सकते थे। अपने जीवन में उन्होंने जो कुछ अनुभव के रूप में कमाया था, उसका तत्त्व वह अब कृष्णचन्द्र के मस्तिष्क में भर देना चाहते हैं। उन्हें यह अरमान नहीं है कि कृष्णचन्द्र धन का स्वामी हो, चतुर हो, यशस्वी हो बल्कि दयावान हो, नम्र हो, श्रद्धालु हो। ईश्वर की दया में अब उन्हें असीम विश्वास है, नहीं तो उन जैसा अधम व्यक्ति क्या इस योग्य था कि इस कृपा का पात्र बनता? और प्रमीला तो साक्षात् लक्ष्मी है।

कृष्णचन्द्र भी पिता को पाकर निहाल हो गया। अपनी सेवाओं से मानो उनके अतीत को भुला देना चाहता है। मानो पिता की सेवा ही के लिए उसका जन्म हुआ है। मानो वह पूर्वजन्म का कोई ऋण चुकाने के लिए ही संसार में आया है। आज सेठजी को आए सातवां दिन है। संध्या का समय है। सेठजी संध्या करने जा रहे हैं कि गोपीनाथ की लड़की बिन्नी ने आकर प्रमीला से कहा- ‘माताजी, अम्मा का जी अच्छा नहीं है। भैया को बुला रही हैं।’

प्रमीला ने कहा- ‘आज तो वह न जा सकेगा। उसके पिता आ गए हैं, उनसे बातें कर रहा है।’

कृष्णचन्द्र ने दूसरे कमरे में उसकी बातें सुन लीं। तुरन्त आकर बोला- ‘नहीं अम्मा, मैं दादा से पूछकर जरा देर के लिए चला जाऊंगा।’

प्रमीला ने बिगड़ कर कहा- ‘तू कहीं जाता है तो तुझे घर की सुध ही नहीं रहती। न जाने उन सभी ने तुझे क्या बूटी सुंघा दी है।’

‘मैं बहुत जल्द चला आऊंगा अम्मा, तुम्हारे पैरों पड़ता हूँ।’

‘तू भी केसा लड़का है! वह बेचारे अकेले बैठे हुए हैं और तुझे वहाँ जाने की पड़ी हुई है।’

सेठजी ने भी ये बातें सुनी। आकर बोले- ‘क्या हर्ज है, जल्दी आने को कह रहे हैं तो जाने दो।’

कृष्णचन्द्र प्रसन्नचित्त बिन्नी के साथ चला गया। एक क्षण के बाद प्रमीला ने कहा- ‘जब से मैंने गोपी की तस्वीर देखी है, मुझे नित्य शंका बनी रहती है कि न जाने भगवान क्या करने वाले हैं। बस यही मालूम होता है।’

सेठजी ने गम्भीर स्वर में कहा- ‘मैं भी तो पहली बार इसे देखकर चकित रह गया था। जान पड़ा, गोपीनाथ ही खड़ा है।’