‘अच्छी बात है, जाइए और आधा घंटे के अंदर मुझे सूचना दीजिए।’
मि. मेहता घर चले, तो मारे क्रोध के उनके पाँव काँप रहे थे। देह में आग- सी लगी हुई थी। इस लौंडे के कारण आज उन्हें कितना अपमान सहना पड़ा। गधा चला है अपने साम्यवाद का राग अलापने। अब बच्चा को मालूम होगा, जबान पर लगाम न रखने का क्या नतीजा होता है। मैं क्यों उसके पीछे गली-गली ठोकरें खाऊँ? हां, मुझे यह पद और सम्मान प्यारा है। क्यों न प्यारा हो? इसके लिए बरसों एड़ियां रगड़ी हैं, अपना खून और पसीना एक किया है। यह अन्याय बुरा जरूर लगता है, लेकिन बुरी लगने की यही एक बात तो नहीं है। और हजारों बातें भी तो बुरी लगती हैं। जब किसी बात का उपाय मेरे पास नहीं है तो इस मामले के पीछे क्यों अपनी जिंदगी खराब करूँ? उन्होंने घर आते ही आते पुकारा- ‘जयकृष्ण।’
सुनीता ने कहा- ‘जयकृष्ण तो तुमसे पहले ही राजा साहब के पास गया था। तब से यहाँ कब आया?’
‘अब तक यहाँ नहीं आया। वह तो मुझसे पहले ही चल चुका था।’
वह फिर बाहर आए और नौकरों से पूछना शुरू किया। अब भी उसका पता न था। मारे डर के कहीं छिप रहा होगा और राजा ने आधा घंटे में इतिला देने का हुक्म दिया है। यह लौंडा न जाने क्या करने पर लगा हुआ है। आप तो जाएगा ही, मुझे भी अपने साथ ले डूबेगा।
सहसा एक सिपाही ने एक पुरजा लाकर उनके हाथ में रख दिया। अच्छा, यह तो जयकृष्ण की लिखावट है। क्या कहा है- इस दुर्दशा के बाद मैं इस रियासत में एक क्षण भी नहीं रह सकता। मैं जाता हूँ। आपको अपना पद और मान अपनी आत्मा से ज्यादा प्रिय है, आप खुशी से उसका उपभोग कीजिए। फिर आपको तकलीफ देने न आऊंगा। अम्मा से मेरा प्रणाम कहिएगा।
मेहता ने पुरजा लाकर सुनीता को दिखाया और खिन्न होकर बोले- ‘इसे न जाने कब समझ आएगी लेकिन बहुत अच्छा हुआ। अब लाला को मालूम होगा, दुनिया में किस तरह रहना चाहिए। बिना ठोकरें खाए, आदमी की आँखें नहीं खुलती। मैं ऐसे तमाशे बहुत खेल चुका, अब इस खुराफात के पीछे अपना शेष जीवन नहीं बरबाद करना चाहता’ और तुरंत राजा साहब को सूचना देने चले।
दम-के-दम में सारी रियासत में यह समाचार फैल गया। जयकृष्ण अपने शील- स्वभाव के कारण जनता में बड़ा प्रिय था। लोग बाजारों और चौराहों पर खड़े हो-होकर इस काण्ड पर आलोचना करने लगे- ‘अजी, वह आदमी नहीं था भाई, उसे किसी देवता का अवतार समझो। महाराज के पास जाकर बेधड़क बोला-अभी बेगार बंद कीजिए, वरना शहर में हंगामा हो जाएगा। राजा साहब की तो जुबान बंद हो गई। बगलें झाँकने लगे। शेर है, शेर! उम्र तो कुछ नहीं पर आफत का परवाना है। और वह यह बेगार शब्द बंद करा के रहता हमेशा के लिए। राजा साहब को भागने की राह न मिलती। सुना, घिघियाने लगे। मुदा इसी बीच में दीवान साहब पहुँच गए और उसे देश निकाले का हुक्म दे दिया। यह हुक्म सुनकर उसकी आँखों में खून उतर आया था, लेकिन बाप का अपमान न किया।’
‘ऐसे बाप को तो गोली मार देनी चाहिए, बाप है या दुश्मन।’
‘वह कुछ भी हो, है तो बाप ही।’
सुनीता सारे दिन बैठी रोती रही। जैसे कोई उसके कलेजे में बर्छियाँ चुभा रहा था। बेचारा न जाने कहीं चला गया। अभी जलपान तक न किया था। चूल्हे में जाए ऐसा भोग-विलास, जिसके पीछे उसे बेटे को त्यागना पड़े। हृदय में ऐसा उद्वेग उठा कि इसी दम पति और घर को छोड़कर रियासत से निकल जाए, जहाँ ऐसे नर-पिशाचों का राज्य है। इन्हें अपनी दीवानी प्यारी है, उसे लेकर रहें। वह अपने पुत्र के साथ उपवास करेगी, पर उसे आंखों से देखती तो रहेगी।
एकाएक वह उठकर महारानी के पास चली। वह उनसे फरियाद करेगी। उन्हें भी ईश्वर ने बालक दिये हैं। उन्हें क्या एक अभागिनी माता पर दया न आएगी? इसके पहले भी वह कई बार महारानी के दर्शन कर चुकी थी। उसका मुरझाया हुआ मन आशा से लहलहा उठा।
लेकिन रनिवास में पहुँची तो देखा कि महारानी के तेवर भी बदले हुए हैं। उसे देखते ही बोलीं- ‘तुम्हारा लड़का उजड्ड है। जरा भी अदब नहीं। किससे किस तरह बात करनी चाहिए, इसका जरा भी सलीका नहीं। न जाने विश्वविद्यालय में क्या पढ़ा करता है? आज महाराज से उलझ बैठा। कहता था कि बेगार बंद कर दीजिए और एजेंट साहब के स्वागत सत्कार की कोई तैयारी न कीजिए। इतनी समझ भी उसे नहीं है कि इस तरह कोई राजा कितने घंटे गद्दी पर रह सकता है? एजेंट बहुत बड़ा अफसर न सही, लेकिन है तो बादशाह का प्रतिनिधि। उसका आदर-सत्कार करना तो हमारा धर्म है, फिर ये बेगार किस दिन काम आएँगे? उन्हें रियासत से जागीरें मिली हुई हैं। किस दिन के लिए? प्रजा में विद्रोह की आग भड़काना कोई भले आदमी का काम है? जिस पत्तल में खाओ, उसी में छेद करो। महाराज ने दीवान साहब का मुलाहजा किया, नहीं तो उसे हिरासत में डलवा देते। अब बच्चा नहीं है। खासा पाँच हाथ का जवान है। सब कुछ देखता और समझता है। हम हाकिमों से बैर करें, तो कितने दिन निर्वाह हो? उसका क्या बिगड़ता है। कहीं सौ- पचास की चाकरी पा जाएगा। यहाँ तो करोड़ों की रियासत बरबाद हो जाएगी।
सुनीता ने आंचल खिसका कर कहा- ‘महारानी बहुत सत्य कहती हैं, पर अब तो उसका अपराध क्षमा कीजिए। बेचारा लज्जा और भय के मारे घर नहीं गया। न जाने किधर चला गया। हमारे जीवन का यही एक अवलम्ब है, महारानी! हम दोनों रो-रोकर मर जाएँगे। आंचल फैलाकर आपसे भीख माँगती हूँ उसको क्षमादान दीजिए। माता के हृदय को आपसे ज्यादा और कौन समझेगा, आप महाराज से सिफारिश कर दें। महारानी ने अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से उसकी ओर देखा, मानो वह कोई बड़ी अनोखी बात कह रही हो और अपने रँगे हुए होंठों पर अशुद्धि से जगमगाती हुई उँगली रखकर बोली- ‘क्या कहती हो सुनीता देवी! उस युवक की महाराज से सिफारिश करूँ, जो हमारी जड़ खोदने पर तुला हुआ है? आस्तीन में साँप पालूं? तुम किस मुँह से ऐसी बात कहती हो? और महाराज मुझे क्या कहेंगे? ना, मैं इसके बीच में न पड़ेगी। उसने जो बीज बोए हैं, उनका वह फल खाए। मेरा लड़का ऐसा नालायक होता, तो उसका मुँह न देखती। और तुम ऐसे बेटे की सिफारिश करती हो?
सुनीता ने आंखों में आंसू भरकर कहा- ‘महारानी, ऐसी बात आपके मुँह से शोभा नहीं देती।’
महारानी मसनद टेककर उठ बैठी और तिरस्कार के स्वर में बोलीं- ‘अगर तुमने सोचा था कि मैं तुम्हारे आंसू पोछूंगी, तो तुमने भूल की। हमारे द्रोही की सिफारिश लेकर हमारे ही पास आना, इसके सिवा और क्या है कि तुम उसके अपराध को बाल-क्रीड़ा समझ रही हो। अगर तुमने उसके अपराध की भीषणता का ठीक अनुमान किया होता, तो मेरे पास कभी न आती। जिसके रियासत का नमक खाया है, वह रियासत के द्रोहों की पीठ सहलाए! वह स्वयं राजद्रोही है। इसके सिवा और क्या कहूँ?’
सुनीता भी गर्म हो गई। पुत्र-स्नेह म्यान के बाहर निकल आया, बोली- ‘राजा का कर्तव्य केवल अपने अफसरों को प्रसन्न करना नहीं है। प्रजा को पालने की जिम्मेदारी इससे कहीं बढ़कर है।’
उसी समय महाराज ने कमरे में कदम रखा। रानी ने उठकर स्वागत किया और सुनीता सिर झुकाए निस्पंद खड़ी रह गई।
राजा ने व्यंगपूर्ण मुस्कान के साथ पूछा- ‘वह कौन महिला तुम्हें राजा के कर्तव्य का उपदेश दे रही थी?’
रानी ने सुनीता की ओर आंख मारकर कहा- ‘यह दीवान साहब की धर्मपत्नी हैं।’
राजा साहब की त्यौरियाँ चढ़ गईं। होंठ चबाकर बोले- ‘जब माँ ऐसी पैनी छुरी है, तो लड़का क्यों न जहर का बुझाया हुआ हो? देवीजी, मैं तुमसे यह शिक्षा नहीं लेना चाहता कि राजा का अपनी प्रजा के साथ क्या धर्म है। यह शिक्षा मुझे कई पीढ़ियों से मिलती चली आई है। बेहतर हो कि तुम किसी से यह शिक्षा प्राप्त कर लो कि स्वामी के प्रति उसके सेवक का क्या धर्म है, और जो नमक हराम है उसके साथ स्वामी को कैसा व्यवहार करना चाहिए।’
यह कहते हुए राजा साहब उसी उन्माद की दशा में बाहर चले गए। मि. मेहता घर जा रहे थे कि राजा साहब ने कठोर स्वर में पुकारा- ‘सुनिए मि. मेहता! आपके सपूत तो विदा हो गए, लेकिन मुझे अभी मालूम हुआ कि आपकी देवीजी राज-द्रोह के मैदान में उनसे भी दो कदम आगे हैं, बल्कि मैं तो कहूँगा, वह केवल रिकार्ड है, जिसमें देवीजी की आवाज ही बोल रही है। मैं नहीं चाहता कि जो व्यक्ति रियासत का संचालक हो, उसके साए में रियासत के विद्राहियों को आश्रय मिले । आप खुद इस दोष से मुक्त नहीं हो सकते। वह हरगिज मेरा अन्याय न होगा, यदि मैं यह अनुमान कर लूँ कि आप ही ने यह मन्त्र फूंका है।’
मि. मेहता अपनी स्वामिभक्ति पर यह आरोप न सह सके। व्यथित कंठ से बोले- ‘यह तो मैं किस जुबान से कहूँ कि दीनबंधु इस विषय में मेरे साथ अन्याय कर रहे हैं, लेकिन मैं सर्वथा निर्दोष हूँ और मुझे यह देखकर दुःख होता है कि मेरी वफादारी पर यों सन्देह किया जा रहा है।’
‘वफादारी केवल शब्दों से नहीं होती।’
‘मेरा खयाल है कि मैं उसका प्रमाण दे चुका।’
‘नई-नई दलीलों के लिए नए-नए प्रमाणों की जरूरत है। आपके पुत्र के लिए जो दण्ड-विधान था, वही आपकी स्त्री के लिए भी है। मैं इसमें किसी भी तरह का उज्र नहीं चाहता। और इसी वक्त इस हुक्म की तामील होनी चाहिए।’
‘लेकिन दीनानाथ।’
‘मैं एक शब्द भी नहीं सुनना चाहता।’
‘मुझे कुछ निवेदन करने की आज्ञा न मिलेगी?’
‘बिलकुल नहीं, यह मेरा आख़िरी हुक्म है।’
मि. मेहता वहाँ से चले, तो उन्हें सुनीता पर बेहद गुस्सा आ रहा था। इन सभी को न जाने क्या सनक सवार हो गई है। जयकृष्ण तो खैर बालक है, बेसमझ है, इस बुढ़िया को क्या सूझी। न जाने रानी साहब से जाकर क्या कह आई। किसी को मुझसे हमदर्दी नहीं, सब अपनी धुन में मस्त हैं। किस मुसीबत से मैं अपनी जिन्दगी के दिन काट रहा हूँ यह कोई नहीं समझता। कितनी निराशा और विपत्तियों के बाद यहाँ जरा निश्चिंत हुआ था कि इन सभी ने यह नया तूफान खड़ा कर दिया। न्याय और सत्य का ठेका क्या इन्हीं ने लिया है? यहाँ भी वही हो रहा है, जो सारी दुनिया में हो रहा है। कोई नई बात नहीं है।
संसार में दुर्बल और दरिद्र होना पाप है। इसकी सजा से कोई बच ही नहीं सकता। बाज कबूतर पर कभी दया नहीं करता। सत्य और न्याय का समर्थन मनुष्य की सज्जनता और सभ्यता का एक अंग है। बेशक इससे कोई इनकार नहीं कर सकता लेकिन जिस तरह और सभी प्राणी केवल मुख से इसका समर्थन करते हैं, क्या उसी तरह हम भी नहीं कर सकते? और जिन लोगों का पक्ष लिया जाए, वे भी तो कुछ इसका महत्त्व समझे। आज राजा साहब इन्हीं बेगारों से जरा हंसकर बातें करें तो वे अपने सारे दुख भूल जाएँगे और उलटे हमारे ही शत्रु बन जाएँगे। शायद सुनीता महारानी के पास जाकर आपने दिल का बुखार निकाल आई है। गधी यह नहीं समझती कि दुनिया में किसी तरह मान-मर्यादा का निर्वाह करते हुए जिन्दगी काट लेना ही हमारा धर्म है। अगर भाग्य में यश और कीर्ति बदी होती, तो इस तरह दूसरों की गुलामी क्यों करता? लेकिन समस्या यह है कि इसे भेजूँ कहां? मायके में कोई है नहीं, मेरे घर में कोई है नहीं। उँह! अब मैं इस चिन्ता में कहां तक मरूं? जहाँ जी चाहे जाए, जैसा किया है, वैसा भोगे।
वह इसी क्षोभ और ग्लानि की दशा में घर में गए और सुनीता से बोले- ‘आखिर तुम्हें भी वही पागलपन सूझा, जो लौंडे को सूझा था। मैं कहता हूँ आखिर तुम्हें कभी समझ आएगी या नहीं? क्या सारे संसार के सुधार का बीड़ा हमीं ने उठाया है? कौन राजा ऐसा है, जो अपनी प्रजा पर जुल्म नहीं करता? उनके स्वत्वों का अपहरण न करता हो। सजा ही क्यों, हम-तुम-सभी तो दूसरों पर अन्याय कर रहे हैं। तुम्हें क्या हक है कि तुम दर्जनों खिदमतगार रखो और उन्हें जरा- जरा सी बात पर सजा दो? न्याय और सत्य निरर्थक शब्द हैं, जिनकी उपयोगिता इसके सिवा और कुछ नहीं कि बुद्धूओं की गर्दन काटी जाए और समझदारों की वाह-वाह हो। तुम और तुम्हारा लड़का उन्हीं बुद्धूओं में है। और इसका दण्ड तुम्हें भोगना पड़ेगा। महाराज का हुक्म है कि तुम तीन घंटे के अंदर रियासत से निकल जाओ, नहीं तो पुलिस आकर तुम्हें निकाल देगी। मैंने तो तय कर लिया है कि राजा साहब की इच्छा के विरुद्ध एक शब्द भी मुँह से न निकालूँगा। न्याय का पक्ष लेकर देख लिया है। हैरानी और अपमान के सिवा और कुछ हाथ न आया। जिनकी हिमाकत की थी, वे आज भी उसी दशा में हैं, बल्कि उससे भी और बदतर। मैं साफ कहता हूँ कि तुम्हारी उद्दंडता का तावान देने के लिए तैयार नहीं। मैं गुप्त रूप से तुम्हारी सहायता करता रहूँगा। इसके सिवा मैं और कुछ वहीं कर सकता।
सुनीता ने गर्व के साथ कहा- ‘मुझे तुम्हारी सहायता की जरूरत नहीं। कहीं भेद खुल जाए, तो दीनबन्धु तुम्हारे ऊपर कोप का वज्र गिरा दें। तुम्हें अपना पद और सम्मान प्यारा है, उसका आनंद से उपभोग करो। मेरा लड़का और कुछ न कर सकेगा, तो पाव-भर आटा तो कमा ही लायेगा। मैं भी देखूँगी कि तुम्हारी स्वामिभक्ति कब तक निभती है और कब तक तुम अपनी आत्मा की हत्या करते हो।
मेहता ने तिलमिला कर कहा- ‘क्या तुम चाहती हो कि फिर उसी तरह चारों तरफ ठोकर खाता फिरूं?’
सुनीता ने घाव पर नमक छिड़का- ‘नहीं, कदापि नहीं। अब तक तो मैं समझती थी, तुम्हें ठोकरें खाने में मजा आता है तथा पद और अधिकार से भी मूल्यवान कोई वस्तु तुम्हारे पास है, जिसकी रक्षा के लिए तुम ठोकरें खाना अच्छा समझते हो। अब मालूम हुआ, तुम्हें अपना पद अपनी आत्मा से भी प्रिय है। फिर क्यों ठोकरें खाओ, मगर कभी-कभी अपना कुशल-समाचार तो भेजते रहोगे, या राजा साहब की आज्ञा लेनी पड़ेगी?’
‘राजा साहब इतने न्याय-शून्य हैं कि मेरे पत्र-व्यवहार में रोक-टोक करें?’
‘अच्छा राजा साहब में इतनी आदमियत है? मुझे तो विश्वास नहीं होता।’
‘तुम अब भी अपनी गलती पर लज्जित नहीं हो?’
