Hindi Poem: बागबान की झुकी कमर,
अब बोझ नहीं उठा पाती।
चेहरे की चमक अब,
झुर्री से ढक जाती।
जो हाथ पहले सारे घर का काम कर देते थे,
वह कांपते हाथ अब थाली भी ठीक से पकड़ नहीं पाते।
धूप की चटकीली किरणें अब इन आंखों को चुभती है,
फिर भी बागबान की आंखें रोज सुबह समय से जाग जाती हैं।
पैरों में जो था दमखम,
वह रफ्तार कहीं खो गई।
पर बागबां की मेहनत से ,
बगिया रोशन हो गई।
उम्र की ढलान पर आकर,
अपने बीते दिनों को याद करता है।
आराम करते हुए कभी,
अपने संघर्ष और सफलता,
के दिनो को याद करता है।
जीवन में मेहनत से चला,
ईमानदारी से काम किया।
बच्चों को पाल-पोस कर,
अपने पैरों पर खड़ा किया।
यही सोचकर वह अपने मन में संतोष करता है।
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