kaanoonee kumar by munshi premchand
kaanoonee kumar by munshi premchand

मि. कानूनी कुमार, एम.एल.ए. अपने ऑफिस में समाचार पत्रों, पत्रिकाओं और रिपोर्टों का एक ढेर लिये बैठे हैं। देश की चिंताओं से उनकी देह स्थूल हो गई है, सदैव देशोद्धार की फिक्र में पड़े रहते हैं। सामने पार्क है। उसमें कई लड़के खेल रहे हैं। कुछ परदेवाली स्त्रियाँ भी हैं। फेसिंग के सामने बहुत से भिखमंगे बैठे हुए हैं। एक चाय वाला एक वृक्ष के नीचे चाय बेच रहा है।

कानूनी कुमार-(आप-ही-आप) देश की दशा कितनी खराब होती चली जाती है। गवर्नमेंट कुछ नहीं करती। बस, खाना और मौज उड़ाना उसका काम है। (पार्क की ओर देखकर) आह! यह कोमल कुमार सिगरेट पी रहे हैं। शोक! महाशोक! कोई कुछ नहीं कहता, कोई इसको रोकने की कोशिश भी नहीं करता। तम्बाकू कितनी जहरीली चीज है, बालकों को इससे कितनी हानि होती है, यह कोई नहीं जानता। (तम्बाकू की रिपोर्ट देखकर) ओफ्फ। रोंगटे खड़े हो जाते हैं। जितने बालक अपराधी होते हैं, उनमें 75 प्रति सैकड़े सिगरेट बाज होते हैं। बड़ी भयंकर दशा है। हम क्या करें? लाख स्पीचें दो, कोई सुनता ही नहीं। इसको कानून से रोकना चाहिए, नहीं तो अनर्थ हो जाएगा। (कागज पर नोट करता है) तम्बाकू-बहिष्कार बिल पेश करूंगा। काउंसिल खुलते ही यह बिल पेश कर देना चाहिए।

(एक क्षण के बाद फिर पार्क की ओर ताकता है, और पहरेदार महिलाओं को घास पर बैठे देखकर लम्बी साँस लेता है।)

गजब है, गजब है, कितना घोर अन्याय! कितना पाशविक व्यवहार!! यह कोमलाँगी सुंदरियां चादर में लिपटी कितनी भद्दी कितनी फूहड़ होती हैं। तभी तो देश का यह हाल हो रहा है। (रिपोर्ट देखकर) स्त्रियों की मृत्यु-संख्या बढ़ रही है, तपेदिक उछलता चला आता है। प्रसूत की बीमार आँधी की तरह चली आती है, और हम हैं कि आँखें बंद किए पड़े हैं। बहुत जल्द ऋषियों की यह भूमि, यह वीर-प्रसविनी जननी रसातल को चली जाएगी, इसका कहीं निशान भी न रहेगा! गवर्नमेंट को क्या फिक्र! लोग कितने पाषाण हो गए हैं। आँखों के सामने यह अत्याचार देखते हैं और जरा भी नहीं चौंकते। यह मृत्यु का शैथिल्य है। यहाँ भी कानून की जरूरत है। एक ऐसा कानून बनना चाहिए, जिससे कोई स्त्री परदे में न रह सके। अब समय आ गया है कि इस विषय में सरकार कदम बढ़ाए। कानून की मदद के बगैर कोई सुधार नहीं हो सकता, और यहाँ कानूनी मदद की जितनी जरूरत है, उतनी और कहीं हो सकती है? माताओं पर देश का भविष्य अवलंबित है। परदा-हटाव बिल पेश होना चाहिए। जानता हूँ बड़ा कड़ा विरोध होगा, लेकिन गवर्नमेंट को साहस से काम लेना चाहिए। ऐसे नपुंसक विरोध के भय से उद्धार के कार्य में बाधा नहीं पड़नी चाहिए। (कागज पर नोट करता है) यह बिल भी असेंबली के खुलते ही पेश कर देना होगा। बहुत विलम्ब हो चुका, अब विलम्ब की गुंजाइश नहीं है, वरना मरीज का अंत हो जाएगा।

(मसौदा बनाने लगता है- हेतु और उद्देश्य…)

सहसा एक भिक्षुक सामने आकर पुकारता है- जय हो सरकार, लक्ष्मी फूलें फलें….

कानूनी -हट जाओ, यू सुअर, कोई काम क्यों नहीं करता?

भिक्षुक- धर्म बड़ा होगा सरकार, मारे भूख के आंखों-तले अँधेरा

कानूनी- चुप रहो सुअर, हट जाओ सामने से, अभी निकल जाओ, बहुत दूर निकल जाओ।

(मसौदा छोड़कर फिर आप-ही-आप)

यह ऋषियों की भूमि आज भिक्षुओं की भूमि हो रही है। जहाँ देखिए, वहाँ रेबड़-के-रेबड़ और दल-के-दल भिखारी। यह गवर्नमेंट की लापरवाही की बरकत हैं, इंग्लैंड में कोई भिक्षुक भीख नहीं माँग सकता। पुलिस पकड़कर काल-कोठरी में बंद कर दे। किसी सभ्य देश में इतने भिखमंगे नहीं हैं। यह पराधीन गुलाम भारत है, जहाँ ऐसी बातें इस बीसवीं सदी में भी सम्भव हैं। उफ! शक्ति का कितना अपव्यय हो रहा है (रिपोर्ट निकालकर) ओह! 50 लाख! 50 लाख आदमी केवल भिक्षा माँगकर गुजर करते हैं और क्या ठीक है कि संख्या इसकी दुगुनी न हो। यह पेशा लिखाना कौन पसंद करता है? एक करोड़ से कम भिखारी इस देश में नहीं हैं। यह तो भिखारियों की बात हुई, जो द्वार-द्वार झोली लिये घूमते हैं। इसके उपरांत टीकाधारी, टोपीधारी और जटाधारी समुदाय भी तो हैं, जिनकी संख्या कम-से-कम दो करोड़ होगी। जिस देश में इतने हरामखोर, मुफ्त का माल उड़ाने वाले, दूसरों की कमाई पर मोटे होने वाले प्राणी हो, उसकी दशा क्यों न इतनी हीन हो। आश्चर्य यही है कि अब तक यह देश जीवित कैसे है। (नोट करता है) एक बिल की सख्त जरूरत है, तुरंत पेश करना चाहिए- ‘नाम हो भिखमंगा- बहिष्कार-बिल।’ खूब जूतियाँ चलेंगी, धर्म के सूत्रधार खूब नाचेंगे, खूब गालियाँ देंगे, गवर्नमेंट भी कन्नी कटेगी, मगर सुधार का मार्ग तो कंटकाकीर्ण है ही । तीनों बिल मेरे ही नाम से हों, फिर देखिए, कैसी खलबली मचती है।

(आवाज आती है- चाय गरम! चाय गरम!! मगर ग्राहकों की संख्या बहुत कम है। कानूनी कुमार का ध्यान चाय वाले की ओर आकर्षित हो जाता)

कानूनी-(आप-ही-आप) चाय वाले की दुकान पर एक भी ग्राहक नहीं, कैसा मूर्ख देश है! इतनी बल-वर्धक वस्तु! और ग्राहक कोई नहीं। सभ्य देशों में पानी की जगह चाय पी जाती है। रिपोर्ट देखकर) इंग्लैंड में पाँच करोड़ पौंड की चाय पी जाती है। इंग्लैंड वाले मूर्ख नहीं हैं। उनका आज संसार पर आधिपत्य है, इसमें चाय का कितना बड़ा भाग है, कौन इसका अनुभव कर सकता है। यहाँ बेचारा चाय वाला खड़ा है, और कोई उसके पास नहीं फटकता। चीन वाले चाय पी-पीकर स्वाधीन हो गए; मगर हम चाय न पिएँगे। क्या अकल है! गवर्नमेंट का सारा दोष है। कीटों से भरे हुए दूध के लिए इतना शोर मचता है, अगर चाय को कोई नहीं पूछता, जो कीटों से खाली, उत्तेजक और पुष्टिकारक है, सारे देश की मत मारी गयी है। (नोट करता है) गवर्नमेंट से प्रश्न करना चाहिए। असेंबली खुलते ही प्रश्नों का ताँता बाँध दूंगा।

प्रश्न- क्या गवर्नमेंट बतायेगी की गत पाँच सालों में भारतवर्ष में चाय की खपत कितनी बढ़ी है, और उसका सर्वसाधारण में प्रचार करने के लिए गवर्नमेंट ने क्या कदम लिये हैं?

(एक रमणी का प्रवेश। कटे हुए केश, आड़ी माँग, पारसी रेशमी साड़ी, कलाई में घड़ी, आँखों में ऐनक, पाँव में ऊँची एड़ी का लेडी शू, हाथ में एक बटुआ लटकाए हुए, साड़ी में ब्रूच है, गले में मोतियों का हार)

कानूनी-(हाथ बढ़ाकर) हैलो मिसेज बोस! आप खूब आई। कहिए, किधर की सैर हो रही है? अबकी तो ‘आलोक’ में आपकी कविता बड़ी सुंदर थी। मैं तो पढ़कर मस्त हो गया। हरा नन्हे से हृदय में इतने भाव कहां से आ जाते हैं, मुझे आश्चर्य होता है। शब्द-विन्यास की तो आप रानी हैं। ऐसे-ऐसे चोट करने वाले भाव आपको कैसे सूझ जाते हैं?

मिसेज बोस- दिल जलता है, तो उसमें आप-से-आप धुएँ के बादल निकलते हैं। जब तक स्त्री-समाज पर पुरुषों का यह अत्याचार रहेगा, ऐसे भावों में कमी न रहेगी।

कानूनी- क्या इधर कोई नई बात हो गई?

बोस- रोज ही तो होती रहती है। मेरे लिए डॉक्टर बोस की आज्ञा नहीं कि किसी से मिलने जाओ, या कहीं सैर करने जाओ। अबकी कैसी गरमी पड़ी है कि सारा रक्त जल गया, पर मैं पहाड़ों पर न जा सकी। मुझसे यह अत्याचार, यह गुलामी नहीं सही जाती।

कानूनी- डॉक्टर बोस खुद भी तो पहाड़ों पर नहीं गए।

बोस- वह न जाए, उन्हें धन की हाय-हाय पड़ी है। मुझे क्यों अपने साथ लिये मरते हैं? वह क्लब में नहीं जाना चाहते, उनका समय रुपए उगलता है, मुझे क्यों रोकते हैं? वह खद्दर पहनें, मुझे क्यों अपने पसंद के कपड़े पहनने से रोकते हैं? वह अपनी माता और भाइयों के गुलाम बने रहें, मुझे क्यों उनके साथ रो-रोकर दिन काटने पर मजबूर करते हैं? मुझसे यह बर्दाश्त नहीं हो सकता। अमेरिका में एक कटुवचन कहने पर संबंध-विच्छेद हो जाता है। पुरुष जरा देर से घर आया और स्त्री ने तलाक दिया। वह स्वाधीनता का देश है, वहाँ लोगों के विचार स्वाधीन हैं। यह गुलामों का देश है, यहाँ हर एक बात में उसकी गुलामी की छाप है। मैं अब डॉक्टर बोस के साथ नहीं रह सकती। नाकों दम आ गया। इसका उत्तरदायित्व उन्हीं लोगों पर है, जो समाज के नेता और व्यवस्थापक बनते हैं। अगर आप चाहते हैं कि स्त्रियों को गुलाम बनाकर स्वाधीन हो जाए, तो यह अनहोनी बात है। जब तक तलाक का कानून न जारी होगा, आपका स्वराज्य आकाश-कुसुम ही रहेगा। डॉक्टर बोरा को आप जानते हैं, धर्म में उनकी कितनी श्रद्धा है? खब्त कहिए। मुझे धर्म के नाम से घृणा है। इसी धर्म ने स्त्री-जाति को पुरुष की दासी बना दिया है। मेरा बस चले, तो मैं सारे धर्म की पोथियों को उठाकर परनाले में फेंक दूँ।

(मिसेज ऐयर का प्रवेश। गोरा रंग, ऊँचा कद, ऊँचा गाउन, गोल हाँडी की- सी टोपी, आँखों पर ऐनक, चेहरे पर पाउडर, गालों और होंठों पर सुर्ख पेंट, रेशमी जुराबें और ऊँची एड़ी के जूते)

कानूनी-(हाथ बढ़ाकर) हैलो मिसेज ऐयर! आप खूब आई। कहिए, किधर की सैर हो रही है? ‘आलोक’ में अबकी आपका लेख अत्यन्त सुन्दर था, मैं तो पढ़कर दंग रह गया।

मिसेज ऐयर- (मिसेज बोस की ओर मुस्कुराकर) दंग ही तो रह गए, या कुछ किया भी? हम स्त्रियाँ अपना कलेजा निकालकर रख दें, लेकिन पुरुषों का दिल न पसीजेगा।

मिसेज बोस- सत्य! बिलकुल सत्य!

मिसेज ऐयर- मगर इस पुरुष-राज का बहुत जल्द अंत हुआ जाता है। स्त्रियों अब कैद में नहीं रह सकतीं। मि. ऐयर की सूरत मैं नहीं देखना चाहती। (मिसेज बोस मुँह फेर लेती हैं।)

कानूनी-(मुस्कुराकर) मि. ऐयर तो खूबसूरत आदमी हैं।

लेडी ऐयर- उनकी सूरत उन्हें मुबारक रहे। मैं खूबसूरत पराधीनता नहीं चाहती, बदसूरत स्वाधीनता चाहती हूँ। वह मुझे अबकी जबरदस्ती पहाड़ पर ले गए। वहाँ की शीत मुझसे नहीं सही जाती। कितना कहा कि मुझे मत ले जाओ, मगर किसी तरह न माना। मैं किसी के पीछे-पीछे कुतिया की तरह नहीं चलना चाहती।

(मिसेज बोस उठकर खिड़की के पास चली जाती हैं।)

कानूनी- अब मुझे मालूम हो गया कि तलाक का बिल असेंबली में पेश करना पड़ेगा।

ऐयर- खैर, आपको मालूम तो हुआ, मगर पेश होगा शायद कयामत तक। नहीं मिसेज ऐयर, अबकी छुट्टियों के बाद ही यह बिल पेश होगा और धूमधाम के साथ पेश होगा। बेशक पुरुषों का अत्याचार बढ़ रहा है। जिस प्रथा का विरोध आप दोनों महिला कर रही हैं, वह अवश्य हिन्दू समाज के लिए घातक है। अगर हमें सभ्य बनना है, तो सभ्य देशों के पद-चिह्नों पर चलना पड़ेगा। धर्म के ठेकेदार चिल्ल-पों मचाएगें, कोई परवाह नहीं। उनकी खबर लेना आप दोनों महिलाओं का काम होगा। ऐसा बनाना कि मुँह न दिखा सकें।

लेडी ऐयर- पेशगी धन्यवाद देती हूँ। (हाथ मिलाकर चली जाती हैं।)

मिसेज बोस- (खिड़की के पास से आकर) आज इसके घर में घी का चिराग जलेगा। यहाँ से सीधे बोस के पास गयी होगी। मैं भी जाती हूँ। (चली जाती है) कानूनी कुमार एक कानून की किताब उठाकर उसमें तलाक-व्यवस्था देखने लगते हैं कि मि. आचार्य आते हैं। मुँह साफ, एक आँख पर ऐनक, खाकी आधे बाँह का शर्ट, निकर, ऊनी मोजे, लम्बे बूट। पीछे एक टेरियर कुत्ता भी है।

कानूनी- हैलो मि. आचार्य! आप खूब आए, आज किधर की सैर हो रही है? होटल का क्या हाल है?

आचार्य- कुत्ते की मौत मर रहा हूँ। इतना बढ़िया भोजन, इतना साफ सुथरा मकान, ऐसी रोशनी, इतना आराम, फिर भी मेहमानों का दुर्भिक्ष? समझ में नहीं आता, अब कितना निर्ख घटाऊँ। इन दामों अलग घर में मोटा खाना भी नसीब नहीं हो सकता। उस पर सारे जमाने की झंझट, कभी नौकर का रोना, कभी दूध वाले का रोना, कभी धोबी का रोना, कभी मेहतर का रोना; यहाँ सारे जंजाल से मुक्ति हो जाती है। फिर भी आधे कमरे खाली पड़े हैं।

कानूनी- यह तो आपने बुरी खबर सुनाई।

आचार्य- पश्चिम में क्यों इतना सुख और शान्ति है, क्यों इतना प्रकाश और धन है, क्यों इतनी स्वाधीनता और बल है? इन्हीं होटलों के प्रसाद से। होटल पश्चिमी गौरव का मुख्य अंग है, पश्चिमी सभ्यता का प्राण है। अगर आप भारत को उन्नति के शिखर पर देखना चाहते हैं, तो होटल-जीवन का प्रचार कीजिए। इसके अलावा दूसरा उपाय नहीं है। जब तक छोटी-छोटी घरेलू चिन्ताओं से मुक्त न हो जाएंगे, आप उन्नति कर ही नहीं सकते। राजाओं, रईसों को अलग घरों में रहने दीजिए, वह एक की जगह दस खर्च कर सकते हैं। मध्यम श्रेणी वालों के लिए होटल के प्रचार में ही सब कुछ है। हम अपने सारे मेहमानों की फिक्र अपने सिर लेने को तैयार हैं, फिर भी जनता की आँखें नहीं खुलती। इन मूर्खों की आँखें उस वक्त तक न खुलेंगी, जब तक कानून न बन जाएगा।

कानूनी-(गम्भीर भाव से) हां, मैं भी सोच रहा हूँ। जरूर कानून से मदद लेनी चाहिए। एक ऐसा कानून बन जाए कि जिन लोगों की आय 500 रु. से कम हो, वे होटलों में रहें । क्यों?

आचार्य- आप अगर यह कानून बनवा दें, तो आने वाली सन्तान आपको अपना मुक्तिदाता समझेगी। आप एक कदम में देश को 500 वर्ष की मंजिल तय करा देंगे।

कानूनी- तो लो, अब की यह कानून भी असेंबली खुलते ही पेश कर दूँगा। बढ़ा शोर मचेगा। लोग देश-द्रोही और जाने क्या-क्या कहेंगे पर इसके लिए तैयार हूँ। कितना दुःख होता है, जब लोगों को अहीर के द्वार पर लुटिया लिए खड़ा देखता हूँ। स्त्रियों का जीवन तो नरक-तुल्य हो रहा है। सुबह से दस-बारह बजे रात तक घर के धंधों से फुरसत नहीं। कभी बरतन मांजो, कभी भोजन बनाओ, कभी झाडू लगाओ। फिर स्वास्थ्य कैसे बने, जीवन कैसे सुखी हो, सैर कैसे करें, जीवन के आमोद-प्रमोद का आनंद कैसे उठाएं, अध्ययन कैसे करें? आपने खूब कहा, एक कदम में 500 सालों की मंजिल पूरी हुई जाती है।

आचार्य- तो अबकी बिल पेश कर दीजिएगा?