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bhootnath by devkinandan khatri

हम नहीं कह सकते कि इन्द्रदेव ने जमना और सरस्वती को इतने बड़े कठिन और साहस का काम करने के लिए इजाजत क्यों कर दे दी।

जब तक दयाराम मरे हुए समझे जाते थे और जमना तथा सरस्वती बिलकुल इन्द्रदेव के अधीन थी तब तक जो कुछ इन्द्रदेव ने मुनासिब समझा किया और कर सकते थे परन्तु ऐसी अवस्था में जबकि दयाराम प्रकट हो गये और वे दोनों अपने पति के पास पहुँचा दी गई,

भूतनाथ नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1

तब उन पर सिवाय दयाराम के और किसी का अधिकार न रह गया, अस्तु न जमना और सरस्वती ही को दयाराम की आज्ञा के बिना घर के बाहर निकलने और ऐसे काम में हाथ डालना उचित था और न इन्द्रदेव ही को ऐसी आज्ञा देने और उनका उत्साह बढ़ाने की जरूरत थी। संभव है कि इसमें इन्द्रदेव ने किसी तरह का फायदा समझ लिया हो, अस्तु।

सुबह की सुफेदी आसमान पर कुछ-कुछ फैल चुकी थी जब जमना और सरस्वती अपने सामान से हर तरह से दुरुस्त हो मरदाने भेष में तिलिस्मी झिल्ली चेहरे पर लगाए हुए घर से बाहर निकली। मकान के सदर फाटक पर दो कसे-कसाये घोड़े लिस साईस तैयार था, तथा और भी एक आदमी घोड़े पर सवार इन दोनों के आने का इंतजार कर रहा था।

जमना और सरस्वती दोनों घोड़ों पर सवार हो गईं और मैदान की तरफ चल निकली। वह आदमी से भी पूछने पर ‘दत्त’ के नाम का परिचय देकर दोनों के साथ हो गया। दो-तीन जगह ठहर दिनभर बल्कि आधी रात तक सफर करने के बाद ये तीनों आदमी उस जंगल में जा पहुँचे जिसमें कि अजायबघर की इमारत थी।

इस अजायबघर का खुलासा हाल चन्द्रकान्ता सन्तति में पूरा-पूरा लिख जा चुका है, आशा है उसे हमारे पाठक भूले न होंगे, इसलिए यहाँ दोहरा कर उसके लिखने की कोई जरूरत नहीं जान पड़ती।

जब ये तीनों उस अजायबघर के पास पहुंचे तो वह कुछ दूर पहिले ही घोड़ों पर से नीचे उतर पड़े और घोड़ों को पेड़ के साथ बाँध कर पैदल अजायबघर की तरफ चल पड़े।

जब उस चश्मे के पास पहुंचे जो अजायबघर के नीचे से होकर बहता था तब इन तीनों को अजायबघर के बंगले के बाहर निकलती हुई एक रोशनी दिखाई दी। यह लोग अटक कर बड़े गौर से उस रोशनी की तरफ देखने लगे।

यद्यपि ये लोग पास पहुँच चुके थे मगर पेड़ों के ऐसे झुरमुट में खड़े थे कि इस अँधेरी रात के समय किसी के देख लेने का इन लोगों को बिलकुल ही डर न था अस्तु बड़ी बेफिक्री के साथ ये लोग उस रोशनी की तरफ देखने लगे। कुछ ही क्षण में भूतनाथ पर इन लोगों की निगाह पड़ी जो कि अपने हाथ में रोशनी लिए हुए अजायबघर की सीढ़ियों के नीचे उतर रहा था। उसके पीछे-पीछे चलते हुए जमानिया के दारोगा भी दिखाई पड़े। ये दोनों सीढ़ियों के नीचे नहीं उतरे थे कि तीनों लाशों के लिए और भी आदमी मकान के अन्दर से निकल कर इनके पीछे-पीछे आते दिखाई पड़े।

इन सभों को देखकर जमना, सरस्वती और दत्त तीनों घबड़ा उठे और उनके दिल में तरह-तरह के सोच-विचार पैदा और नष्ट होने लगे। जमना ने दत्त की तरफ घूम कर कहा-

जमना : क्या यह संभव है कि यह सब उन्हीं लोगों को निकाल कर लिए जाते हों जिनको छुड़ाने के लिए हम लोग यहाँ आए हैं?

दत्त : मुझे तो विश्वास होता है, क्योंकि जैपालका गिरफ्तार होकर तुम लोगों के कब्जे पहुँचना ही इस बात की पुष्टि करता है कि भैया राजा, प्रभाकर सिंह और दयाराम ने भूतनाथ के कब्जे से जैपाल को छुड़ा कर इन्द्रदेव के यहाँ भेज दिया और भूतनाथ को छोड़ दिया।

तो ताज्जुब नहीं कि भूतनाथ ने दारोगा से मिलकर यह सब हाल नमक-मिर्च लगा कर बयान किया हो और दारोगा यह खयाल करके कि शायद जैपाल सिंह की जुबानी किसी तरह वे लोग हमारे कैदियों का पता लगा लें और हमारे कैदियों को छुड़ाकर ले जाए, अपने कैदियों को दूसरी जगह रखने के लिये यहाँ से निकाल कर लिए जाता हो।

जमना : बेशक् यही बात है, वह देखो बंगले के अन्दर से एक आदमी और निकला, इसके हाथ में नंगी तलवार भी है।

दत्त : यह आदमी बहादुर मालूम पड़ता है और जान पड़ता है कि इन सभों का निगहबान है।

जमना : ऐसी हालत में जिस तरह बन पड़े इन लोगों को रोकना और कैदियों को इनके कब्जे में छुड़ाना चाहिए नहीं तो हम लोगों की मेहनत बिलकुल बर्बाद जाएगी और पुन: कैदियों को पता लगाना बहुत मुश्किल हो जाएगा।

दत्त : यह तो ठीक है मगर इतने आदमियों के कब्जे से इन कैदियों को छुड़ा लेना मुझ अकेले के लिए बहुत ही कठिन हैं भूतनाथ साधारण ऐयार नहीं है, दारोगा भी लड़े बिना रह नहीं सकता और इनके पीछे-पीछे जो आदमी चला जा रहा है वह भी मुझे उन दोनों से बढ़ कर ताकतवर और बहादुर जान पड़ता है। इसके अतिरिक्त जो लोग तीनों कैदियों को उठा कर लिये जा रहे हैं वे भी मुकाबला करने से बाज न आवेंगे।

जमना : आप अकेले क्यों हैं? हम दोनों भी तो आपका साथ दे सकती हैं! यद्यपि हम दोनों औरतें हैं मगर जो तिलिस्मी खंजर इंद्रदेव ने हम लोगों को दे रखे है उसका मुकाबला करना इन सभों के लिए कठिन ही नहीं, असंभव है।

दत्त : हाँ ठीक है, मुझे भी इन्द्रदेव जी ने एक ऐसे ही गुण की तिलिस्मी तलवार दी है जिसके भरोसे पर मैं अकेला ही इन सभों का मुकाबला कर सकता हूँ यदि इन लोगों के पास कोई उसके मुकाबले का हर्बा न हो तो।।

जमना : इन लोगों के पास भला इसके मुकाबले का हरबा कहाँ से आवेगा!

दत्त : नहीं की हालत में तो कोई बात ही नहीं है, हम लोग जरूर फतह पावेंगे, परन्तु यदि कोई हर्बा इसके जोड़ का इन लोगों के पास हुआ तो बड़ी ही मुश्किल होगी, हम लोग बिना गिरफ्तार हुए बाकी न रहेंगे। (कुछ रुककर) अच्छा देखो मैं इनका मुकाबला करता हूँ, जरा इन लोगों को और आगे बढ़ लेने दो। तुम दोनों मेरी मदद के लिए तैयार रहना मगर दूर रहना, अगर देखना कि ये भी ऐसे ही तिलिस्मी हर्बे से मेरा मुकाबला करने के लिए तैयार हो गये हैं तो तुम दोनों जरूर यहाँ से भाग जाना, मेरे लिए किसी तरह की चिंता न करना।

जमना : मैं आपको ऐसे संकट में अकेले छोड़कर…

दत्त : नहीं-नहीं, मैं जो कहता हूँ कि तुम दोनों किसी बात का विचार न करके एकदम यहाँ से भाग जाना, मैं अपने को किसी-न-किसी तरह बचा ही लूँगा।

जमना : खैर, जैसा आप कहते हैं मैं वैसा ही करूँगी।

भूतनाथ और दारोगा वगैरह कैदियों को लिए हुए लगभग दो-ढाई सौ कदम के आगे न बढ़े होंगे कि दत्त तेजी के साथ आगे बढ़ा और भूतनाथ का रास्ता रोक सामने खड़ा होकर बोला, “बस खबरदार, कदम रोक लो, बिना मेरी बात का जवाब दिये आगे मत बढ़ना नहीं तो अपनी जान से हाथ धो बैठोगे।”

भूतनाथ : (रुककर और मशाल की रोशनी में अच्छी तरह दत्त का चेहरा देखकर) तुम कौन हो जो इस तरह से आकर मेरा रास्ता रोकते हो? तुम नहीं जानते कि मैं कौन हूँ और मेरे साथ इस समय कितने आदमी हैं?

दत्त : मैं तुम्हें खूब जानता हूँ और तुम्हारे साथियों को भी देख रहा हूँ।

भूतनाथ : तो क्या तुम हम लोगों का मुकाबला करने के लिए तैयार हो?

दत्त : बेशक् ! अगर तुम मेरी बातों का साफ-साफ जवाब न दोगे तो मैं अकेला तुम सब का मुकाबला करूँगा।

भूतनाथ : तुम क्या पूछना चाहते हो?

दत्त : सिर्फ इतना जानना चाहता हूँ कि तुम लोग किस-किस को उठा कर कहाँ लिए जा रहे हो?

भूतनाथ : इसका जवाब तुम कदापि नहीं पा सकते।

दत्त : तो मैं तुम लोगों को जीता छोड़ भी नहीं सकता।

इतना कहकर दत्त ने म्यान से तलवार निकाल ली और मुकाबला करने के लिए भूतनाथ को ललकारा। भूतनाथ ने घूम कर दारोगा की तरफ देखकर कुछ इशारा किया और तब पीछे की तरफ हट मशाल ऊँची करके अपनी खास बोली में कुछ कहा। दारोगा ने म्यान से तलवार निकाल ली और दत्त के मुकाबले में आ खड़ा हुआ।

भूतनाथ की आवाज सुन कर वह आदमी भी आगे बढ़ आया जो सबके पीछे-पीछे आ रहा था, इसके अतिरिक्त वे लोग भी जो तीनों लाशों को उठाए हुए थे अपना बोझ जमीन पर रख कर आगे बढ़ आए और दत्त को पकड़ने के लिए तैयार हो गये। दारोगा ने दत्त पर तलवार का वार किया मगर उसका कोई नतीजा न निकला। दत्त ने हँस कर दारोगा से कहा, “दारोगा साहब, क्या आप भी अपना नाम बहादुरों में लिखवाना चाहते हैं?”

दारोगा : क्या मैं मर्द नहीं हूँ?

दत्त : आज तक तो कोई काम मर्दानेपन का आपने नहीं किया।

दारोगा : खैर बहस की कोई जरूरत नहीं, तुम जो कुछ किया चाहते हो करो और समझ रखो कि (हाथ के इशारे से बताकर) इतने आदमियों का तुम कदापि मुकाबला नहीं कर सकते।

इतना कहकर दारोगा ने पुन: दत्त पर तलवार से वार किया और दत्त ने भी इसका जवाब तलवार से ही दिया। दत्त ने समझा था कि ये लोग सब बेईमान हैं, जरूर एक साथ मुझ पर हमला करेंगे, मगर ऐसा न हुआ, सब अलग खड़े तमाशा देखने लगे और दत्त तथा दारोगा साहब में लड़ाई होने लगी।

दत्त को बड़ा ही आश्चर्य हुआ जब दारोगा साहब ने बड़ी मर्दानगी और दिलावरी के साथ उसका मुकाबला किया। दत्त यही जानता था कि दारोगा अपने घर के अन्दर ही के बहादुर हैं, किसी वीर के साथ वीरता प्रकट नहीं कर सकते।

लगभग आधे घंटे की लड़ाई होती रही मगर दारोगा साहब को दत्त किसी तरह से नीचा दिखा न सका। लाचार होकर दत्त ने कमर से तिलिस्मी तलवार निकाली और उससे दारोगा पर वार किया जिससे दारोगा के बदन पर एक छोटा-सा जख्म तो लगा मगर वह बेहोश नहीं हुआ।

यह तिलिस्मी तलवार वैसी ही थी जैसी कि प्रभाकर सिंह के पास थी और जो कुछ दिनों के लिए भूतनाथ के पास भी चली गई थी। इस समय दारोगा के पास भी वैसी ही तलवार और उसके जोड़ की अंगूठी मौजूद थी और यही सबब था कि दारोगा साहब जख्म खाकर भी बेहोश नहीं हुए मगर यह जान गये कि यह तलवार तिलिस्मी है और दत्त को भी विश्वास हो गया कि इसके पास कोई तिलिस्मी हर्बा जरूर है।

मजबूर होकर दत्त ने यह तलवार भी म्यान के अन्दर रख ली और मुकाबला करने के लिए तिलिस्मी खंजर कमर से निकाला।

यह खंजर वैसा था जैसा कुँवर इन्द्रजीत सिंह और आनन्द सिंह को कमलिनी ने दिया था और जिसका खुलासा बयान चन्द्रकान्ता सन्तति में लिखा जा चुका है अर्थात् जिसका कब्जा दबाने से बिजली की तरह रोशनी पैदा होती थी और दुश्मनों की आँखें झिप जाती थीं अथवा बदन के साथ लगाने से आदमी बेहोश हो सकता था।

दत्त ने खंजर का कब्जा दबाया और इसमें से बिजली की तरह रोशनी पैदा हुई जिससे दारोगा और भूतनाथ वगैरह सभों की आँखें बंद हो गईं।

मगर उस आदमी पर, जो इन सभों के पीछे आया था, और जब आगे बढ़कर दत्त के पास पहुँच चुका था, इस रोशनी का कुछ असर न हुआ। थोड़ी देर के लिए हम इस आदमी का नाम भीम रख देते हैं क्योंकि इस जगह पर कह नहीं सकते कि वास्तव में उसका क्या नाम था।

दत्त के खंजर की अवस्था देख कर भीम आगे आया और दत्त के मुकाबले में खड़ा होकर बोला, “तुम्हारे इस खंजर का जवाब मैं दूंगा और साबित कर दूँगा कि तुम इससे भी हम लोगों पर फतह नहीं पा सकते। क्यों व्यर्थ अपनी जान के दुश्मन बनते हो और हमारा हर्ज कर रहे हो!”

भीम ने वैसा ही तिलिस्मी खंजर कमर से निकाला और दत्त का मुकाबला किया अर्थात् दत्त और भीम में तिलिस्मी खंजर से लड़ाई होने लगी।

खंजरबाजी में दोनों ही निपुण और होशियार मालूम पड़ते थे। लगभग आधा घंटे दोनों में लड़ाई होती रही मगर दोनों में से कोई एक-दूसरे पर फतह न पा सका। भीम अथवा दारोगा के साथियों में से कोई भी इस बहादुराना और अजीब लड़ाई का लुत्फ उठा न सका क्योंकि खंजरों की चमक से उन सभों की बल्कि दारोगा तक की आँखें बंद हो जाती थीं। हाँ जमना और सरस्वती जरूर उन लोगों की लड़ाई ताज्जुब के साथ देख रही थी जो कि उन सभों से थोड़ी ही दूर पर झुर-मुट में छिपी हुई थी।

जब खंजरों की लड़ाई का कुछ भी नतीजा न निकला तब दत्त और भीम दोनों एक-दूसरे का मुकाबला छोड़ कर खड़े हो गये और खंजरों की चमक से एक-दूसरे का मुँह देखने लगे। भीम ने धीरे-से दत्त से कहा, “मालूम होता है कि बादलों में अब बरसने की ताकत नहीं रही।”

दत्त : बेशक् ऐसा ही है क्योंकि हवा -पानी और धुएँ का सच्चा जमावड़ा नहीं हो सका।

दत्त का जवाब सुनते ही भीम उसके पैरों पर गिर पड़ा और दत्त ने उसे उठा कर छाती से लगा लिया। इसके बाद वे दोनों आदमी वहाँ से कुछ दूर हट कर खड़े हो गये और आपस में धीरे-धीरे कुछ बातें करने लगे। इस मामले को सभों ने आश्चर्य और खेद के साथ देखा तथा जमना और सरस्वती को उन दोनों का ऐसा करना बहुत ही बुरा मालूम हुआ।

केवल इतना ही नहीं बल्कि उन दोनों को दत्त पर एक तरह का शक पैदा हो गया। सरस्वती ने जमना से कहाँ, “यद्यपि हम लोगों ने उन दोनों की बातें नहीं सुनीं मगर उनके ढंग से मालूम होता है कि दत्त ने अपने को कमजोर पाकर गिरफ्तार हो जाने के डर से दुश्मनों को दोस्त बना लिया।”

जमना : मेरा भी यही खयाल है, अगर यह बात सच है तो हम दोनों के लिए भी खैरियत नहीं है।

सरस्वती : बेहतर तो यही होगा कि हम दोनों यहाँ से हट जाएँ और किसी दूसरी जगह छिपकर तमाशा देखें, जिसमें दत्त हमारे दुश्मनों को लेकर अगर यहाँ आवे तो यकायक हम दोनों को पा न सके।

जमना : हाँ, ऐसा ही करो।

इतना कह वे दोनों वहाँ से हट गईं और बहुत धीरे-धीरे कदम उठाती हुईं दूसरी तरफ चलीं।

जब दत्त और भीम की बातें समाप्त हो गई तब वे दोनों पुन: उसी जगह पहुँचे जहाँ भीम के साथ लोग खड़े थे। भीम ने भूतनाथ और दारोगा का हाथ पकड़ कर कहा-“आओ-आओ। जरा जमना और सरस्वती से मुलाकात करो। वे दोनों भी तुम लोगों को गिरफ्तार करने के लिए इसी जगह आई हुई हैं!”

दत्त, भीम, दारोगा और भूतनाथ उधर रवाना हुए जहाँ जमना और सरस्वती को दत्त छोड़ गया था, मगर ठिकाने पहुँचकर जब जमना और सरस्वती को नहीं पाया तब दत्त को बड़ा ही आश्चर्य हुआ और वह खंजर की अद्भुत रोशनी में घूम-घूमकर जमना और सरस्वती को ढूँढ़ने लगा।

उसी समय बहुत-से आदमी हाथ में नंगी तलवारें लिए हुए वहाँ आ पहुँचे जिन्होंने उस सारी जमीन को घेर लिया जहाँ दत्त, भीम, दारोगा, भूतनाथ और उनके साथी लोग थे तथा एक जगह मौका देखकर जमना और सरस्वती भी छिपी हुई थी।

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