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bhootnath by devkinandan khatri

दयाराम को कैद से छुड़ाने के बाद जब इन्द्रदेव ने कैलाश-भवन में पहुंचे तब उस समय आधी रात होने के कारण उनके मकान में सन्नाटा छाया हुआ था मगर एक कमरे में जिसमें जमना और सरस्वती रहती थीं सन्नाटा नहीं था, उसमें जमना, सरस्वती, इन्दुमति, प्रभाकर सिंह और भैया राजा बैठे जमानिया की अवस्था और अपने भाग्य पर तरह-तरह की बातें कर रहे थे तथा दयाराम के मामले में चिंता के साथ सोचते हुए इन्द्रदेव का इंतजार कर रहे थे। सबके पहिले इन्द्रदेव अपने कमरे में गये और वहाँ अपने लोहे के सन्दूक में कुछ कागज वगैरह रखने के बाद वहाँ गये जहाँ उनकी स्त्री सूर्य रहा करती थी।

भूतनाथ नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1

उस समय वह घोर निद्रा में थी परन्तु इन्द्रदेव के वहाँ पहुँचते ही पैरों की चाप सुनकर जाग गई और चारपाई के नीचे उतर कर उसने अपने पति को प्रणाम करके चारपाई पर बैठ जाने का इशारा किया।

इन्द्रदेव चारपाई पर बैठ गए और उन्होंने अपने सफर तथा दयाराम के छुड़ाने का हाल बयान करके कहा कि अब इनका इरादा क्या है तथा सरयू को भी अब क्या करना चाहिए। इसके बाद आधे घंटे तक उन दोनों में भेद की बातें होती रहीं, अंत में सरयू को साथ लिए हुए वे उस कमरे में गये जिसमें जमना, सरस्वती, इन्दुमति, प्रभाकर सिंह और भैया राजा बैठे हुए इन्द्रदेव का इंतजार कर रहे थे।

इन्द्रदेव को देख सब उठ खड़े हुए और यथोचित् दंड-प्रणाम तथा साहब सलामत के बाद कुशल-मंगल पूछकर सब कोई बैठ गए और बातचीत करने लगे। इन्द्रदेव को अकेले देखकर जमना और सरस्वती वगैरह को बड़ा ही आश्चर्य हुआ क्योंकि उन्हें इसका पूरा-पूरा विश्वास था कि इन्द्रदेव जरूर दयाराम को साथ लेकर घर में आवेंगे परन्तु उन्होंने दयाराम के बदले में सरयू को उनके साथ देखा।

निराश हो जाने के कारण जमना और सरस्वती के चेहरे पर उदासी छा गई जिसे देखते ही इन्द्रदेव उसका कारण समझ गए और उन्होंने जमना तथा सरस्वती की तरफ देखकर कहा, “मैं तुम दोनों को इस बात की मुबारकबाद देता हूँ कि मेरा यह सफर ईश्वर की कृपा से व्यर्थ नहीं गया और जिस काम के लिए मैं गया था उसे पूरा कर आया।”

इन्द्रदेव के मुँह से यह बात सुनकर दोनों प्रसन्न तो हुईं मगर उनकी चिंता दूर न हुई। जमना ने कुछ धीमी आवाज में इंद्रदेव को यह जवाब दिया, “परन्तु मैं तो आपको यहाँ अकेला ही देखती हूँ!”

इन्द्रदेव : हाँ अकेला देखती हो मगर कुछ चिंता की बात नहीं।

प्रभाकरसिंह : आपके कथन से तो यही जान पड़ता है कि आपने दयाराम जी को कैद से छुड़ा लिया, परंतु यहाँ आपको अकेले आए हुए देखकर हम लोगों की चिंता अथवा उत्कंठा यदि बढ़ जाय तो कोई आश्चर्य की बात नहीं हैं।

इन्द्रदेव : बेशक् ऐसा हो सकता है परन्तु मैं साफ-साफ कहे देता हूँ कि मैं दयाराम को एक दुष्ट की कैद से छुड़ा लाया। यहाँ अपने साथ न लाने का भी एक कारण है। मैं यह उचित समझता हूँ कि तुम लोग खुद चलकर उनसे मुलाकात कर लो, ऐसा करने से हम लोगों को सच्चा आनन्द आवेगा।

जमना : तो आप उन्हें कहाँ छोड़ आए हैं?

इन्द्रदेव : अपने असली और पुराने मकान में जो मेरा और मेरे बुजुर्गों का वास्तविक स्थान है।

भैया राजा : अगर आप उन्हें यहाँ ले आते तो क्या हर्ज था?

इन्द्रदेव : दुश्मनों के खयाल से मैंने ऐसा नहीं किया, कमबख्त दारोगा कोई मामूली आदमी नहीं है और भूतनाथ को भी इस मामले की खबर लग चुकी है तथा वह भी अपना जाल पूरी तरह फैला चुका है। नहीं कह सकते कि दयाराम के विषय में उसकी नीयत क्या है, केवल इतना ही नहीं, मेरे इस मकान में दारोगा या भूतनाथ का आ पहुँचना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। परन्तु दयाराम की जिद्द यही है कि मैं अभी लोगों में अपने को प्रकट नहीं करूँगा बल्कि अभी किसी को इस बात का पता भी न लगने दूँगा कि वास्तव में दयाराम जीते हैं अथवा दारोगा की कैद से उन्हें रिहाई मिल गई।

प्रभाकर सिंह : ऐसा क्यों?

इन्द्रदेव : इसका सबब उनसे मुलाकात होने पर आप लोगों को मालूम हो जाएगा। पहिले आप लोग उनसे मुलाकात तो कीजिए और देखिए तो सही कि इस कैद की बदौलत उनकी सूरत क्या हो रही है। वह तिलिस्मी स्थान बहुत सुरक्षित है, वहाँ कोई हम लोगों का दुश्मन पहुँच नहीं सकता और न उन्हें वहाँ किसी तरह की तकलीफ हो ही सकती है। इसके अतिरिक्त तुम लोगों ने भी अभी तक हमारा वह स्थान देखा नहीं है, केवल सुनते ही आते हो कि इन्द्रदेव किसी तिलिस्म का दारोगा है, अब सब कोई चलो और देखो कि कैसा सुन्दर और सुहावना स्थान है, और वहाँ चलने के लिए आज से बढ़ कर अच्छा मौका भी कब मिलेगा।

सरस्वती : आप वहाँ कब चलेंगे?

इन्द्रदेव : अभी इसी समय मैं चलने के लिए तैयार हूँ बल्कि रथ और घोड़ों को तैयार करने का हुक्म भी दे चुका हूँ। अब लोगों को जो कुछ बातें करना है वहाँ पहुँच कर ही करेंगे।

प्रभाकर सिंह : बहुत अच्छी बात है।

इन्द्रदेव के तिलिस्मी स्थान को देखने की इन सभों को पहिले ही से इच्छा थी परन्तु लिहाज से भी कुछ कह नहीं सके थे। आज वह जगह देखने में आवेगी और दयाराम से भी मुलाकात होगी यह जान कर सभी कोई प्रसन्न हुए और वहाँ जाने की तैयारी करने लगे। उसी समय एक लौंडी ने आकर इत्तिला की कि सवारी हाजिर है।

पहर-भर रात बाकी होगी जब जमना, सरस्वती, इन्दुमति और सरयू रथ पर और इन्द्रदेव, प्रभाकर सिंह तथा भैया राजा घोड़ों पर सवार तिलिस्म की तरफ रवाना हुए।

इन्द्रदेव का तिलिस्म मकान कैसा था और वहाँ पहुँचने का रास्ता किस ढंग का था इसका हाल चन्द्रकान्ता सन्तति में बहुत खुलासे तौर पर लिखा गया है, आशा है कि हमारे प्रेमी पाठक उसे भूले न होंगे।

इन लोगों का सफर यद्यपि बहुत तेजी के साथ हुआ तथापि जब ये लोग उस पहाड़ी के नीचे पहुँचे जिसके ऊपर कुछ और रास्ता तय करने के बाद उस तिलिस्मी घाटी का मुहाना मिलता था तो दिन दो पहर से कुछ ज्यादा ढल चुका था। ये लोग सवारी से नीचे उतरे और पहाड़ पर चढ़ने लगे। अभी तक इन लोगों में से किसी ने स्नान का भोजन नहीं किया था और दयाराम से मिलने की चाह में किसी को इस बात की फिक्र भी न थी मगर इन्द्रदेव ने ऐसा करना उचित न जाना क्योंकि उन्हें विश्वास था कि जब ये लोग दयाराम के सामने पहुँच जाएँगे तो मारे खुशी के और बातचीत की धुन में इन लोगों को खाने-पीने की कुछ भी सुध न रहेगी और न इसका मौका ही मिलेगा। अस्तु इन बातों का विचार कर पहाड़ी के कुछ ऊपर चढ़ने के बाद चश्मे के किनारे पहुँचकर इन्द्रदेव ने डेरा डाल दिया और सभों को निपटने और स्नान इत्यादि से छुट्टी पाकर कुछ जलपान करने के लिए कहा। इन्द्रदेव ने जलपान का इंतजाम घर से ही कर लिया था अर्थात् कुछ मेवा-मुरब्बा वगैरह अपने साथ रथ पर लेते आए थे। लाचार होकर सभी को इन्द्रदेव की आज्ञा माननी पड़ी।

घंटे-सवा-घंटे की देर में सब कोई जरूरी कामों से निपटने के बाद कुछ भोजन इत्यादि करके भी निश्चिंत हो गए। अब उन लोगों को पैदल ही सफर करना पड़ा परन्तु थकावट का चिन्ह किसी के भी चेहरे पर दिखाई नहीं देता था और वे लोग दयाराम से मिलने की धुन में बराबर कदम बढ़ाए चले जा रहे थे। केवल इतना ही नहीं, सरयू और इन्द्रदेव को छोड़कर बाकी सभी को इस बात का शौक उमड़ रहा था कि देखें इन्द्रदेव का तिलिस्मी स्थान कैसा है।

घंटे-भर और सफर करने के बाद यह मंडली उस गुफा या सुरंग के मुहाने पर जा पहुँची जो इन्द्रदेव की घाटी में जाने का रास्ता या दरवाजा था। इस गुफा के दोनों तरफ दो चौड़े पत्थर रखे हुए थे जिन पर थोड़ी देर बैठ कर आराम करने के लिए इन्द्रदेव ने सभों को कहा। देर तक वहाँ आराम करने के बाद सभों ने इन्द्रदेव से कहा, “बस हब हम लोग आराम कर चुके, विशेष देर करना गढ़ाता है।”

इन्द्रदेव तैयार हो गए, सभों को साथ लिए गुफा के अन्दर घुसे। यह गुफा अन्दर से बहुत खुलासा और प्रशस्त तो थी परन्तु इसके अन्दर बिलकुल अंधकार था। इन्द्रदेव के पीछे-पीछे एक-दूसरे का सहारा लिया क्रमश: सब कोई चलने लगे। लगभग सौ कदम जाने के बाद रास्ता घूमा और इन्द्रदेव के पीछे सब कोई बाईं तरफ को रवाना हुए। थोड़ी दूर और जाने के बाद इन्द्रदेव रुके क्योंकि यहाँ पर उन्हें कोई दरवाजा खोलना था और इसी तरकीब बहुत ही गुप्त थी। लोगों को सिवाय एक खटके की आवाज सुनाई देने के और कुछ भी मालूम न हुआ। उस समय इन्द्रदेव वहाँ खड़े हो गए और धीरे-धीरे सभों को उस दरवाजे के अन्दर करके स्वयं सब के पीछे रह गये और तब पुन: सभों को दरवाजा बंद होने की आहट मालूम हुई। अब इन्द्रदेव ने मोमबत्ती जलाकर रोशनी की।

सब कोई बहुत देर तक अँधेरी गुफा में रहने और चलने के कारण घबड़ा गए थे, अब जो वहाँ रोशनी दिखाई दी तो सभों के जी-में-जी आया और आश्चर्य के साथ सब कोई इधर-उधर देखने लगे। यहाँ पर नीचे उतरने के लिए कुछ सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। उसे खतम करके कुछ दूर और चलने के बाद सुरंग समाप्त हुई और सभों की निगाह एक ऐसे सुन्दर, सुहावने और रमणीक स्थान पर पड़ी कि जिसके देखते ही सबका दिल बाग-बाग हो गया, सभों ही के मुँह से वाह-वाह की आवाज आने लगी।

यह सुन्दर, सुहावना और दिलचस्प सुन्दर-सुन्दर गुलबूटों से भरा मैदान चारों तरफ की हरी-भरी ढालवीं पहाड़ियों से घिरा हुआ था। हरे-हरे तथा खुशबूदार फूलों से लदे हुए पेड़ तथा लताओं की खुशबू बहुतायत से निकल कर हवा में मन्द-मन्द मिलकर जिस तरह दिमाग को मुअत्तर कर रही थी उसी तरह रंग-बिरंगे की खुशनुमना चिड़ियों की आवाज तथा गूंजते और फूलों पर न्यौछावर होते हुए भौरों की पत्तियाँ कोनों और आँखें को भी बहुत ही भली और प्यारी मालूम होती थी। यही जी चाहता था कि यहाँ से क्षण-भर भी हट कर कहीं न जाएँ और न इस स्वर्ग-तुल्य स्थान को देखने से मुंह मोड़ें। एक तरफ पहाड़ी की आधी ऊँचाई से सुन्दर झरना नीचे की तरफ गिर रहा था जिसके साफ-सुथरे बिल्लौर के-से जल की बदौलत उस मैदान के गुलबूटों और पौधों की सिंचाई बखूबी होती थी तथा और भी बहुत-से छोटे झरने पहाड़ी से बह रहे थे जिससे यहाँ की तरावट में किसी तरह की कमी नहीं आने पाती थी और यहाँ के पेड़ भी हर वक्त सरसब्ज और शादाब बने रहते थे। दूसरी तरफ पहाड़ी के ऊपर एक सुन्दर बँगला भी दिखाई दे रहा था और वह अपने चारों तरफ के गुलबूटों और पौधों से ऐसा मालूम पड़ता था मानो बसन्त ऋतु में कामदेव के भवन को बाग-बगीचों ने चारों तरफ से घेर रखा हो।

उन पहाड़ियों पर चढ़ने और उतरने के लिए हर तरफ छोटी-बड़ी तथा मनभावन सीढ़ियाँ बनी हुई थी और जगह-जगह पर बैठ कर आनन्द लेने के लिए रंग-बिरंगे पत्थरों के बड़े-बड़े चट्टान मौजूद थे जिनके इर्द-गिर्द मौके-मौके से खुशनुमा और कीमती गमले सजाए हुए थे।

वहाँ की ऐसी अवस्था देखकर सभों का चित्त-प्रसन्न हो गया मगर जमना और सरस्वती की आँखें यहाँ के गुलबूटों का आनन्द उतना ही नहीं ले रही थीं जितना दयाराम को खोजने के लिए उतावली होकर खंजन की-सी चंचलता करती हुई चारों तरफ देख रही थीं।

सभों को साथ लिए हुए इन्द्रदेव अपने बंगले की तरफ रवाना हुए। सब कोई सीढ़ियाँ उतर कर उस सुन्दर मैदान में पहुंचे और फिर बगल की तरफ वाली पहाड़ी पर चढ़ने लगे। . कुछ दूर ऊपर चढ़ने के बाद जमना और सरस्वती की निगाह यकायक किसी लताकुँज के नीचे एक चट्टान पर बैठे हुए दयाराम के ऊपर जा पड़ी जो इस समय सर झुकाए हुए कुछ सोच रहे थे। यद्यपि इस समय हँसमुख दयाराम का वह गोरा, सुन्दर और साफ चेहरा न था, न वह गोलमटोल तथा गठीला बदन ही था, दिल की उदासी और कैद की सख्ती ने उनके चेहरे और तमाम बदन पर झुर्रियाँ डाल दी थी और अंधेरे में रहते-रहते उनका रंग पीला पड़ गया था, मुद्दत से हजामत न बनने के कारण उनकी दाढ़ी-मूंछ और सिर के बाल बेहिसाब बढ़ रहे थे जिससे उनका चेहरा भालू-का-सा और सूरत वहशियों या जंगलियों की-सी हो रही थी तथापि नजर पड़ने के साथ ही जमना और सरस्वती का कलेजा धड़कने लगा। उनके दिल ने कहा कि बेशक् उनके प्यारे पति यही हैं। बहुत दिनों तक कैद में पड़े रहने के कारण यदि उनकी ऐसी सूरत हो गई हो तो कोई ताज्जुब की बात नहीं है, अस्तु उनकी ओर इशारा करके जमना और सरस्वती ने इन्द्रदेव की तरफ देखा।

इन्द्रदेव ने मुसकराते हुए कहा, “हाँ, दयाराम यही हैं, शायद हम लोगों के इंतजार में ये बँगले से बाहर निकलकर यहाँ आ बैठे हैं, यह जरूर संभव था कि मैं इनके चेहरे और बदन की सफाई करा देता परन्तु तुम लोगों को इनकी अवस्था दिखाने की नीयत से ऐसा नहीं किया। इनके विषय में तुम लोग किसी तरह का शक न करो, यद्यपि आजकल का जमाना बहुत बुरा हो रहा है-हर तरफ ऐयारियों और चालबाजियों का डंका बज रहा है परन्तु मेरे काम में और इनके दयाराम होने में किसी तरह का धोखा नहीं है। कैदखाने के अन्दर ही मुझसे और इनसे गूढ़ तथा गुप्त बातें हो चुकी हैं और इसके बाद तो पहरों ही…देखो अब वे स्वयं उठकर हम लोगों की तरफ आने लगे।”

इन्द्रदेव की बातों ने सभों ही का ध्यान दयाराम की तरफ कर दिया और सभी कोई आश्चर्य और दु:ख के साथ उनकी तरफ देखने लगे। जब यह देखा कि वे स्वयं उठकर उन लोगों की तरफ आने लगे तब सभों की चाल में तेजी आ गई और प्रसन्नता के साथ सब कोई कदम बढ़ाते हुए उनकी तरफ लपके।

हम नहीं कह सकते कि इस समय जमना और सरस्वती के दिल की क्या हालत थी। जब दयाराम नजदीक आ पहुँचे तब जमना और सरस्वती झपटकर उनके पैर पर जा गिरी और गर्म आँसुओं की धार से उनके चरण को धोने लगी। इन्द्रदेव को दयाराम पिता के बराबर मानते और इज्जत करते थे इसलिए उन्होंने इस समय अपने हृदय के वेग को रोका और जमना तथा सरस्वती के साथ वह बर्ताव नहीं कर सके जो एकांत में अथवा केवल सखियों और दासियों के सामने करते। केवल इतना ही नहीं, उन दोनों को पैरों पर से उठाने के लिए जब झुके तो कोई ऐसा शब्द धीरे-से बोल पड़े जिसे कोई दूसरा सुन न सका और जमना तथा सरस्वती को भी ज्ञान हो जाने के कारण उनके सादे बर्ताव पर कुछ दु:ख न हुआ।

वे दोनों उनके पैरों पर से उठकर हाथ जोड़े सामने खड़ी हो गईं और इसके बाद सभी कोई हँसते और मुबारकबादी देते हुए उनसे मिले। मिलते समय जिसका जिस तरह का बर्ताव मुनासिब था उसने वैसा ही किया। दयाराम ने भैया राजा, इन्द्रदेव और सरयू को प्रणाम किया तथा प्रभाकर सिंह उनके गले मिले। इस समय किसी के मुँह से यह न निकला कि चलो बँगले में चलकर आराम से बैठे और तब निश्चिन्ती से बातचीत करें। खुशी के मारे सब उसी जगह जमीन पर बैठ गए और समयानुकूल तरह-तरह की बातें करने लगे।

प्रभाकर सिंह : (दयाराम से) हरे-हरे, यह बात क्या कोई स्वप्न में भी विचार सकता था कि आप दुनिया में जीते-जागते मौजूद और एक दिन इस तरह पर हम लोग आपका दर्शन करेंगे।

भैया राजा : कदापि नहीं, तमाम जमाने को इनके मरने का विश्वास हो चुका था। जा कुछ गम जिसके दिल में था वह धीरे-धीरे जाता रहा था, यहाँ तक कि एक जमाना बीत जाने के कारण सर्वसाधारण के दिल से इनकी याद भी एक तरह से जाती रही, हाँ जो इनके बड़े ही प्रेमी थे केवल उन्हीं के दिल में कभी-कभी इनका ध्यान आ जाता हो तो कोई ताज्जुब की बात नहीं।

इन्द्रदेव : मुझे तो इनका मिलना एक आश्चर्य-सा जान पड़ता है, परमात्मा की भी क्या विचित्र माया है, जिस बात का कुछ ज्ञान न गुमान वह यकायक पैदा हो गई। ईश्वर की कृपा के अतिरिक्त मैं नहीं कह सकता कि और किसको इसके लिए धन्यवाद दूँ?

कुछ देर तक इसी प्रकार की बातें होती रहीं परन्तु जमना और सरस्वती के मुँह से एक शब्द भी नहीं निकला, हाँ आँखों से आँसुओं की धारा बराबर बहती रही। इसके बाद इन्द्रदेव सबको बँगले में ले गये। वहाँ सभों के लिए अलग-अलग कमरों और कोठरियों तथा कपड़ों का उचित प्रबंध करने के बाद अपने हाथ से दयाराम की हजामत बनाई और स्नान वगैरह करा के कपड़े बदलवाए। इन सब कामों से छुट्टी पाते-पाते तक संध्या हो गई और तब सब कोई निश्चिन्त होकर एक कमरे में बैठे और बातचीत तथा हँसी-दिल्लगी करने लगे। आज यहाँ सभी का चित्त प्रसन्न था और सभी को दयाराम की कहानी सुनने का शौक हो रहा था।

सबके पहिले जमना और सरस्वती ने अपनी तथा अपने साथ-ही-साथ इन्दुमति की दर्दनाक कहानी दयाराम से कह सुनायी और तब प्रभाकर सिंह ने अपना तथा भूतनाथ का बचा हुआ हाल बयान करके सभी कसर पूरी की। तत्पश्चात् भैया राजा का हाल इन्द्रदेव ने बयान किया। इसी के बीच भूतनाथ का हाल थोड़ा-थोड़ा सबकी जुबान से दयाराम ने सुना और अंत में सबने दयाराम का हाल पूछा।

दयाराम ने कहा, “मेरा किस्सा न तो अनूठा है। और न उसमें किसी अनूठी घटना का बयान हो सकता है सिवाय इसके कि वर्षों कैद में कैसे पड़े सड़ा किए और दु:ख भोगते रहे। कैद में इतना मुझे जरूर मालूम हो गया कि जमानिया का दारोगा राजसिंह का मददगार है और उसी की सहायता से राजसिंह ने मुझे गिरफ्तार भी किया था। अंत में भूतनाथ पर कब्जा करने की नीयत से दारोगा मुझे अपने यहाँ ले आया और तब से मैं दारोगा का कैदखाना आबाद किये हुए था। मुझे अपने छूटने या छुड़ाने का कभी भी कोई अच्छा मौका नहीं मिला और न कोई मददगार ही दिखाई दिया। यदि आपको यकायक मेरा पता न लगता तो शायद मेरी जिंदगी उस कैदखाने में ही पूरी होती और अंत में मेरी लाश बिना संस्कार ही के जमीन में गाड़ दी जाती। आप लोगों की जबानी जो कुछ मैंने सुना उससे यही जान पड़ता है कि दारोगा के दिल में सदा ही से हम लोगों की दुश्मनी की जड़ें जमी हुई हैं और वह हम सभों ही के साथ खोटा बर्ताव करता चला आया है, परन्तु आप सदा ही उसका अपराध क्षमा करते चले आए और अपनी तरफ से किसी प्रकार का रंज भी उस पर प्रकट नहीं होने दे रहे हैं। ऐसा दिल और ऐसी बर्दाश्त शायद ही दुनिया में किसी को हो। केवल दारोगा ही के साथ नहीं बल्कि गदाधरसिंह के साथ भी आपने वैसा ही बर्ताव किया, जिस तरह भीष्म पितामह जी ने अपने प्रण की रक्षा की थी अर्थात् पिता के प्रसन्नतार्थ न तो उन्होंने शादी ही की और न तमाम शरीर बाणों से बिंध जाने पर भी उन्होंने शिखंडी पर शस्त्र या अस्त्र ही चलाया, उसी तरह आप भी तब तक अपने वचन की रक्षा करते चले आए और सैकड़ों आघात सह कर आपने उस पर किसी तरह का वार नहीं किया।

प्रभाकर सिंह : बेशक् ऐसी ही बात है, इन्द्रदेव जी ने जो कुछ किया व दूसरा कोई नहीं कर सकता।

दयाराम : परन्तु अब जो मैं देखता हूँ तो उन दोनों स्त्रियों का तथा प्रभाकर सिंह और भैया राजा जी का यकायक प्रकट होना कोई मामूली बात नहीं। इससे उन दोनों का बड़ा ही अनिष्ट होगा। चाचाजी (इन्द्रदेव) के चुप रह जाने पर भी दुनिया उन्हें सत्यानाश कर डालेगी।

भैया राजा : इसमें भी क्या कोई शक है? और इतना ही नहीं, उन दोनों का अनिष्ट होने के साथ-ही-साथ यह बात भी छिपी न रह जाएगी कि इन्द्रदेव जी ने हम लोगों के विषय में क्या-क्या कार्रवाई की है और उन दोनों के साथ कितना मुलाहिजा करते आए हैं।

इन्द्रदेव : मुझे अगर कुछ डर रहा है तो इसी बात का था। मैं नहीं चाहता कि मेरी इन कार्रवाइयों का सर्वसाधारण को पता लगे और न मैं यही चाहता हूँ कि दारोगा तथा भूतनाथ को यह मालूम हो कि मैंने उनके विषय में कोई काम किया है अथवा उनके भेदों को मैं जानता हूँ (कुछ सोच कर) परन्तु यह बात असंभव-सी जान पड़ती है।

दयाराम : बेशक् यह बात असंभव है लेकिन मैं अपने शरीर से कदापि आपका प्रण झूठा न होने दूंगा। जिस तरह भीष्म जी ने अपने पिता की प्रतिज्ञा रखी थी उसी तरह मैं सब दु:ख सहन करने पर भी आपकी, जिन्हें मैं पिता से बढ़कर दोष न लगने दूंगा।

इन्द्रदेव : (आश्चर्य से) मगर यह कैसे हो सकेगा?

दयाराम : इसका होना कोई कठिन नहीं हैं तमाम जमाना जान चुका है कि दयाराम मर गया। मेरे आत्मीय और संबंधियों के दिल से धीरे-धीरे मेरा रंज भी निकल चुका है, अस्तु अब मुझे इस बात की कोई जरूरत नहीं रह गई कि मैं खुले मैदान प्रकट होकर उन लोगों से मिलूँ और सभों को अपना तथा आपका हाल मालूम होने दूं। बस इसी सुन्दर घाटी में कहीं थोड़ी-सी जगह दे दें जहाँ मैं अपनी स्त्रियों के साथ रहकर बची हुई जिंदगी ईश्वराधना में बिता दूँ।

इन्द्रदेव : शाबाश-शाबाश, इस हिम्मत को देखकर मैं तुम्हारी सराहना करता हूँ, परन्तु यह कैसे हो सकता है कि मैं अपने हाथ से तुम्हारे पैर में कुल्हाड़ी मारूँ और इतने दिनों तक कैद की तकलीफ उठाने के बाद रिहाई मिलने पर भी तुम्हें दुनिया की हवा खाने या दुनिया के सुख-दु:ख से वंचित रखूँ?

दयाराम : नहीं-नहीं, इसके लिए आप जरा भी चिंता न करें। मैं शपथपूर्वक आपसे कहता हूँ कि मुझे इन बातों की अब कुछ भी लालसा नहीं है। कदाचित् कभी मेरे दिल में यह आ भी जाय कि यहाँ से बाहर निकलकर दुनिया की हवा खाऊँ और जमाने की चाल-चलन को देखूँ तो यह बात भी आपकी कृपा से मेरे और मेरी स्त्रियों के लिए सहज हो जाएगी अर्थात् हम लोगों को आप थोड़ी-सी ऐयारी सिखा देंगे तो उसकी बदौलत दुनिया की सैर कभी-कभी कर लिया करूँगा। बात यह है कि ऐसा करने में मेरे दिल को जरा भी कष्ट न होगा, इसे आप सत्य समझें।

इन्द्रदेव : (प्रेम के कारण डबडबाई हुई आँखों से दयाराम की तरफ देख के) बेटा, तुम्हारी जहाँ तक प्रशंसा की जाए थोड़ी है। जबकि मेरी इज्जत, बात तथा प्रण की रक्षा करने वाला तुम्हारे जैसा सुपुत्र दुनिया में मौजूद है तब मुझे किस बात की परवाह हो सकती है? नि:सन्देह मैं तुम्हें पाकर अपने को कृतकृत्य समझता हूँ। ईश्वर तुम्हें चिरायु करे। जमना और सरस्वती को दुनिया की आफतों से बचे रहने के लिए मैंने ऐयारी सिखाई है और तुम्हें भी अवश्य सिखाऊँगा बल्कि इसके संबंध की बड़ी अनूठी चीजें दूँगा जिससे तुम सदैव प्रसन्न रहोगे। बहुत नहीं तो थोड़े दिनों तक तो तुम इस स्थान में गुप्त रीति से रहो फिर जैसी ईश्वर की मर्जी होगी देखा जाएगा। वह सर्वशक्तिमान जगदीश्वर सबकी इच्छा पूर्ण करने वाला है।

प्रभाकर सिंह : (हाथ जोड़कर) मेरी भी एक प्रार्थना है।

इन्द्रदेव : वह क्या?

प्रभाकर सिंह : मुझे और इन्दुमति को भी आपने ऐयारी सिखाई जिसके कारण यद्यपि मेरी हिम्मत और ताकत बहुत बढ़ी हुई है परन्तु मैं भी दयाराम जी का अनुकरण किया चाहता हूँ। आप मुझे आज्ञा दें कि मैं इनके साथ इसी घाटी में रहा करूँ, सिवाय आपके मेरा तो इस दुनिया में अब कोई रोने वाला भी नहीं है।

इन्द्रदेव : तुम्हारा घर है, तुम खुशी के साथ जब तक चाहो यहाँ रह सकते हो। परन्तु दयाराम की तरह गुप्त होकर तुम्हें रहने की तो कोई आवश्यकता नहीं है। इन्दुमति को यहाँ रख कर मेरी बदनामी को बचाते हुए दुनिया में घूम-फिर कर लोगों का उपकार कर सकते हो परन्तु भूतनाथ और दारोगा से यदि अपने को बचा सको तो।

प्रभाकर सिंह : मुझ अकेले को इन दोनों का कोई डर नहीं है। खैर, जैसा होगा देखा जाएगा।

भैया राजा : परन्तु मैं दारोगा को किसी तरह भी माफ नहीं कर सकता, मैं उसका और भाई साहब का जरूर सामना करूँगा और देखूँगा कि उस दुष्ट दारोगा की चालबाजी कहाँ तक काम करती है।

इन्द्रदेव : बेशक् आपको जमानिया में जाकर अपना घर देखना चाहिए परन्तु इस बात को आप जरूर छिपाए रहिएगा कि मैंने आपकी कभी मदद की थी।

भैया राजा : हाँ, इस बात को मैं जरूर बचाऊँगा और आपका भेद प्रकट न होने दूँगा।

इसी तरह की बातें सभों में बड़ी देर तक होती रहीं। जब भोजन का समय हुआ सब कोई वहाँ से उठे और दूसरे कमरे में जाकर सभों ने भोजन किया। इन्द्रदेव ने आज नाना प्रकार के भोजन की सामग्री तैयार कराई थी जिसे देखकर सभों को बड़ा ही आश्चर्य हुआ कि घर से इतनी दूर इस गुप्त स्थान में इतना जल्दी ऐसा सामान क्यों कर तैयार कराया गया।

भोजन से निश्चिन्त होकर सब कोई आराम करने के लिए अपने-अपने कमरे में गये जिसका बंदोबस्त इन्द्रदेव ने पहले ही से कर रखा था। दयाराम जी के लिए तीन-चार कमरों और कोठरियों का बंदोबस्त हुआ था जिसमें तरह-तरह के आराम का सामान मौजूद था, दयाराम और उनकी स्त्रियों में दु:ख उठाने पर मुदत के बाद मुलाकात हुई थी इसलिए उन लोगों को खुशी का तो कहना ही क्या है अस्तु इस संबंध में हम इससे जयादे और कुछ भी कहना मुनासिब नहीं समझते कि आज की रात उन लोगों के प्रेम का उद्गार किसी तरह कम न हुआ, हँसी-दिल्लगी में, उन लोगों ने जो-जो तकलीफें उठाई थीं, यह सब आज मानो स्वप्न के समान मालूम हो रही थी।

एक सप्ताह तक सभी ने उस घाटी में रहकर हँसी-खुशी से बिताया, इसके बाद दयाराम, जमना, सरस्वती, इन्दुमति और प्रभाकर सिंह को उसी जगह छोड़ कर बाकी सभों को साथ लिए इन्द्रदेव उस तिलिस्मी घाटी के बाहर हुए।

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