आनंद ने अंतिम बार दर्पण में अपना चेहरा देखा और इसके पश्चात् ज्यों ही द्वार की ओर बढ़ा-कमरे में आती भारती को देखकर उसके चेहरे पर खुशियों भरी मुस्कुराहट फैल गई।
आनंद के आगे बढ़ते कदम रुक गए।
‘गुड इवनिंग सर!’
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‘गुड इवनिंग भारती!’ आनंद ने भारती के अभिवादन का उत्तर दिया और बोला- ‘आओ-बैठो।’
भारती ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और बोली- ‘मेरा विचार है मैं ठीक समय पर नहीं आई।’
‘क्यों?’
‘आप कहीं जा रहे थे।’
‘यूं ही-थोड़ा घूमने का मन था, लेकिन तुम खड़ी क्यों हो? बैठो।’
‘सर! बैठने से तो अच्छा है कि हम लोग कहीं बाहर घूम लें। आपका मन भी बहल जाएगा और…।’
‘विचार तो बुरा नहीं। वैसे-चलना कहां है?’ भारती की आंखों में देखते हुए आनंद ने पूछा।
‘जहां आप कहें।’
‘सागर सरोवर?’
‘अच्छी जगह है।’ भारती बोली।
अगले ही क्षण दोनों होटल से बाहर आ गए और टैक्सी पकड़कर सागर सरोवर की ओर चल पड़े। लंबे मौन के पश्चात् आनंद ने भारती से कहा- ‘एक बात पूछूं भारती?’
‘पूछिए।’
‘भारती! तुम्हारा लगभग प्रतिदिन ही स्कूल से चलकर मेरे पास आना और संध्या को लौटना-यह सब तुम्हें कैसा लगता है?’
‘बहुत अच्छा। और आप?’
‘मैं क्या?’
‘आपको कैसे लगता है?
‘एक स्वप्न की भांति।’ आनंद ने निःश्वास ली और बोला- ‘बहुत अच्छा लगता है स्वप्न देखना, लेकिन तुम जानती हो कि भोर होने पर स्वप्न टूटता अवश्य है। और जब टूटता है-तो बहुत दुःख होता है।’
भारती ने चौंककर आनंद को देखा। आनंद के चेहरे पर पीड़ा के भाव फैल गए थे। किन्तु आनंद के इन वाक्यों में जो रहस्य छुपा था-वह भारती न समझ सकी।
तभी आनंद फिर बोला- ‘स्वप्न तो तुमने भी देखे होंगे भारती?’
‘देखे हैं सर!’
‘कैसा लगता है-उनका टूटकर बिखरना?’
‘अच्छा नहीं लगता सर!’
‘बहुत पीड़ा होती है-होती है न?’ आनंद ने कहा और ध्यान से भारती का चेहरा देखने लगा।
भारती उसकी बात का अर्थ न समझ पाई और धीरे से बोली- ‘जी!’
फिर तो अच्छा यह है भारती! कि स्वप्नों से कोई संबंध न बनाया जाए। ऐसे संबंध से क्या लाभ जिससे पीड़ा के अतिरिक्त अन्य कुछ भी न मिले।’
‘मैं समझी नहीं सर!’
‘भारती! मैं पिछले कई दिनों से तुम्हारे विषय में सोच रहा हूं। तुम्हारा मुझसे मिलना-मेरी पीड़ाओं को बांटने का प्रयास करना-यह सब यूं ही तो नहीं हो सकता भारती! मैं यह भी नहीं मानता कि तुम मुझे छलने का प्रयास कर रही हो। तुम्हारी जैसी निष्कपट एवं सरल हृदय लड़की किसी को छल भी नहीं सकती। स्पष्ट है कि तुम्हारे हृदय में मेरे लिए प्रेम का अंकुर फूट पड़ा हो। न-न-बुरा मत मानो भारती! यह सब होना स्वाभाविक है। मन कब किसे अपना मान बैठे, हृदय के तारे कब किसी दूसरे से जुड़ जाए, यह सब कहना बहुत मुश्किल होता है। विश्वास करो! मुझे यह सब बुरा भी नहीं लगता है। कौन नहीं चाहता कि संसार में कोई उसका अपना हो। कोई हो जो उसके दर्द को बांट सके-कोई हो जो उसे प्यार दे सके।’
भारती सुनती रही।
आनंद कहता रहा- ‘बहुत खुशी हुई थी तुमसे मिलकर, आज भी होती है। लेकिन…।’
‘लेकिन…।’ भारती के होंठ खुले।
‘पीड़ा भी होती है भारती!’
‘वह क्यों सर?’
‘यह सोचकर कि तुम्हारे यह स्वप्न कभी साकार न हो पाएंगे।’
भारती के होंठों पर मुस्कुराहट फैल गई। सोचने लगी-आनंद ने उसे कितना गलत समझा था। उसके हृदय में आनंद के लिए अपनेपन की भावना थी और सहानुभूति थी-किन्तु प्रेम न था। आनंद ने उसके अपनेपन को ही प्रेम समझा था।
तभी आनंद बोला- ‘तुम शायद बुरा मान गईं?’
‘वह क्यों?’
‘मैंने यह सब कहकर तुम्हारा हृदय दुखाया।’
‘नहीं प्रोफेसर साहब! ऐसा बिलकुल नहीं हुआ।’ इतना कहकर भारती ने एक पल के लिए खिड़की से बाहर देखा और फिर आनंद से बोली- ‘कारण यह है सर! कि मुझे स्वप्न देखने की आदत नहीं है। मैंने अपने जीवन में कल्पनाओं के ऐसे महल कभी नहीं बनाए जो बनते ही टूट गए हों। सच्चाई यह है कि मेरे मन में आपके लिए केवल श्रद्धा तो है, सहानुभूति भी है-किन्तु प्रेम नहीं है।’
‘सॉरी भारती!’
‘और।’ भारती फिर बोली- ‘ऐसा इसलिए है सर! क्योेंकि मैंने किसी के प्रेम को लूटना कभी नहीं सीखा है। मैं दो हृदयों के बीच दीवार बनकर खड़े होना पाप समझती हूं। आप मनु के हैं सर! और मैं ईश्वर से प्रार्थना करती हूं कि आप हमेशा उसी के होकर रहें। मनु के अतिरिक्त कोई दूसरा आपके जीवन में कभी न आ सके।’
आनंद ने पश्चातापपूर्ण स्वर में कहा- ‘आई एम रियली सॉरी भारती! मैंने तुम्हें गलत समझा था।’
तभी टैक्सी रुक गई।
सागर सरोवर आ चुका था।
मनु ज्यों ही किनारे पर आई-निखिल ने उसे हाथ पकड़कर खींच लिया। मनु उससे किसी लता की भांति लिपट गई। निखिल उसे चूमकर बोला- ‘आओ अब चलें।’
‘ऊंहु! अभी नहीं।’
‘और कब?’
‘चांद के उदय होने पर। कहते हैं चांद की किरणें जब सरोवर को चूमती हैं तो ऐसा लगता है मानो पृथ्वी पर स्वर्ग उतर आया हो।’
‘स्वर्ग तो यहां अब भी है।’ निखिल शरारत से बोला।
‘वह कहां?’ मनु ने पूछा।
‘मेरी बांहों में।’
‘ऊंहु! बहुत बनाते हो तुम।’
‘अच्छा बाबा! अब न बनाएंगे।’ कहते हुए निखिल ने उसे फिर से चूम लिया और बोला- ‘कॉफी तो लोगी?’
‘मन तो है।’
‘मैं ले आता हूं-बैठो।’
मनु ने बैठकर अपने पांव सरोवर में डाल लिए। निखिल सड़क के उस पार बने रेस्तरां से कॉफी लेने चला गया। माझी अपनी नाव दूसरे किनारे पर ले गया था।
एकाएक मनु चौंककर उठ गई।
देखा-आनंद उससे कुछ ही दूरी पर एक वृक्ष से सटा सरोवर की लहरों को गिन रहा था और भारती कुछ ही आगे एक चट्टान पर बैठी थी। हवा के झोंके उसका आंचल उड़ा रहे थे और वह उसे बार-बार संभालने का प्रयास कर रही थी।
न जाने आनंद और भारती यहां कब आए थे।
उन्हें देखकर मनु के जबड़े भिंच गए। उसे यों लगा-मानो हृदय में एकाएक ही कोई ज्वालामुखी फूट पड़ा था। मानो एक तूफान आया और उसने मनु के मस्तिष्क को झंझोड़ डाला। इसके पश्चात् वह स्वयं को न रोक सकी और आनंद के पास पहुंचकर घृणा से बोली-
‘तुम बता सकते हो-मेरा पीछा करने से तुम्हें क्या मिलता है? क्यों आते हो तुम बार-बार मेरे मार्ग में?’
आनंद ने मनु को देखा। होंठों पर दर्द भरी मुस्कुराहट फैल गई। बोला- ‘यह गलत है कि मैं तुम्हारा पीछा करता हूं। वैसे भी मैं उन राहों को मुड़कर नहीं देखता, जो पीछे छूट जाती हैं।’
‘तुम्हारा भारती से मिलना और जान-बूझकर मेरे सामने से गुजरना क्या इसका अर्थ यह नहीं कि तुम मुझे जलाना चाहते हो? तुम-तुम राखकर डालना चाहते हो मुझे?’
‘राख तो तुम्हें होना ही है मनु! किन्तु तुम्हारे राख होने का संबंध मुझसे न होगा। और हां-यह भी झूठ है कि मैं तुम्हें जलाना चाहता हूं। तुम्हें अपनी मंजिल मिल गई-मैं अपनी राहों पर चल पड़ा-अतः इसमें जलने जैसी कोई बात भी नहीं।’
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‘क्या तुम भारती को नहीं चाहते? तुम-तुम भारती से प्रेम नहीं करते?’ मनु ने घृणा से पूछा। इस घृणा में भी पीड़ा छुपी थी।
आनंद ने उत्तर दिया- ‘किसी से प्रेम करना और न करना-यह सब अपने वश में नहीं होता मनु!’
‘इसका मतलब है?’
‘नहीं मनु! यह सच नहीं। मुझमें और तुम्हारे विचारों में एक अंतर ये भी है कि तुम प्रेम को भी बाजार में बिकने वाली वस्तु मानती हो। जब मन हुआ खरीदा, जब मन हुआ-किसी दूसरे को बेच दिया। किन्तु मेरी दृष्टि में यह प्रेम नहीं। प्रेम सदैव किसी एक से ही होता है और उसे बांटा नहीं जाता।’
‘अर्थात् तुम भारती से प्रेम नहीं करते?’
‘मनु! मैंने केवल तुमसे प्रेम किया है और मैं केवल तुमसे प्रेम करता हूं। यह भी यकीन रखो कि मेरे जीवन में तुम्हारे अतिरिक्त कोई दूसरा कभी नहीं आएगा।’ आनंद ने कहा। फिर एकाएक उसे कुछ ध्यान आया और उसने जेब से निकालकर एक कागज मनु की ओर बढ़ा दिया।
मनु ने कागज लेकर कड़वाहट से पूछा- ‘क्या है?’
‘मैं तुम्हारे वकील से मिला था। पता चला कि तुमने मुझ पर तलाक के लिए जो आरोप लगाए हैं-वे पर्याप्त नहीं हैं। अतः मैं अपनी ओर से कुछ आरोप लिखकर लाया हूं ताकि तुम्हें दिक्कत न हो और अदालत का निर्णय तुम्हारे पक्ष में हो।’
‘कितने घटिया इंसान हो तुम।’ मनु घृणा से दांत पीसकर बड़बड़ाई और इसके साथ ही उसने आनंद के कागज को टुकड़े-टुकड़े कर दिया। इसके पश्चात् वह मुड़ी और तेज-तेज कदमों से चलकर निखिल की गाड़ी के समीप आ गई।
निखिल कार्पेट पर बैठा था।
कॉफी का थर्मस एवं मग सामने रखे थे। मनु के तमतमाए चेहरे को देखकर वह बोला- ‘तुम्हारी तबीयत तो खराब नहीं हो गई मनु?’
‘नहीं!’ मनु ने धीरे से कहा और मग में कॉफी डालने लगी।
‘लेकिन तुम्हारा चेहरा?’
‘क्या हुआ मेरे चेहरे को?’
‘मुझे लग रहा है कि…।’
‘निक्की! यह तुम्हारी आदत है कि छोटी-छोटी बातों पर बहुत ध्यान देते हो। कॉफी लो।’
निखिल ने मग उठा लिया।
कॉफी समाप्त होने तक दोनों मौन रहे।
इसके पश्चात् मनु उठकर बोली- ‘आओ अब चलें?’
‘इतनी जल्दी?’
‘हां।’
‘चांद को न देखोगी?’
‘चांद तो रात में उदय होगा।’
‘तो क्या हुआ?’
‘देर हो जाएगी।’
‘इसमें दिक्कत क्या है? आज की रात यहीं रुक जाएंगे। ठंडी हवाएं, वातावरण पर बिखरी चांदनी और हम-तुम। क्या ये सब तुम्हें अच्छा नहीं लगेगा?’

‘नहीं! आज नहीं।’
‘और कब?’
मनु झुंझलाकर बोली- ‘देखो निक्की! यदि तुम्हें यहीं रुकना है तो रुको। मैं चलती हूं।’ इतना कहकर वह गाड़ी में बैठ गई।
निखिल को भी बैठना पड़ा। उसने गाड़ी स्टार्ट की और मुस्कुराकर बोला- ‘बहुत सुंदर लगती हो तुम।’
‘निक्की! मेरा मन ठीक नहीं।’
‘मन तो हमारा भी ठीक नहीं।’
‘तुम्हारे मन को क्या हुआ?’
‘आग-सी लगी है।’
‘तो फिर गाड़ी रोक दो।’
‘क्यों?’
‘सरोवर अभी निकट ही है।’
‘उसमें क्या होगा?’
‘आग बुझ जाएगी।’
‘वह आग तो हम यहां भी बुझा लेंगे मनु रानी!’ निखिल ने कहा और इसके साथ ही उसने गाड़ी रोककर मनु को अपनी ओर खींच लिया।
मनु उसकी गोद में गिर पड़ी और निखिल उसके होंठों पर चुंबनों की बौछार करने लगा। किन्तु मनु का मन उसके चुंबनों की ओर न था। वह इस समय भी आनंद के विषय में सोच रही थी।
अभिशाप-भाग-25 दिनांक 15 Mar. 2022 समय 04:00 बजे साम प्रकाशित होगा

