Riyasat Ka Diwan by Munshi Premchand
Riyasat Ka Diwan by Munshi Premchand

महाशय मेहता उन अभागों में थे, जो अपने स्वामी को प्रसन्न नहीं रख सकते थे। वह दिल से अपना काम करते थे और चाहते थे कि उनकी प्रशंसा हो। वह यह भूल जाते थे कि वह काम के नौकर तो हैं ही, अपने स्वामी के सेवक भी हैं। जब उनके अन्य सहकारी स्वामी के दरबार में हाजिरी देते थे, तो यह बेचारे दफ्तर में बैठे कागजों से सिर मारा करते थे। इसका फल यह था कि स्वामी के सेवक तो तरक्की पाते थे, पुरस्कार और पारितोषिक उड़ाते थे और काम के सेवक मेहता किसी-न-किसी अपराध में निकाल दिए जाते थे। ऐसे कटु अनुभव उन्हें अपने जीवन में कई बार हो चुके थे, इसलिए अबकी जब राजा साहब, सतिया ने उन्हें एक अच्छा पद प्रदान किया, तो उन्होंने प्रतिज्ञा की कि अब वह भी स्वामी का रुख देखकर काम करेंगे और उनके स्तुति-गान में ही भाग्य की परीक्षा करेंगे। और इस प्रतिज्ञा को उन्होंने कुछ इस तरह निभाया कि दो साल भी न गुजरे थे कि राजा साहब ने उन्हें अपना दीवान बना लिया।

एक स्वाधीन राज्य की दीवानी का क्या कहना। वेतन तो 200 रु. मासिक ही था, मगर अख्तियार बड़े लम्बे। राई का पर्वत करो या पर्वत से राई, कोई पूछने वाला नहीं था। राजा साहब भोग-विलास में पड़े रहते थे, राज्य-संचालन का सारा भार मि. मेहता पर था। रियासत के सभी अमले और कर्मचारी दण्डवत् करते, बड़े-बड़े रईस नजराना देते, यहाँ तक की रानियाँ भी उनकी खुशामद करतीं।

राजा साहब उग्र प्रकृति के मनुष्य थे, जैसे प्रायः राजा होते हैं। दुर्बलों के सामने कभी बिल्ली, कभी शेर; सबलों के सामने हमेशा भीगी बिल्ली। मि. मेहता को डाँट-फटकार भी बताते पर मेहता ने अपनी सफाई में एक शब्द भी मुँह से निकालने की कसम खा ली थी। सिर झुकाकर सुन लेते। राजा साहब की क्रोधाग्नि ईंधन न पाकर शान्त हो जाती।

गर्मियों के दिन थे। पोलिटिकल एजेण्ट का दौरा था। राज्य में उनके स्वागत की तैयारियाँ हो रही थीं। राजा साहब ने मेहता को बुलाकर कहा- ‘मैं चाहता हूँ साहब बहादुर यहाँ से मेरा कलमा पढ़ते हुए जायें।’

मेहता ने सिर झुकाकर विनीत भाव से कहा- ‘चेष्टा तो ऐसी ही कर रहा हूं, अन्नदाता।’

‘चेष्टा तो सभी करते हैं, मगर यह चेष्टा कभी सफल नहीं होती। मैं चाहता तुम दृढ़ता के साथ कहो- ऐसा ही होगा।’

‘ऐसा ही होगा।’

‘रुपये की परवाह मत करो।’

‘जो हुक्म।’

‘कोई शिकायत न आए, वरना तुम जानोगे।’

‘वह हुजूर को धन्यवाद देते जाएं तो सही।’

‘हां, मैं यही चाहता हूँ।’

‘जान लड़ा दूँगा, दीनबंधु।’

‘अब मुझे संतोष है।’

इधर तो पोलिटिकल एजेण्ट का आगमन था, उधर मेहता का लड़का जयकृष्ण गर्मियों की छुट्टियाँ मनाने माता-पिता के पास आया। किसी विश्वविद्यालय में पढ़ता था। एक बार 1932 में कोई उग्र भाषण करने के जुर्म में 6 महीने की सजा काट चुका था। मि. मेहता की नियुक्ति के बाद जब वह पहली बार आया था, तो राजा साहब ने उसे खास तौर पर बुलाया था, उससे जी खोलकर बातें की थीं, उसे अपने साथ शिकार खेलने ले गए और नित्य उसके साथ टेनिस खेला करते थे।

जयकृष्ण पर राजा साहब के साम्यवादी विचारों का बड़ा प्रभाव पड़ा था। उसे ज्ञात हुआ कि राजा साहब केवल देशभक्त ही नहीं, क्रान्ति के समर्थक भी हैं। रूस और फ्रांस की क्रान्ति पर दोनों में खूब बहस हुई थी, लेकिन अबकी यहाँ उसने कुछ और ही रंग देखा। रियासत के हर एक किसान और जमींदार से जबरन चंदा वसूल किया जा रहा था। पुलिस गाँव-गाँव चंदा उगाही फिरती थी। रकम दीवान साहब नियत करते थे। वसूल करना पुलिस का काम था। फरियाद की कहीं सुनवाई न थी। चारों ओर त्राहि-त्राहि मची हुई थी। हजारों मजदूर, सरकारी इमारतों, सजावट और सड़कों की मरम्मत में बेगार भर रहे थे। बनियों से डण्डों के जोर से रसद जमा की जा रही थी।

जयकृष्ण को आश्चर्य हो रहा था कि यह क्या हो रहा है। राजा साहब के विचार और व्यवहार में इतना अन्तर कैसे हो गया। कहीं ऐसा तो नहीं है कि महाराज को इन अत्याचारों की खबर ही न हो, या उन्होंने जिन तैयारियों का हुक्म दिया हो, उनकी तामील में कर्मचारियों ने अपनी कारगुजारी की धुन में यह अनर्थ कर डाला है। रात भर तो उसने किसी तरह जब्त किया। प्रात: काल उसने मेहताजी से पूछा- ‘आपने राजा साहब को इन अत्याचारों की सूचना नहीं दी?’

मेहताजी को स्वयं इस अनीति से ग्लानि हो रही थी। वह स्वभावतः दयालु मनुष्य थे लेकिन परिस्थितियों ने उन्हें अशक्त कर रखा था। दुखित स्वर में बोले- ‘राजा साहब का यही हुक्म है, तो क्या किया जाए?’

‘तो आपको ऐसी दशा में अलग हो जाना चाहिए था। आप जानते हैं, यह जो कुछ हो रहा है, प्रजा आप ही को अपराधी समझती है।’

‘मैं मजबूर हूँ। मैंने कर्मचारियों से बार-बार संकेत किया है कि यथासाध्य किसी पर सख्ती न की जाए लेकिन हरेक स्थान पर मैं मौजूद तो नहीं रह सकता। अगर प्रत्यक्ष रूप से हस्तक्षेप करूँ, तो शायद कर्मचारी लोग महाराज से मेरी शिकायत कर दें। ये लोग ऐसे ही अवसरों की ताक में रहते हैं। इन्हें तो जनता को लूटने का कोई बहाना चाहिए। जितना सरकारी कोष में जमा करते, उससे ज्यादा अपने घर में रख लेते हैं। मैं कुछ कर ही नहीं सकता।’

जयकृष्ण ने उत्तेजित होकर कहा- ‘आप इस्तीफा क्यों नहीं दे देते?’

मेहता लज्जित होकर बोले- ‘बेशक, मेरे लिए मुनासिब तो यही था लेकिन जीवन में इतने धक्के खा चुका हूँ कि अब और सहने की शक्ति नहीं रही। यह निश्चय है कि नौकरी कर के मैं अपने को बेदाग नहीं रख सकता। धर्म और अधर्म, सेवा और परमार्थ के झमेलों में पड़कर मैंने बहुत ठोकरें खायी । मैंने देख लिया कि दुनिया दुनियादारों के लिए है, जो अवसर और काल देखकर काम करते हैं। सिद्धांतवादियों के लिए अनुकूल स्थान नहीं है।’

जयकृष्ण ने तिरस्कार भरे स्वर में पूछा- ‘मैं राजा साहब के पास जाऊँ?’

‘क्या तुम समझते हो, राजा साहब से यह बातें छिपी हैं?’

‘सम्भव है, प्रजा की दुःख-कथा सुनकर उन्हें कुछ दया आ जाए।’

मि. मेहता को इसमें क्या आपत्ति हो सकती थी? वह तो खुद चाहते थे कि किसी तरह अन्याय का बोझ उनके सिर से उतर जाए। हां यह भय अवश्य था कि कहीं जयकृष्ण की सत्प्रेरणा उनके लिए हानिकारक न हो, और कहीं उन्हें इस सम्मान और अधिकार से हाथ न धोना पड़े। बोले- ‘यह खयाल रखना कि तुम्हारे मुँह से कोई ऐसी बात न निकल जाए, जो महाराज को अप्रसन्न कर दे।

जयकृष्ण ने उन्हें आश्वासन दिया- ‘वह ऐसी कोई बात न करेगा। क्या वह इतना नादान है?’ मगर उसे खबर थी कि आज के महाराजा साहब वह नहीं हैं, जो एक साल पहले थे या सम्भव है पोलिटिकल एजेंट के चले जाने के बाद वह फिर वही हो जाएं। वह न जानता था कि उनके लिए क्रांति और आतंक की चर्चा भी उसी तरह विनोद की वस्तु थी जैसे हत्या या बलात्कार या जाल की वारदातें, या रूप के बाजार के आकर्षक समाचार। जब उसने ड्यौढ़ी पर पहुँचकर अपनी इत्तला कराई, तो मालूम हुआ कि महाराज इस समय अस्वस्थ हैं, लेकिन वह लौट ही रहा था कि महाराज ने उसे बुला भेजा। शायद उससे सिनेमा-संसार के ताजे समाचार पूछना चाहते थे। उसके सलाम पर मुस्कराकर बोले- ‘तुम खूब आए भाई, कहो एम.सी.सी. का मैच देखा या नहीं? मैं तो इन बखेड़े में ऐसा फँसा जाने की नौबत नहीं आई। अब तो यही दुआ कर रहा हूँ कि किसी तरह एजेंट साहब खुश-खुश रुख़सत हो जाएँ। मैंने जो भाषण लिखवाया है, वह जरा तुम भी देख लो। मैंने इन राष्ट्रीय आन्दोलनों की खूब खबर ली है और हरिजनोद्धार पर भी छींटे उड़ा दिए है।

जयकृष्ण ने अपने आवेश को दबाकर कहा- ‘राष्ट्रीय आंदोलनों की आपने खबर ली, यह अच्छा किया लेकिन हरिजनोद्धार को तो सरकार भी पसंद करती है, इसीलिए उसने महात्मा गांधी को रिहा कर दिया, और जेल में भी उन्हें इस आंदोलन के संबंध में लिखने-पढ़ने और मिलने-जुलने की पूरी स्वाधीनता दे रखी थी।’

राजा साहब ने सात्विक मुस्कान के साथ कहा- ‘तुम जानते नहीं हो, यह सब प्रदर्शन-मात्र है। दिल में सरकार समझती है कि यह भी राजनीतिक आंदोलन है। वह इस रहस्य को बड़े ध्यान से देख रही है। लॉयल्टी में जितना प्रदर्शन करो, चाहे वह औचित्य की सीमा के पार ही क्यों न हो जाए, उसका रंग चोखा ही होता है- उसी तरह, जैसे कवियों की विरुदावली से हम फूल उठाते हैं, चाहे वह हास्यास्पद ही क्यों न हो। हम ऐसे कवि को खुशामदी समझें, अहमक भी समझ सकते हैं, पर उससे अप्रसन्न नहीं हो सकते। वह हमें जितना ही ऊँचा उठाता है, उतना ही वह हमारी दृष्टि में ऊँचा उठता जाता है।

राजा साहब ने अपने भाषण की एक प्रति मेज़ के दराज से निकालकर जयकृष्ण के सामने रख दी, पर जयकृष्ण के लिए इस भाषण में अब कोई आकर्षण न था। अगर वह सभा-चतुर होता, तो जाहिरदारी के लिए ही इस भाषण को बड़े ध्यान से पढ़ता, उसके शब्द-विन्यास और भावोत्कर्ष कर प्रशंसा करता, और आपकी तुलना महाराजा बीकानेर या पटियाला के भाषणों से करता। पर अभी वह दरबारी दुनिया की रीति-नीति से अनभिज्ञ था। जिस चीज को बुरा समझता था, उसे बुरा कहता था और जिस चीज को अच्छा समझता था, उसे अच्छा कहता था। बुरे को अच्छा, अच्छे को बुरा करना अभी उसे न आया था। उसने भाषण पर सरसरी नजर डालकर उसे मेज़ पर रख दिया और अपनी स्पष्टवादिता का बिगुल फूंकता हुआ बोला–मैं राजनीति के रहस्यों को भला क्या समझ सकता हूँ लेकिन मेरा खयाल है कि चाणक्य के ये वंशज इन चालों को खूब समझते हैं और कृत्रिम भावों का उन पर कोई असर नहीं होता, बल्कि इससे आदमी उनकी नजरों में और भी गिर जाता है। अगर एजेंट को मालूम हो जाए कि उसके स्वागत के लिए प्रजा पर कितने जुल्म ढाए जा रहे हैं, तो शायद वह यहाँ से प्रसन्न होकर न जाए। फिर, मैं तो प्रजा की दृष्टि से देखता हूँ। एजेंट की प्रसन्नता अपने लिए लाभप्रद हो सकती है, प्रजा को तो उससे हानि ही होगी।

राजा साहब अपने किसी काम की आलोचना नहीं सह सकते थे। उनका क्रोध पहले जिरह के रूप में निकलता, फिर तर्क का आकार धारण कर लेता और अंत में भूकंप के आवेश में उबल पड़ता था, जिससे उनका स्थूल शरीर, कुर्सी, मेज़, दीवारें और छत सभी में भीषण कम्पन होने लगता था। तिरछी आँखों से देखकर बोले- ‘क्या हानि होगी, जरा सुनू?’

जयकृष्ण समझ गया कि क्रोध की मशीनगन चक्कर में है और घातक विस्फोट होने ही वाला है। सँभल कर बोला-‘इसे आप मुझसे ज्यादा समझ सकते हैं।’ ‘नहीं, मेरी बुद्धि इतनी प्रखर नहीं है।’

‘आप बुरा मान जाएंगे।’

‘क्या तुम समझते हो.. मैं बारूद का ढेर हूँ?’

‘बेहतर है, आप इसे न पूछें।’

‘तुम्हें बतलाना पड़ेगा।’

और आप-ही-आप उनकी मुट्ठियाँ बँध गई।

‘तुम्हें बतलाना पड़ेगा, इसी वक्त?’

जयकृष्ण यह धौंस क्यों सहने लगा? क्रिकेट के मैदान में राजकुमारों पर रौब जमाया करता था, बड़े-बड़े हुक्काम की चुटकियां लेता था। बोला- ‘अभी आपके दिल में पोलिटिकल एजेंट का कुछ भय है, आप प्रजा पर जुल्म करते डरते हैं। जब वह आपके एहसान से दब जाएगा, आप स्वच्छन्द हो जाएंगे। और प्रजा की फरियाद सुनने वाला कोई न रहेगा।

राजा साहब प्रज्ज्वलित नेत्रों से ताकते हुए बोले- ‘मैं एजेंट का गुलाम नहीं हूँ कि उससे डरूँ, कोई कारण नहीं है कि मैं उससे डरूं, बिलकुल कारण नहीं है। मैं पोलिटिकल एजेंट की इसलिए खातिर करता हूँ कि वह हिज मैजेस्टी का प्रतिनिधि है। मेरे और हिज मैजेस्टी के बीच में भाईचारा है। एजेंट केवल उसका दूत है। मैं केवल नीति का पालन कर रहा हूँ। मैं विलायत जाऊँ, तो हिज मैजेस्टी भी इसी तरह मेरा सत्कार करेंगे। मैं डरूं क्यों? मैं अपने राज्य का स्वतन्त्र राजा हूँ। जिसे चाहूँ फाँसी दे सकता हूँ। मैं किसी से क्यों डरने लगा? डरना नामर्दों का काम है, मैं ईश्वर से भी नहीं डरता। डर क्या वस्तु है, यह मैंने आज तक नहीं जाना। मैं तुम्हारी तरह कॉलेज का मुँहफट छात्र नहीं हूँ कि क्रान्ति और आजादी की हाँक लगाता फिरूं। तुम क्या जानो, क्रान्ति क्या चीज है? तुमने केवल उसका नाम सुन लिया है। उसके लाल दृश्य आंखों से नहीं देखे। बंदूक की आवाज सुनकर तुम्हारा दिल काँप उठेगा। क्या तुम चाहते हो, मैं एजेंट से कहूँ- प्रजा तबाह है, आपके आने की जरूरत नहीं। मैं इतना आतिथ्य-शून्य नहीं हूँ। मैं अंधा नहीं हूँ अहमक नहीं हूँ प्रजा की दशा का मुझे तुमसे कहीं अधिक ज्ञान है, तुमने उसे बाहर से देखा है, मैं उसे नित्य भीतर से देखता हूँ। तुम मेरी प्रजा को क्रांति का स्वप्न दिखाकर उसे गुमराह नहीं कर सकते। तुम मेरे राज्य में विद्रोह और असंतोष के बीज नहीं बो सकते। तुम्हें अपने मुँह पर ताला लगाना होगा, तुम मेरे विरुद्ध एक शब्द भी मुँह से नहीं निकाल सकते, चूं भी नहीं कर सकते।

डूबते हुए सूरज की किरणें महराबी दीवानखाने के रंगीन शीशों से होकर राजा साहब के क्रोधोन्मत्त मुख-मण्डल को और भी रंजित कर रही थीं। उनके बाल नीले हो गए थे, आँखें पीली, चेहरा लाल और देह हरी। मालूम होता था, प्रेत लोक का कोई पिशाच है। जयकृष्ण की सारी उद्दंडता हवा हो गई। राजा साहब को इस उन्माद की दशा में उसने कभी न देखा था, लेकिन इसके साथ ही उसका आत्मगौरव इस ललकार का जवाब देने के लिए व्याकुल हो रहा था। जैसे विजय का जवाब विनय है, वैसे ही क्रोध का जवाब क्रोध है, जब यह आतंक और भय, अदब और लिहाज के बंधनों को तोड़कर निकल पड़ता है।

उसने भी राजा साहब को आग्नेय नेत्रों से देखकर कहा- ‘मैं अपनी आँखों से वह अत्याचार देखकर मौन नहीं रह सकता।’

राजा साहब ने आवेश से खड़े होकर, मानो उसकी गर्दन पर सवार होते हुए कहा- ‘तुम्हें यहाँ जुबान खोलने का कोई हक नहीं है।’

‘प्रत्येक विचारशील मनुष्य को अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने का हक है। आप वह हक मुझसे नहीं छीन सकते।’

‘मैं सब कुछ कर सकता हूँ।’

‘आप कुछ नहीं कर सकते।’

‘मैं तुम्हें अभी जेल में बन्द कर सकता हूँ।’

‘आप मेरा बाल भी नहीं बाँका कर सकते।’

इसी वक्त मि. मेहता बदहवास से कमरे में आये ओर जयकृष्ण की ओर कोप-भरी आँखें उठाकर बोले- ‘कृष्ण, निकल जा यहाँ से, अभी मेरी आंखों से दूर हो जा, और खबरदार! फिर मुझे अपनी सूरत न दिखाना। मैं तुझ जैसे कपूत का मुँह नहीं देखना चाहता। जिस थाल में खाता है उसी में छेद करता है, बेअदबी कहीं का। अब अगर जुबान खोली, तो मैं तेरा खून पी जाऊंगा।’

जयकृष्ण ने हिंसा-विक्षिप्त पिता को घृणा की आंखों से देखा और अकड़ता हुआ, गर्व से सिर उठाए, दीवानखाने के बाहर बिकल गया।

राजा साहब ने कोच पर लेटकर कहा- ‘बदमाश आदमी है, पल्ले सिरे का बदमाश। मैं नहीं चाहता कि ऐसा खतरनाक आदमी एक क्षण भी रियासत में रहे। तुम उससे जाकर कहो, इसी वक्त यहाँ से चला जाए, वरना उसके हक में अच्छा न होगा। मैं केवल आपकी मुरव्वत से गम खा गया, नहीं तो इसी वक्त इसका मजा चखा सकता था। केवल आपकी मुरव्वत ने हाथ पकड़ लिया। आपको तुरंत निर्णय करना पड़ेगा, इस रियासत की दीवानी या लड़का। अगर दीवानी चाहते हो, तो तुरन्त उसे रियासत से निकाल दो और कह दो कि फिर कभी मेरी रियासत में पाँव न रखे। लड़के से प्रेम है, तो आज ही रियासत से निकल जाइए। आप यहाँ से कोई चीज नहीं ले जा सकते, एक पाई की भी चीज नहीं। जो कुछ है, वह रियासत का है। बोलिए, क्या मंजूर है?’

मि. मेहता ने क्रोध के आवेश में जयकृष्ण को डाँट तो बतलाई थी, पर वह न समझे थे कि मामला इतना लंबा खींचेगा। एक क्षण के लिए वह सन्नाटे में आ गए। सिर झुकाकर परिस्थिति पर विचार करने लगे-राजा उन्हें मिट्टी में मिला सकता है। वह यहाँ बिलकुल बेबस है, कोई उनका साथी नहीं, कोई उनकी फरियाद सुनने वाला नहीं। राजा उन्हें भिखारी बनाकर छोड़ देगा। इस अपमान के साथ निकाले जाने की कल्पना करके वह काँप उठे। रियासत में उनके बैरियों की कमी न थी। सब-के-सब मूसलों ढोल बजाएंगे। जो आज उनके सामने भीगी बिल्ली बने हुए हैं, कल शेरों की तरह गुर्राएगें। फिर इस उम्र में अब उन्हें नौकर ही कौन रखेगा। निर्दयी संसार के सामने क्या फिर उन्हें हाथ फैलाना पड़ेगा? नहीं, इससे तो यह कहीं अच्छा है कि वह यहीं पड़े रहें। कम्पित स्वर में बोले- ‘मैं आज ही उसे घर से निकाल देता हूँ, अन्नदाता।’

‘आज नहीं, इसी वक्त!’

‘इसी वक्त निकाल दूँगा।’

‘हमेशा के लिए?’

‘हमेशा के लिए।’