Balak by Munshi Premchand
Balak by Munshi Premchand

मैंने कुटिल परिहास आरम्भ किया- ‘तो तुम्हारे घर से कुछ नहीं ले गयी?

‘कुछ भी नहीं बाबूजी, धेले की भी चीज नहीं।’

‘और तुमसे प्रेम भी बहुत करती थी?’

‘अब आपसे क्या कहूं बाबूजी, वह प्रेम तो मरते दम तक याद रहेगा।’

‘फिर भी तुम्हें छोड़कर चली गयी?’

‘यही तो आश्चर्य है बाबूजी!’

‘त्रिया-चरित्र का नाम कभी सुना है?’

‘अरे बाबूजी। ऐसा न कहिए। मेरी गर्दन पर कोई छुरी रख दे, तो भी मैं उसका यश ही गाऊंगा।’

‘तो फिर ढूँढ निकालो!’

‘हां, मालिक। जब तक उसे ढूंढ़ न लाऊंगा, मुझे चैन न आयेगा। मुझे इतना मालूम हो जाये कि वह कहां है, फिर तो मैं उसे ले ही आऊंगा; और बाबूजी, मेरा दिल कहता है कि वह आयेगी जरूर। देख लीजिएगा। वह मुझसे रूठकर नहीं गयी; लेकिन दिल नहीं मानता। जाता हूं, महीने-दो-महीने जंगल, पहाड़ की धूल छानूंगा। जीता रहा, तो फिर आपके दर्शन करूंगा।’

यह कहकर वह उन्माद की दशा में एक तरफ चल दिया।

इसके बाद मुझे एक जरूरत से नैनीताल जाना पड़ा। सैर करने के लिए नहीं। एक महीने के बाद लौटा और अभी कपड़े भी न उतारने पाया था कि देखता हूं, गंगू एक नवजात शिशु को गोद में लिये खड़ा है। शायद कृष्ण को पाकर नंद भी इतने पुलकित न हुए होंगे। मालूम होता था, उसके रोम-रोम से आनंद फूटा पड़ता है। चेहरे और आंखों से कृतज्ञता और श्रद्धा के राग-से निकल रहे थे। कुछ वही भाव था, जो किसी क्षुधा-पीड़ित भिक्षुक के चेहरे पर भरपेट भोजन करने के बाद नज़र आता है।

मैंने पूछा- ‘कहो महाराज, गोमती देवी का कुछ पता लगा, तुम तो बाहर गये थे?’

गंगू ने आपे में न समाते हुए जवाब दिया- ‘हां बाबूजी, आपके आशीर्वाद से ढूंढ़ लाया। लखनऊ के जनाने अस्पताल में मिली। यहां एक सहेली से कह गयी थी कि अगर वह बहुत घबराये तो बतला देना। मैं सुनते ही लखनऊ भागा और उसे घसीट लाया। घाते में यह बच्चा भी मिल गया।’ उसने बच्चे को उठाकर मेरी तरफ बढ़ाया। मानो कोई खिलाड़ी तमगा पाकर दिखा रहा हो।

मैंने उपहास के भाव से पूछा- ‘अच्छा, यह लड़का भी मिल गया? शायद इसलिए वह यहां से भागी थी। है तो तुम्हारा ही लड़का?’

‘मेरा काहे को है बाबूजी, आपका है, भगवान का है।’

‘तो लखनऊ में पैदा हुआ?’

‘हां बाबूजी, अभी तो कुल एक महीने का है।’

‘तुम्हारे ब्याह हुए कितने दिन हुए?’

‘यह सातवां महीना जा रहा है।’

‘तो शादी के छठे महीने पैदा हुआ?’

‘और क्या बाबूजी।’

‘फिर भी तुम्हारा लड़का है?’

‘हां, जी।’

‘कैसी बे-सिर-पैर की बात कर रहे हो?’

मालूम नहीं, वह मेरा आशय समझ रहा था या बन रहा था। उसी निष्कपट भाव से बोला‒ ‘मरते-मरते बची बाबूजी, नया जनम हुआ। तीन दिन, तीन रात छटपटाती रही। कुछ न पूछिए।’ मैंने अब जरा व्यंग्य-भाव से कहा‒ ‘लेकिन छह महीने में लड़का होते आज ही सुना।’ यह चोट निशाने पर जा बैठी।

मुस्कराकर बोला- ‘अच्छा, वह बात! मुझे तो उसका ध्यान भी नहीं आया। इसी भय से तो गोमती भागी थी। मैंने कहा- ‘गोमती, अगर तुम्हारा मन मुझसे नहीं मिलता, तो तुम मुझे छोड़ दो। मैं अभी चला जाऊंगा और फिर कभी तुम्हारे पास न आऊंगा। तुमको जब कुछ काम पड़े तो मुझे लिखना, मैं भरसक तुम्हारी मदद करूंगा। मुझे तुमसे कुछ मलाल नहीं है। मेरी आंखों में तुम अब भी उतनी ही भली हो। अब भी मैं तुम्हें उतना ही चाहता हूं। नहीं, अब मैं तुम्हें और ज्यादा चाहता हूं; लेकिन अगर तुम्हारा मन मुझसे फिर नहीं गया है, तो मेरे साथ चलो। गंगू जीते-जी तुमसे बेवफाई नहीं करेगा। मैंने तुमसे इसलिए विवाह नहीं किया कि तुम देवी हो; बल्कि इसलिए कि मैं तुम्हें चाहता था और सोचता था कि तुम भी मुझे चाहती हो। यह बच्चा मेरा बच्चा है। मेरा अपना बच्चा है। मैंने एक बोया हुआ खेत लिया, तो क्या उसकी फसल को इसलिए छोड़ दूंगा कि उसे किसी दूसरे ने बोया था?’ यह कहकर उसने जोर से ठठ्ठा मारा।

मैं कपड़े उतारना भूल गया। कह नहीं सकता, क्यों मेरी आंखें सजल हो गयीं। न जाने वह कौन-सी शक्ति थी, जिसने मेरी मनोगत घृणा को दबाकर मेरे हाथों को बढ़ा दिया। मैंने उस निष्कलंक बालक को गोद में ले लिया और इतने प्यार से उसका चुंबन लिया कि शायद अपने बच्चों का भी न लिया होगा।

गंगू बोला- ‘बाबूजी, आप बड़े सज्जन हैं। मैं गोमती से बार-बार आपका बखान किया करता हूं। कहता हूं, चल, एक बार उनके दर्शन कर आ; लेकिन मारे लाज के आती ही नहीं।’

मैं और सज्जन! अपनी सज्जनता का पर्दा आज मेरी आंखों से हटा। मैंने भक्ति से डूबे हुए स्वर में कहा- ‘नहीं जी, मेरे जैसे कलुषित मनुष्य के पास वह क्या आयेगी। चलो, मैं उनके दर्शन करने चलता हूं। तुम मुझे सज्जन समझते हो? मैं ऊपर से सज्जन हूं; पर दिल का कमीना हूं। असली सज्जनता तुममें है और यह बालक वह फूल है, जिससे तुम्हारी सज्जनता की महक निकल रही है।’ मैं बच्चे को छाती से लगाये हुए गंगू के साथ चला।