daamul ka kaidee by munshi premchand
daamul ka kaidee by munshi premchand

प्रमीला को मालूम हुआ, साक्षात भगवान् सामने खड़े हैं। वह पति के गले से लिपटकर बोली- ‘मुझे क्या कहे जाते हो?’

सेठजी ने उसे गले लगाते हुए कहा- ‘भगवान तुम्हारी रक्षा करेंगे।’ उनके मुख से और कोई शब्द न निकला। प्रमीला की हिचकियाँ बँधी हुई थी। उसे रोता छोड़कर सेठजी नीचे उतरे।

वह सारी संपत्ति, जिसके लिए उन्होंने, जो कुछ न करना चाहिए, वह भी किया जिसके लिए खुशामद की, छल किया, अन्याय किए, जिसे वह अपने जीवन- तप का वरदान समझते थे, आज कदाचित् सदा के लिए उनके हाथ से निकली जाती थी पर उन्हें जरा भी खेद न था। वह जानते थे, उन्हें डामुल की सजा होगी, यह सारा कारोबार चौपट हो जाएगा, यह संपत्ति धूल में मिल जाएगी, कौन जाने प्रमीला से फिर भेंट होगी या नहीं, कौन मरेगा, कौन जिएगा, कौन जानता है? मानो वह स्वेच्छा से यमदूतों का आवाहन कर रहे हों। और वही वेदनामय विवशता, जो हमें मृत्यु के समय दबा लेती है, उन्हें भी दबाए हुए थी।

प्रमीला उनके साथ-ही-साथ नीचे तक आई। वह उनके साथ उस समय तक रहना चाहती थी, जब तक जनता उसे पृथक् न कर दे, लेकिन सेठजी उसे छोड़कर जल्दी से बाहर निकल गए और वह खड़ी रोती रह गई।

बलि पाते ही विद्रोह का पिशाच शांत हो गया। सेठजी एक सप्ताह हवालात में रहे। फिर उन पर अभियोग चलने लगा। बम्बई के सबसे नामी बैरिस्टर गोपी उनकी तरफ से पैरवी कर रहे थे। मजदूरों ने चंदे से अपना धन एकत्र किया था और यहाँ तक तुले हुए थे कि अगर अदालत से सेठजी बरी भी हो जाए, तो उनकी हत्या कर दी जाए। नित्य इजलास में कई हजार कुली जमा रहते। अभियोग सिद्ध ही था। मुलजिम ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया था। उसके वकीलों ने उसके अपराध को हलका करने की दलीलें पेश कीं। फैसला यह हुआ कि चौदह साल का कालापानी हो गया।

सेठजी के जाते ही मानो लक्ष्मी रूठ गई, जैसे उस विशालकाय वैभव की आत्मा निकल गई हो। साल-भर के अन्दर उस वैभव का कंकाल मात्र रह गया। मिल तो पहले ही बंद हो चुकी थी। लेना-देना चुकाने पर कुछ न बचा। यहाँ तक कि रहने का घर भी हाथ से निकल गया। प्रमिला के पास लाखों के आभूषण थे। वह चाहती, तो उन्हें सुरक्षित रख सकती थी, पर त्याग की धुन में उन्हें भी निकाल फेंका। सातवें महीने में जब उसके पुत्र का जन्म हुआ, तो वह छोटे से किराए के घर में थी। पुत्र-रत्न पाकर अपनी सारी विपत्ति भूल गई। कुछ दुःख था तो यही कि पतिदेव होते, तो इस समय कितने आनंदित होते।

प्रमीला ने किन कष्टों को झेलते हुए पुत्र का पालन किया, इसकी कथा लम्बी है। सब कुछ सहा, पर किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया। जिस तत्परता से उसने देने चुकाए थे, उससे लोगों की उस पर भक्ति हो गई थी। कई सज्जन तो उसे कुछ मासिक सहायता देने पर तैयार थे लेकिन प्रमीला ने किसी का एहसान न लिया! भले घरों की महिलाओं से उसका परिचय था ही । वह घरों में स्वदेशी वस्तुओं का प्रचार करके गुजर-बसर को कमा लेती थी। जब तक बच्चा दूध पीता था, उसे अपने काम में बड़ी कठिनाई पड़ी लेकिन दूध छुड़ा देने के बाद वह बच्चे को दाई को सौंपकर आप काम करने चली जाती थी। दिन-भर के कठिन परिश्रम के बाद जब वह संध्या समय घर आकर बालक को गोद में उठा लेती, तो उसका मन हर्ष से उन्मत्त होकर पति के पास उड़ जाता, जो न जाने किस दशा में काले कोसों पड़ा था। उसे अपनी सम्पत्ति के लुट जाने का लेश मात्र भी दुःख नहीं है। उसे केवल उतनी ही लालसा है कि स्वामी कुशल से लौट आएँ और बालक को देखकर अपनी आंखें शीतल करें। फिर तो वह इस दरिद्रता में भी सुखी और सन्तुष्ट रहेगी। वह नित्य ईश्वर के चरणों में सिर झुकाकर स्वामी के लिए प्रार्थना करती है। उसे विश्वास है, ईश्वर जो कुछ करेंगे, उससे उसका कल्याण ही होगा। ईश्वर- वन्दना में वह अलौकिक धैर्य-साहस और जीवन का सहारा पाती है। प्रार्थना ही अब उसकी आशाओं का आधार है।

पन्द्रह साल की विपत्ति के दिन आशा की छाँह में कट गए।

संध्या का समय है। किशोर कृष्णचन्द्र अपनी माता के पास मन मारे बैठा हुआ है। वह माँ-बाप, दोनों में से एक को भी नहीं पड़ा।प्रमीला ने पूछा- ‘क्यों बेटा, तुम्हारी परीक्षा तो समाप्त हो गई?’

बालक ने गिरे हुए मन से जवाब दिया- ‘हाँ अम्मा, हो गई, लेकिन मेरे परचे अच्छे नहीं हुए । मेरा मन पढ़ने में नहीं लगता।’

यह कहते-कहते उसकी आंखें डबडबा आई। प्रमीला ने स्नेह-भरे स्वर में कहा- ‘यह तो अच्छी बात नहीं है बेटा, तुम्हें पढ़ने में मन लगाना चाहिए।’

बालक सजल नेत्रों से माता को देखता हुआ बोला- ‘मुझे बार-बार पिताजी की याद आती रहती है। वह तो अब बहुत बूढ़े हो गए होंगे।’ मैं सोचा करता हूँ कि वह आएँगे, तो तन-मन से उनकी सेवा करूंगा। इतना बड़ा उत्सर्ग किसने किया होगा अम्मा? उन पर लोग उन्हें निर्दयी कहते हैं। मैंने गोपीनाथ के बाल बच्चों का पता लगा लिया अम्मा! उनकी घरवाली है, माता हैं और एक लड़की है, जो मुझसे दो साल बड़ी है। माँ-बेटी दोनों उसी मिल में काम करती हैं। दादी बहुत बूढ़ी हो गई है।’

प्रमीला ने विस्मित होकर कहा- ‘तुझे उनका पता कैसे चला बेटा?

कृष्णचन्द्र प्रसन्नचित्त होकर बोला- ‘मैं आज उस मिल में चला गया था। मैं उस स्थान को देखना चाहता था, जहाँ मजदूरों ने पिताजी को घेरा था और वह स्थान भी, जहाँ गोपीनाथ गोली खाकर गिरा था पर उन दोनों में एक स्थान भी न रहा। वहाँ इमारतें बन गईं है। मिल का काम बड़े जोर से चल रहा है। मुझे देखते ही बहुत से आदमियों ने मुझे घेर लिया। सब यही कहते थे कि तुम भैया गोपीनाथ का रूप धर कर आए हो। मजदूरों ने वहाँ गोपीनाथ की एक तस्वीर लटका रखी है। उसे देखकर चकित हो गया अम्मा, जैसे मेरी ही तस्वीर हो, केवल शक्ल का अन्तर है। जब मैंने गोपी की स्त्री के बारे में पूछा, तो एक आदमी दौड़कर उसकी स्त्री को बुला लाया। वह मुझे देखते ही रोने लगी। और न जाने क्यों मुझे भी रोना आ गया। बेचारी स्त्रियाँ बड़े कष्ट में है। मुझे तो उनके ऊपर ऐसी दया आती है कि उनकी कुछ मदद करूँ।’

प्रमीला को शंका हुई, लड़का इन झगड़ों में पड़कर पढ़ना न छोड़ बैठे। बोलीं- ‘अभी तुम उनकी क्या मदद कर सकते हो बेटा? धन होता तो कहती, दस-पाँच रुपए महीना दे दिया करो, लेकिन घर का हाल तो तुम जानते ही हो। अभी मन लगाकर पढ़ो। जब तुम्हारे पिताजी आ जाएं, तो जो इच्छा हो वह करना।’

कृष्णचन्द्र ने उस समय कोई जवाब न दिया, लेकिन आज से उसका नियम हो गया कि स्कूल से लौटकर एक बार गोपी के परिवार को देखने अवश्य जाता। प्रमीला उसे जेब-खर्च के लिए जो पैसे देती, उसे उन अनाथों ही पर खर्च करता। कभी कुछ फल ले लिये, कभी साग-भाजी ले ली।

एक दिन कृष्णचन्द्र को घर आने में देर हुई, तो प्रमीला बहुत घबरायी। पता लगाती हुई विधवा के घर पहुँची, तो देखा-एक तंग गली में, एक सीले- सड़े हुए मकान में गोपी की स्त्री एक खाट पर पड़ी है और कृष्णचन्द्र खड़ा उसे पंखा झल रहा है। माता को देखते ही बोला- ‘मैं अभी घर न जाऊंगा अम्मा, देखो, काकी कितनी बीमार है। दादी को कुछ सूझता नहीं, बिन्नी खाना पका रही है। इनके पास कौन बैठे?’

प्रमीला ने खिन्न होकर कहा- ‘अब तो अँधेरा हो गया, तुम यहाँ कब तक बैठे रहोगे। अकेला घर मुझे भी तो अच्छा नहीं लगता। इस वक्त चलो। सवेरे फिर आ जाना।’ रोगिणी ने प्रमीला की आवाज सुनकर आंखें खोल दी और मंद स्वर में बोली- ‘आओ माताजी, बैठो। मैं तो भैया से कह रही थी, देर हो रही है, अब घर जाओ पर यह गये ही नहीं। मुझ अभागिनी पर इन्हें न जाने क्यों इतनी दया आती है। अपना लड़का भी इससे अधिक मेरी सेवा नहीं कर सकता।’

चारों ओर से दुर्गंध आ रही थी। उमस ऐसी थी कि दम घुट जाता था। उस बिल में हवा किधर से आती? पर कृष्णचंद्र ऐसा प्रसन्न था, मानों कोई परदेशी चारों ओर से ठोकरें खाकर अपने घर में आ गया हो।

प्रमीला ने इधर-उधर निगाह दौड़ाई तो एक दीवार पर उसे एक तस्वीर दिखायी दी। उसने समीप जाकर उसे देखा तो उसकी छाती धक् से हो उठी। बेटे की ओर देखकर बोली- ‘तूने यह चित्र कब खिंचवाया बेटा?’

कृष्णचंद्र मुस्कराकर बोला- ‘यह मेरा चित्र नहीं है अम्मा, गोपीनाथ का चित्र है।’

प्रमीला ने अविश्वास से कहा- ‘चल झूठा कहीं का।’

रोगिणी ने कातर भाव से कहा- ‘नहीं अम्मा जी, वह मेरे आदमी ही का चित्र है। भगवान की लीला कोई नहीं जानता पर भैया की सूरत इतनी मिलती है कि मुझे अचरज होता है। जब मेरा ब्याह हुआ था, तब उनकी यही उम्र थी और सूरत भी बिलकुल यही। यही हंसी थी, यही बातचीत और यही स्वभाव। क्या रहस्य है, मेरी समझ में नहीं आता? माताजी, जबसे यह आने लगे हैं, कह नहीं सकती मेरा जीवन कितना सुखी हो गया। इस मोहल्ले में सब हमारे जैसे ही मजदूर रहते हैं। उन सबके साथ यह लड़कों की तरह रहते हैं। सब इन्हें देखकर निहाल हो जाते हैं।’

प्रमीला ने कोई जवाब न दिया। उसके मन पर एक अव्यक्त शंका छायी थी, मानों उसने कोई बुरा सपना देखा हो। उसके मन में बार-बार एक प्रश्न उठ रहा था जिसकी कल्पना ही से उसके रोयें खड़े हो जाते थे।

सहसा उसने कृष्णचंद्र का हाथ पकड़ लिया और बल पूर्वक खींचती हुई द्वार की ओर चली, मानों कोई उसे उसके हाथों से छीने लिए जाता हो।

रोगिणी ने केवल इतना कहा- ‘माताजी, कभी-कभी भैया को मेरे पास आने दिया करना, नहीं तो मैं मर जाऊंगी।’