Riyasat Ka Diwan by Munshi Premchand
Riyasat Ka Diwan by Munshi Premchand

‘मैंने कोई गलती नहीं की। मैं तो ईश्वर से चाहती हूँ कि जो मैंने आज किया, वह बार-बार करने का मुझे अवसर मिले।’

‘मेहता ने अरुचि के साथ पूछा- ‘तुमने कहां जाने का इरादा किया है?’

‘ जहन्नुम में ।”

‘गलती खुद करती हो, गुस्सा मुझ पर उतारती हो?’

‘मैं तुम्हें इतना निर्लज्ज न समझती थी!’

‘मैं भी इसी शब्द का तुम्हारे लिए प्रयोग कर सकता हूँ।’

‘केवल मुख से, मन से नहीं।’

मि. मेहता लज्जित हो गए।

जब सुनीता की विदाई का समय आया, तो स्त्री-पुरूष, दोनों खूब रोए और एक तरह से सुनीता ने अपनी भूल स्वीकार कर ली। वास्तव में इस बेकारी के दिनों में मेहता ने जो कुछ किया, वही उचित था, बेचारे कहां मारे-मारे फिरते।

पोलिटिकल एजेंट साहब पधारे और कई दिनों तक खूब दावतें खाईं और खूब शिकार खेला। राजा साहब ने उनकी तारीफ की। उन्होंने राजा साहब की तारीफ की। राजा साहब ने उन्हें अपनी लॉयलटी का विश्वास दिलाया, उन्होंने सतिया राज्य को आदर्श कहा और राजा साहब को न्याय और सेवा का अवतार स्वीकार किया और तीन दिन में रियासत को ढाई लाख की चपत देकर विदा हो गए।

मि. मेहता का दिमाग आसमान पर था। सभी उनकी कारगुजारी की प्रशंसा कर रहे थे। एजेंट साहब तो उनकी दक्षता पर मुग्ध हो गए। उन्हें राय साहब की उपाधि मिली और उनके अधिकारों में भी वृद्धि हुई। उन्होंने अपनी आत्मा को उठाकर ताक पर रख दिया था। उनकी यह साधना कि महाराज और एजेंट, दोनों उनसे प्रसन्न रहें, सम्पूर्ण रीति से पूरी हो गई। उनके जैसा स्वामिभक्त सेवक दूसरा न था।

राजा साहब अब कम-से-कम तीन साल के लिए निश्चिन्त थे। एजेंट खुश है तो फिर किसका भय! कामुकता, लम्पटता और भांति-अति के दुर्व्यसनों की लहर प्रचण्ड हो उठी। सुंदरियों की टोह लगाने के लिए सुराग-रसाली का एक विभाग खुल गया, जिसका सम्बन्ध सीधे राजा साहब से था। एक बूढ़ा खुर्राट, जिसका पेशा हिमालय की परियों को फंसाकर राजाओं को लूटना था, और जो इसी पेशे की बदौलत राज-दरबार में पूजा जाता था, इस विभाग का अध्यक्ष बना दिया गया। नई-नई चिड़ियाँ आने लगी। भय, लोभ और सम्मान-सभी अस्त्रों से शिकार खेला जाने लगा लेकिन एक ऐसा अवसर भी पड़ा, जहाँ इस तिकड़म की सारी सामूहिक और वैयक्तिक चेष्टा. निष्फल हो गईं और गुप्त विभाग ने निश्चय किया कि इस बालिका को किसी तरह उड़ा लाया जाए। और इस महत्त्वपूर्ण कार्य के सम्पादन का भार मि. मेहता पर रखा गया, जिनसे ज्यादा स्वामिभक्त सेवक रियासत में दूसरा न था। उनके ऊपर महाराजा साहब को पूरा विश्वास था। दूसरे के विषय में सन्देह था कि कहीं रिश्वत लेकर शिकार बहका दें, या भण्डाफोड़ कर दें, या अमानत में खयानत कर बैठें। मेहता की ओर से किसी तरह उन बातों की शंका न थी। रात को नौ बजे उनकी तलबी हुई- अन्नदाता ने हुजूर को याद किया है। मेहता साहब ड्यौढ़ी पर पहुँचे, तो राजा साहब पाईबाग में टहल रहे थे। मेहता को देखते ही बोले- ‘आइए मि. मेहता, आपसे एक खास बात में सलाह लेनी है। यहाँ कुछ लोगों की राय है कि सिंहद्वार के सामने आपकी एक प्रतिमा स्थापित की जाए, जिससे चिरकाल तक आपकी यादगार कायम रहे। आपको तो शायद इसमें कोई आपत्ति नहीं होगी? और यदि हो भी, तो लोग इस विषय में आपकी अवज्ञा करने पर भी तैयार हैं। सतिया की आपने जो अमूल्य सेवा की है, उसका पुरस्कार तो कोई क्या दे सकता है, लेकिन जनता के हृदय में आप पर जो श्रद्धा है, उसे तो वह किसी-न-किसी रूप में प्रकट ही करेगी।

मेहता ने बड़ी नम्रता से कहा- ‘यह अन्नदाता की गुण-ग्राहकता है, मैं तो एक तुच्छ सेवक हूँ। मैंने जो कुछ किया, वह इतना ही है कि नमक का हक अदा करने का सदैव प्रयत्न किया, मगर मैं इस सम्मान के योग्य नहीं हूँ।’ राजा ने कृपालु भाव से हँसकर कहा- ‘आप योग्य हैं या नहीं, इसका निर्णय आपके हाथ में नहीं है मि. मेहता, आपकी दीवानी यहाँ न चलेगी। हम आपका सम्मान नहीं कर रहे हैं, अपनी भक्ति का परिचय दे रहे हैं। थोड़े दिनों में न हम रहेंगे, न आप रहेंगे, उस वक्त भी यह प्रतिमा अपनी मूक वाणी से कहती रहेगी कि पिछले लोग अपने उद्धारकों का आदर करना जानते थे। मैंने लोगों से कह दिया है कि चंदा जमा करें। एजेंट ने अबकी जो पत्र लिखा है, उसमें आपको खास-तौर से सलाम लिखा है।’

मेहता ने जमीन में गड़ कर कहा- ‘यह उनकी उदारता है, मैं तो जैसा आपका सेवक हूँ वैसा ही उनका भी सेवक हूँ।’

राजा साहब कई मिनट तक फूलों की बहार देखते रहे। फिर इस तरह बोले माने कोई भूली हुई बात याद आ गई हो- ‘तहसील खास में एक गाँव लगनपुर है, आप कभी वहाँ गए हैं?’

‘हां, अन्नदाता! एक बार गया हूँ। वहाँ एक धनी साहूकार है। उसी के दीवानखाने में ठहरा था। अच्छा आदमी है।’

‘हां, ऊपर से बहुत अच्छा आदमी है, लेकिन अन्दर से पक्का पिशाच। आपको शायद मालूम न हो, इधर कुछ दिनों से महारानी का स्वास्थ्य बहुत बिगड़ रहा है और मैं सोच रहा हूँ कि उन्हें किसी सेनेटोरियम में भेज दूँ। वहाँ सब तरह की चिंताओं एवं झंझटों से मुक्त होकर वह आराम से रह सकेंगी, लेकिन रनिवास में नारी का रहना लाजिमी है। अफसरों के साथ उनकी लेडियाँ भी आती हैं, और भी कितने अंग्रेज मित्र अपनी लेडियों के साथ मेरे मेहमान होते रहते हैं। कभी राजे-महाराजा भी रानियों के साथ आ जाते हैं। रानी के बगैर लेडियों का आदर- सत्कार कौन करेगा? मेरे लिए यह वैयक्तिक प्रश्न नहीं, राजनीतिक समस्या है, और शायद आप भी मुझसे सहमत होंगे, इसलिए मैंने दूसरी शादी करने का इरादा कर लिया है। इस साहूकार की एक लड़की है, जो कुछ दिनों अजमेर में शिक्षा पा चुकी है। मैं एक बार उस गाँव से होकर निकला, तो मैंने उसे अपने घर की छत पर खड़े देखा। मेरे मन में तुरन्त भावना उठी कि अगर वह रमणी रनिवास में आ जाए, तो रनिवास की शोभा बढ़ जाए। मैंने महारानी की अनुमति लेकर साहूकार के पास संदेश भेजा, किन्तु मेरे विद्रोहियों ने कुछ ऐसी पट्टी पढ़ा दी कि उसने मेरा संदेश स्वीकार न किया। कहता है, कन्या का विवाह हो चुका है। मैंने कहला भेजा, इसमें कोई हानि नहीं, मैं तावान देने को तैयार हूँ लेकिन वह दुष्ट बराबर इनकार किए जाता है। आप जानते हैं, प्रेम असाध्य रोग है। आपको भी शायद इसका कुछ-न-कुछ अनुभव हो। बस, यह समझ लीजिए कि जीवन निरानंद हो रहा है। नींद और आराम हराम है। भोजन से अरुचि हो गई है। अगर कुछ दिन यही हाल रहा, तो समझ लीजिए कि मेरी जान पर बन आएगी। सोते-जागते वही मूर्ति आंखों के सामने नाचती रहती है। मन को समझाकर हार गया और अब विवश होकर मैंने कूटनीति से काम लेने का निश्चय किया है। प्रेम और समर में सब कुछ क्षम्य है। मैं चाहता हूं आप थोड़े से मातबर आदमियों को लेकर जाएं और उस रमणी को किसी तरह ले आएँ। खुशी से आए खुशी से, बल से आए बल से, इसकी चिन्ता नहीं। मैं अपने राज्य का मालिक हूँ। इसमें जिस वस्तु पर मेरी इच्छा हो, उस पर किसी दूसरे व्यक्ति का नैतिक या सामाजिक स्वत्व नहीं हो सकता। यह समझ लीजिए कि आप ही मेरे प्राणों की रक्षा कर सकते हैं। कोई दूसरा ऐसा आदमी नहीं है, जो इस काम को इतने सुचारु रूप से पूरा कर दिखाए। आपने राज्य की बड़ी-बड़ी सेवाएँ की हैं। यह उस यश की पूर्णाहुति होगी और आप जन्म-जन्मान्तर तक राजवंश के इष्टदेव समझे जाएँगे।’

मि. मेहता का मरा हुआ आत्म-गौरव एकाएक सचेत हो गया। जो रक्त चिरकाल से प्रवाह-शून्य हो गया था, उसमें सहसा उद्रेक हो उठा। त्यौरियाँ चढ़ाकर बोले- ‘तो आप चाहते हैं, मैं उसे किडनेप करूँ?’

राजा साहब ने उनके तेवर देखकर आग पर पानी डालते हुए कहा- ‘कदापि नहीं मि. मेहता, आप मेरे साथ घोर अन्याय कर रहे हैं। मैं आपको अपना प्रतिनिधि बनाकर भेज रहा हूँ। कार्य-सिद्धि के लिए आप जिस नीति से चाहें काम ले सकते हैं। आपको पूरा अधिकार है।’

मि. मेहता ने और भी उत्तेजित होकर कहा- ‘मुझसे ऐसा पाजीपन नहीं हो सकता।’

राजा साहब की आंखों से चिनगारियाँ निकलने लगीं।

‘अपने स्वामी की आज्ञा-पालन करना पाजीपन है?”

‘जो आज्ञा नीति और धर्म के विरुद्ध हो, उसका पालन करना बेशक पाजीपन है।’

‘किसी स्त्री से विवाह का प्रस्ताव करना नीति और धर्म के विरुद्ध है?’

‘आप इसे विवाह कहकर ‘विवाह’ शब्द को कलंकित करते हैं। यह बलात्कार है।’

‘आप अपने होश में हैं?’

‘खूब अच्छी तरह!’

‘मैं आपको धूल में मिला सकता हूँ।’

‘तो आपकी गद्दी भी सलामत न रहेगी’।’

‘मेरी नेकियों का यही बदला है, नमक-हराम?’

‘आप अब शिष्टता की सीमा से आगे बढ़े जा रहे हैं, राजा साहब! मैंने अब तक अपनी आत्मा की हत्या की है और आपके हर एक जा और बेजा हुक्म की तामील की है लेकिन आत्म-सेवा की भी एक हद होती है, जिसके आगे कोई भला आदमी नहीं जा सकता। आपका कृत्य जघन्य है और इसमें जो व्यक्ति आपका सहायक हो, वह इसी योग्य है कि उसकी गर्दन काट दी जाए। मैं ऐसी नौकरी पर लानत भेजता हूँ।’

यह कहकर वह घर आए और रातों-रात बोरिया-बिस्तर समेटकर रियासत से निकल गए मगर इसके पहले सारा वृतांत लिखकर उन्होंने पोलिटिकल एजेंट के पास भेज दिया।