daamul ka kaidee by munshi premchand
daamul ka kaidee by munshi premchand

सेठजी की मोटर जितनी तेजी से जा रही थी, उतनी ही तेजी से उनकी आँखों के सामने आहत गोपी का छायाचित्र भी दौड़ रहा था। भांति-भांति की कल्पनाएँ मन में आने लगीं। अपराधी भावनाएँ चित्त को आंदोलित करने लगीं। अगर गोपी उसका शत्रु था, तो उसने क्यों उनकी जान बचाई-ऐसी दशा में, जब वह स्वयं मृत्यु के पँजे में था? इसका उनके पास कोई जवाब न था। निरपराध गोपी, जैसे हाथ बाँधे उनके सामने खड़ा कह रहा था- ‘आपने मुझ बेगुनाह को क्यों मारा?’

भोग-लिप्सा आदमी को स्वार्थांध बना देती है। फिर भी सेठजी की आत्मा अभी इतनी अभ्यस्त और कठोर न हुई थी कि एक निरपराध की हत्या करके उन्हें ग्लानि न होती। वह सौ-सौ युक्तियों से मन को समझाते थे लेकिन न्याय- बुद्धि किसी युक्ति को स्वीकार न करती थी। जैसे यह धारणा उनके न्याय-द्वार पर बैठी सत्याग्रह कर रही थी और वरदान लेकर ही टलेगी। वह घर पहुँचे तो इतने दुःखी और हताश थे, मानो हाथों में हथकड़ियाँ पड़ी हों।

प्रमीला ने घबराई हुई आवाज में पूछा- ‘हड़ताल का क्या हुआ? अभी हो रही है या बंद हो गई? मजदूरों ने दंगा-फसाद तो नहीं किया? मैं तो बहुत डर रही थी।’ खूबचंद ने आरामकुर्सी पर लेटकर एक लम्बी साँस ली और बोले- ‘कुछ न पूछो, किसी तरह जान बच गई, बस यही समझ लो। पुलिस के आदमी तो भाग खड़े हुए, मुझे लोगों ने घेर लिया। किसी तरह जान बचाकर भागा। जब मैं चारों तरफ से घिर गया, तो क्या करता, मैंने भी रिवाल्वर छोड़ दिया।’

प्रमीला भयभीत होकर बोली- ‘कोई जख्मी तो नहीं हुआ?’

‘वही गोपीनाथ जख्मी हुआ, जो मजदूरों की तरफ से मेरे पास आया करता था। उसका गिरना था कि एक हजार आदमियों ने मुझे घेर लिया। मैं दौड़कर रुई की गाठों पर चढ़ गया। जान बचने की कोई आशा न थी। मजदूर गाँठों में आग लगाने जा रहे थे।’

प्रमीला काँप उठी।

‘सहसा वही जख्मी आदमी उठकर मजदूरों के सामने आया और उन्हें समझाकर मेरी प्राण रक्षा की। वह न आ जाता, तो मैं किसी तरह जीता न बचता।’

‘ईश्वर ने बड़ी कुशल की। इसलिए मैं मना कर रही थी कि अकेले न जाओ। उस आदमी को लोग अस्पताल ले गए होंगे?’

सेठजी ने शोक-भरे स्वर में कहा, ‘मुझे भय है कि वह मर गया होगा। जब मैं मोटर पर बैठा, तो मैंने देखा, वह गिर पड़ा और बहुत से आदमी उसे घेरकर खड़े हो गए। न जाने उसकी क्या दशा हुई।’

प्रमीला उन देवियों में थी, जिनकी नसों में रक्त की जगह श्रद्धा बहती है। स्नान-पूजा, तप और व्रत, यही उसके जीवन के आधार थे। सुख में, दुःख में, बीमारी में, आराम में, उपासना ही उसका कवच थी। इस समय भी उस पर संकट आ पड़ा। ईश्वर के सिवा कौन उसका उद्धार करेगा! वह वहीं खड़ी द्वार की ओर ताक रही थी और उसका धर्मनिष्ठ मन ईश्वर के चरणों में गिरकर क्षमा की भिक्षा माँग रहा था।

सेठजी बोले- ‘यह मजदूर उस जन्म का कोई महान पुरुष था। नहीं तो जिस आदमी ने उसे मारा, उसी की प्राण रक्षा के लिए क्या इतनी तपस्या करता।’

प्रमीला श्रद्धा-भाव से बोली- ‘भगवान की प्रेरणा, और क्या? भगवान की दया होती है, तभी हमारे मन में सद्विचार भी आते हैं।’

सेठजी ने जिज्ञासा की- ‘तो फिर बुरे विचार भी ईश्वर की प्रेरणा ही से आते होंगे?’

प्रमीला तत्परता के साथ बोली- ‘ईश्वर आंनदस्वरूप हैं। दीपक से कभी अन्धकार नहीं निकल सकता।’

सेठजी कोई जवाब सोच ही रहे थे कि बाहर शोर सुनकर चौंक पड़े। दोनों ने सड़क की तरफ की खिड़की खोलकर देखा, तो हजारों आदमी काली झण्डियाँ लिए दाहिनी तरफ से उगाते दिखाई दिए। झंडियों के बाद एक अर्थी थी, जिस पर फूलों की वर्षा हो रही थी। अर्थी के पीछे जहाँ तक निगाह जाती थी, सिर- ही-सिर दिखाई देते थे। यह गोपीनाथ के जनाजे का जुलूस था। सेठजी तो मोटर पर बैठकर मिल से घर की ओर चले, उधर मजदूरों ने दूसरी मिलों में इस हत्याकाण्ड की सूचना भेज दी। दम-के-दम में सारे शहर में यह खबर बिजली की तरह दौड़ गई और कई जिले में हड़ताल हो गई। नगर में सनसनी फैल गई। किसी भीषण उपद्रव के भय से लोगों ने दुकानें बंद कर दी। यह जुलूस नगर के मुख्य स्थानों का चक्कर लगाता हुआ सेठ खूबचंद के द्वार पर आया है और गोपीनाथ के खून का बदला लेने पर तुला हुआ है। उधर पुलिस-अधिकारियों ने सेठजी की रक्षा करने का निश्चय कर लिया है, चाहे खून की नदी क्यों न बह जाए। जुलूस के पीछे सशस्त्र पुलिस के दो सौ जवान डबल मार्च से उपद्रवकारियों का दमन करते चले आ रहे हैं।

सेठजी अभी अपने कर्तव्य का निश्चय न कर पाए थे कि विद्रोहियों ने कोठी के दफ्तर में घुसकर लेन-देन के बही-खातों को जलाना और तिजोरियों को तोड़ना शुरू कर दिया। मुनीम और अन्य कर्मचारी तथा चौकीदार सब-के-सब अपनी जान लेकर भागे। उसी वक्त बायीं ओर से पुलिस आ धमकी और पुलिस कमिश्नर ने विद्रोहियों को पाँच मिनट के अंदर वहाँ से भाग जाने का हुक्म दे दिया। समूह ने एक स्वर से पुकारा- ‘गोपीनाथ की जय!’

एक घंटा पहले अगर ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हुई होती, तो सेठजी ने बड़ी निश्चिंतता से उपद्रवकारियों को पुलिस की गोलियों का निशाना बनने दिया होता लेकिन गोपीनाथ के उस देवोपम सौजन्य और आत्मसमर्पण ने जैसे उनके मन- स्थित विकारों का शमन कर दिया था और अब साधारण औषधि भी उन पर रामबाण का-सा चमत्कार दिखाती थी।

उन्होंने प्रमीला से कहा- ‘मैं जाकर सबके सामने अपना अपराध स्वीकार कर लेता हूँ नहीं तो मेरे पीछे न जाने कितने घर मिट जाएँगे।’

प्रमीला ने काँपते हुए स्वर में कहा- ‘वहीं खिड़की में आदमियों को क्यों नहीं समझा देते? वे जितनी मजदूरी बढ़ाने को कहते हों, बढ़ा दो।’

‘इस समय तो उन्हें मेरे रक्त की प्यास। है। मजदूरी बढ़ाने का उन पर कोई असर न होगा।’

सजल नेत्रों से देखकर प्रमीला बोली- ‘तब तो तुम्हारे ऊपर हत्या का अभियोग चल जाएगा।’

सेठजी ने धीरता से कहा- ‘भगवान की यही इच्छा है, तो हम क्या कर सकते हैं? एक आदमी का जीवन इतना मूल्यवान नहीं है कि उसके लिए असंख्य जानें ली जाए।’