Balak by Munshi Premchand
Balak by Munshi Premchand

गंगू को लोग ब्राह्मण कहते हैं और वह अपने को ब्राह्मण समझता भी है। मेेरे साईस और ख़िदमतगार मुझे दूर से सलाम करते हैं। गंगू मुझे कभी सलाम नहीं करता। वह शायद मुझसे पालागन की आशा रखता है। मेरा जूठा गिलास कभी हाथ से नहीं छूता और न मेरी कभी इतनी हिम्मत हुई कि उससे पंखा झलने को कहूं। जब मैं पसीने से तर होता हूं और वहां कोई दूसरा आदमी नहीं होता, तो गंगू आप-ही-आप पंखा उठा लेता है; लेकिन उसकी मुद्रा से यह भाव स्पष्ट प्रकट होता है कि मुझ पर कोई एहसान कर रहा है और मैं भी न जाने क्यों फौरन ही उसके हाथ से पंखा छीन लेता हूं। उग्र स्वभाव का मनुष्य है। किसी की बात नहीं सह सकता। ऐसे बहुत कम आदमी होंगे, जिनसे उसकी मित्रता हो, पर साईस और खिदमतगार का साथ बैठना शायद वह अपमानजनक समझता है। मैंने उसे किसी से मिलते-जुलते नहीं देखा। आश्चर्य यह है कि उसे भंग-बूटी से प्रेम नहीं, जो इस श्रेणी के मनुष्यों में एक असाधारण गुण है। मैंने उसे कभी पूजा-पाठ करते या नदी में स्नान करते नहीं देखा। बिलकुल निरक्षर है, लेकिन फिर भी वह ब्राह्मण है और चाहता है कि दुनिया उसकी प्रतिष्ठा तथा सेवा करे और क्यों न चाहे… जब पुरुखों की पैदा की हुई सम्पत्ति पर आज भी लोग अधिकार जमाये हुए हैं और उसी शान से, मानो खुद पैदा किये हों, तो वह क्यों उस प्रतिष्ठा और सम्मान को त्याग दे, जो उसके पुरुषाओं ने संचय किया था। यह उसकी बपौती है।

मेरा स्वभाव कुछ इस तरह का है कि अपने नौकरों से बहुत कम बोलता हूं। मैं चाहता हूं, जब तक मैं खुद न बुलाऊ, कोई मेरे पास न आये। मुझे यह अच्छा नहीं लगता कि ज़रा-सी बात के लिए नौकरों को आवाज देता फिरूं। मुझे अपने हाथ से सुराही से पानी उड़ेल लेना, अपना लैम्प जला लेना, अपने जूते पहन लेना या अलमारी से किताब निकाल लेना, इससे कहीं ज्यादा सरल मालूम होता है कि हींगन और मैकू को पुकारूं। इससे मुझे अपनी स्वेच्छा और आत्मविश्वास का बोध होता है। नौकर भी मेरे स्वभाव से परिचित हो गये हैं और बिना ज़रूरत मेरे पास बहुत कम आते हैं। इसलिए एक दिन जब प्रातःकाल गंगू मेरे सामने आकर खड़ा हो गया तो मुझे बहुत बुरा लगा। ये लोग जब आते हैं, तो पेशगी हिसाब में कुछ मांगने के लिए या किसी दूसरे नौकर की शिकायत करने के लिए। मुझे ये दोनों ही बातें अत्यंत अप्रिय हैं। मैं पहली तारीख को हर एक का वेतन चुका देता हूं और बीच में जब कोई कुछ मांगता है, तो क्रोध आ जाता है, कौन दो-दो, चार-चार रुपये का हिसाब रखता फिरे। फिर जब किसी को महीने-भर की पूरी मजूरी मिल गयी, तो उसे क्या हक है कि उसे पन्द्रह दिन में खर्च कर दे और ऋण या पेशगी की शरण ले, और शिकायतों से तो मुझे घृणा है। मैं शिकायतों को दुर्बलता का प्रमाण समझता हूं या ठकुर-सुहाती की क्षुद्र चेष्टा।

मैंने माथा सिकोड़कर कहा – ‘क्या बात है, मैंने तो तुम्हें बुलाया नहीं?’

गंगू के तीखे अभिमानी मुख पर आज कुछ ऐसी नम्रता, कुछ ऐसी याचना, कुछ ऐसा संकोच था कि मैं चकित हो गया। ऐसा जान पड़ा, वह कुछ जवाब देना चाहता है; मगर शब्द नहीं मिल रहे हैं।

मैंने ज़रा नम्र होकर कहा – ‘आखिर क्या बात है, कहते क्यों नहीं? तुम जानते हो, यह मेरे टहलने का समय है। मुझे देर हो रही है।’

गंगू ने निराशा भरे स्वर में कहा – ‘तो आप हवा खाने जायें, मैं फिर आ जाऊंगा।’

यह अवस्था और भी चिन्ताजनक थी। इस जल्दी में तो वह एक क्षण में अपना वृतांत कह सुनायेगा। वह जानता है कि मुझे ज्यादा अवकाश नहीं है। दूसरे अवसर पर तो दुष्ट घण्टों रोयेगा। मेरे कुछ लिखने-पढ़ने को तो वह शायद कुछ काम समझता हो; लेकिन विचार को, जो मेरे लिए सबसे कठिन साधना है, वह मेरे विश्राम का समय समझता है। वह उसी वक्त आकर मेरे सिर पर सवार हो जायेगा।

मैंने निर्दयता के साथ कहा- ‘क्या कुछ पेशगी मांगने आये हो? मैं पेशगी नहीं देता।’

‘जी नहीं सरकार, मैंने तो कभी पेशगी नहीं मांगा।’

‘तो क्या किसी की शिकायत करना चाहते हो? मुझे शिकायतों से घृणा है।’

‘जी नहीं सरकार, मैंने तो कभी किसी की शिकायत नहीं की।’

गंगू ने अपना दिल मजबूत किया। उसकी आकृति से स्पष्ट झलक रहा था, मानो वह कोई छलांग मारने के लिए अपनी सारी शक्तियों को एकत्र कर रहा हो। वह लड़खड़ाती हुई आवाज में बोला – ‘मुझे आप छुट्टी दे दें। मैं आपकी नौकरी अब न कर सकूंगा।’

यह इस तरह का पहला प्रस्ताव था, जो मेरे कानों में पड़ा। मेरे आत्माभिमान को चोट लगी। मैं जब अपने को मनुष्यता का पुतला समझता हूं, अपने नौकरों को कभी कटुवचन नहीं कहता, अपने स्वामित्व को यथासाध्य म्यान में रखने की चेष्टा करता हूं, तब मैं इस प्रस्ताव पर क्यों न विस्मित हो जाता! कठोर स्वर में बोला- ‘क्यों, क्या शिकायत है?’

‘आपने तो हुजूर, जैसा अच्छा स्वभाव पाया है, वैसा क्या कोई पायेगा; लेकिन बात ऐसी आ पड़ी है कि अब मैं आपके यहां नहीं रह सकता। ऐसा न हो कि पीछे से कोई बात हो जाये, तो आपकी बदनामी हो। मैं नहीं चाहता कि मेरी वजह से आपकी आबरू में बट्टा लगे।’

मेरे दिल में उलझन पैदा हुई। जिज्ञासा की अग्नि प्रचण्ड हो गयी। आत्मसमर्पण के भाव से बरामदे में पड़ी हुई कुर्सी पर बैठकर बोला- ‘तुम तो पहेलियां बुझवा रहे हो। साफ-साफ क्यों नहीं कहते, क्या मामला है?’

गंगू ने बड़ी नम्रता से कहा – ‘बात यह है कि वह स्त्री, जो अभी विधवा-आश्रम से निकाल दी गयी है, वही गोमती देवी….।’

वह चुप हो गया। मैंने अधीर होकर कहा- ‘हां, निकाल दी गयी है, तो फिर? तुम्हारी नौकरी से उसका क्या सम्बन्ध?’

गंगू ने जैसे अपने सिर का भारी बोझ जमीन पर पटक दिया –

‘मैं उससे ब्याह करना चाहता हूं बाबूजी!’

मैं विस्मय से उसका मुंह ताकने लगा। यह पुराने विचारों का पोंगा ब्राह्मण जिसे नयी सभ्यता की हवा तक न लगी, उस कुलटा से विवाह करने जा रहा है, जिसे कोई भला आदमी अपने घर में कदम भी न रखने देगा। गोमती ने मुहल्ले के शांत वातावरण में थोड़ी-सी हलचल पैदा कर दी। कई साल पहले वह विधवाश्रम में आयी थी। तीन बार आश्रम के कर्मचारियों ने उसका विवाह कर दिया था, पर हर बार वह महीने-पन्द्रह दिन के बाद भाग आयी थी। यहां तक कि आश्रम के मंत्री ने अबकी बार उसे आश्रम से निकाल दिया था। तब से वह इसी मुहल्ले में एक कोठरी लेकर रहती थी और सारे मुहल्ले के शोहदों के लिए मनोरंजन का केन्द्र बनी हुई थी।

मुझे गंगू की सरलता पर क्रोध भी आया और दया भी। इस गधे को सारी दुनिया में कोई स्त्री ही न मिलती थी, जो इससे ब्याह करने जा रहा है, जब वह तीन बार पतियों के पास से भाग आयी, तो इसके पास कितने दिन रहेगी? कोई गांठ का पूरा आदमी होता, तो एक बात भी थी। शायद साल-छः महीने टिक जाती। यह तो निपट आंख का अंधा है। एक सप्ताह भी तो निबाह न होगा।

मैंने चेतावनी के भाव से पूछा- ‘तुम्हें इस स्त्री की जीवन-कथा मालूम है?’

गंगू ने आंखों- देखी बात की तरह कहा- ‘सब झूठ है सरकार, लोगों ने नाहक उसको बदनाम कर दिया है।’

‘क्या कहते हो, वह तीन बार अपने पतियों के पास से नहीं भाग आयी?’

‘उन लोगों ने उसे निकाल दिया, तो क्या करती?’

‘कैसे बुद्धू आदमी हो! कोई इतनी दूर से आकर विवाह करके ले जाता है, हजारों रुपये खर्च करता है, इसलिए कि औरत को निकाल दे?’

गंगू ने भावुकता से कहा – ‘जहां प्रेम नहीं है हुजूर, वहां कोई स्त्री नहीं रह सकती। स्त्री केवल रोटी कपड़ा ही नहीं चाहती, कुछ प्रेम भी तो चाहती है। वे लोग समझते होंगे कि हमने एक विधवा से विवाह करके उसके ऊपर कोई बहुत बड़ा एहसान किया है। चाहते होंगे कि तन-मन से वह उनकी हो जाये, लेकिन दूसरे को अपना बनाने के लिए पहले आपको उसका बन जाना पड़ता है हुजूर! यह बात है। फिर उसे एक बीमारी भी है। उसे कोई भूत लगा हुआ है, कभी-कभी बकझक करने लगती है और बेहोश जाती है।’

‘और तुम ऐसी स्त्री से विवाह करोगे?’- मैंने संदिग्ध भाव से सिर हिलाकर कहा- ‘समझ लो, जीवन कड़वा हो जायेगा।’

गंगू ने शहीदों के-से आवेश से कहा – ‘मैं तो समझता हूं, मेरी जिंदगी बन जायेगी बाबूजी, आगे भगवान की मर्जी!’

मैंने जोर देकर पूछा- ‘तो तुमने तय कर लिया है?’

‘हां हुजूर!’

‘तो मैं तुम्हारा इस्तीफा मंजूर करता हूं।’

मैं निरर्थक रूढ़ियों और व्यर्थ के बंधनों का दास नहीं हूं; लेकिन जो आदमी एक दुष्टा से विवाह करे, उसे अपने यहां रखना वास्तव में जटिल समस्या थी। आये-दिन टण्टे-बखेड़े होंगे, नयी-नयी उलझनें पैदा होंगी, कभी पुलिस दौड़ लेकर आयेगी, कभी मुकदमे खड़े होंगे। संभव है, चोरी की वारदातें भी हों। इस दलदल से दूर रहना ही अच्छा। गंगू क्षुधा-पीड़ित प्राणी की भांति रोटी का टुकड़ा देखकर उसकी ओर लपक रहा है। रोटी जूठी है, सूखी हुई है, खाने योग्य नहीं है, इसकी उसे परवाह नहीं; उसको विचार-बुद्धि से काम लेना कठिन था। मैंने उसे पृथक कर देने ही में अपनी कुशल समझी।

पांच महीने गुजर गये। गंगू ने गोमती से विवाह कर लिया था और उसी मुहल्ले में एक खपरैल का मकान लेकर रहता था। वह अब चाट का खोंचा लगाकर गुजर-बसर करता था। मुझे जब कभी बाजार में मिल जाता, तो मैं उसका कुशल-क्षेम पूछता। मुझे उसके जीवन से विशेष अनुराग हो गया था। यह एक सामाजिक प्रश्न की परीक्षा थी, सामाजिक ही नहीं, मनोवैज्ञानिक भी। मैं देखना चाहता था, इसका परिणाम क्या होता है। मैं गंगू को सदैव प्रसन्न-मुख देखता। समृद्धि और निश्चिन्तता के मुख पर जो एक तेज और स्वभाव में जो एक आत्म-सम्मान पैदा हो जाता है, वह मुझे यहां प्रत्यक्ष दिखायी देता था। रुपये-बीस आने की रोज बिक्री हो जाती थी। इसमें लागत निकालकर आठ-दस आने बच जाते थे। यही उसकी जीविका थी। किन्तु इसमें किसी देवता का वरदान था; क्योंकि इस वर्ग के मनुष्यों में जो निर्लज्जता और विपन्नता पायी जाती है, इसका वहां चिह्व तक न था। उसके मुख पर आत्म-विकास और आनन्द की झलक थी, जो चित्त की शान्ति से ही आ सकती है।

एक दिन मैंने सुना कि गोमती गंगू के घर से भाग गयी है। कह नहीं सकता, क्यों? मुझे इस खबर से एक विचित्र आनन्द हुआ। मुझे गंगू के संतुष्ट और सुखी जीवन से एक प्रकार की ईर्ष्या होती थी। मैं उसके विषय में किसी अनिष्ट की, किसी घातक अनर्थ की, किसी लज्जास्पद घटना की प्रतीक्षा करता था। इस खबर से ईर्ष्या को सांत्वना मिली। आखिर वही बात हुई, जिसका मुझे विश्वास था। आखिर गंगू को अपनी अदूरदर्शिता का दण्ड भोगना पड़ा। अब देखें, गंगू कैसे मुंह दिखाता है, अब आंखें खुलेंगी और मालूम होगा कि लोग, जो उन्हें इस विवाह से रोक रहे थे, उनके कैसे शुभचिंतक थे। उस वक्त तो ऐसा मालूम होता था, मानो आपको कोई दुर्लभ पदार्थ मिला जा रहा हो। मानो मुक्ति का द्वार खुल गया है। लोगों ने कितना कहा कि यह स्त्री विश्वास के योग्य नहीं है, कितनों को दगा दे चुकी है, तुम्हारे साथ भी दगा करेगी; लेकिन इसके कानों पर जूं तक न रेंगी। अब मिलें, तो जरा उनका मिज़ाज पूछूं। कहूं, क्यों महाराज, देवीजी का यह वरदान पाकर प्रसन्न हुए या नहीं? तुम तो कहते थे, वह ऐसी है और वैसी है, लोग उस पर केवल दुर्भावना के कारण दोष आरोपित करते हैं। अब बतलाओ, किसकी भूल थी?

उसी दिन संयोगवश गंगू से बाजार में भेंट हो गयी। घबराया हुआ था, बदहवास था, बिलकुल खोया हुआ। मुझे देखते ही उसकी आंखों में आंसू भर आये, लज्जा से नहीं, व्यथा से। मेरे पास आकर बोला- ‘बाबूजी, गोमती ने मेरे साथ विश्वासघात किया।’ मैंने कुटिल आनन्द से, लेकिन कृत्रिम सहानुभूति दिखाकर कहा‒ ‘तुमसे तो मैंने पहले ही कहा था; लेकिन तुम माने ही नहीं, अब सब्र करो। इसके सिवा और क्या उपाय है। रुपये-पैसे ले गयी या कुछ छोड़ गयी?’

गंगू ने छाती पर हाथ रखा। ऐसा जान पड़ा, मानो मेरे इस प्रश्न ने उसके हृदय को विदीर्ण कर दिया।

‘अरे बाबूजी! ऐसा न कहिए, उसने धेले की भी चीज नहीं छुई। अपना जो कुछ था, वह भी छोड़ गयी। न-जाने मुझमें क्या बुराई देखी। मैं उसके योग्य न था और क्या कहूं। वह पढ़ी-लिखी थी, मैं करिया अक्षर भैंस बराबर। मेरे साथ इतने दिन रही, यही बहुत था। कुछ दिन और उसके साथ रह जाता, तो आदमी बन जाता। उसका आपसे कहां तक बखान करूं हुजूर। औरों के लिए चाहे जो कुछ रही हो, मेरे लिए तो किसी देवता का आशीर्वाद थी। न-जाने मुझसे क्या ऐसी खता हो गयी। मगर कसम ले लीजिए, जो उसके मुख पर मैल तक आया हो। मेरी औकात ही क्या है बाबूजी ! दस-बारह आने का मजूर हूं; पर इसी में उसके हाथों इतनी बरकत थी कि कभी कमी नहीं पड़ी।’

मुझे इन शब्दों से घोर निराशा हुई। मैंने समझा था, वह उसकी बेवफाई की कथा कहेगा और मैं उसकी अंध-भक्ति पर कुछ सहानुभूति प्रकट करूंगा; मगर उस मूर्ख की आंखें अब तक नहीं खुलीं। अब भी उसी का मंत्र पढ़ रहा है। अवश्य ही इसका चित्त कुछ अव्यवस्थित है।