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bhootnath by devkinandan khatri

अब हम अपने पाठकों को एक कैदखाने के अन्दर ले चल कर थोड़ी देर के लिए वहाँ का दृश्य दिखाना चाहते हैं। इस कैदखाने में इस समय केवल जैपाल ही कैद है जिसे इस बात की कुछ भी खबर नहीं कि यह कैदखाना किस शहर में है, इसका मालिक कौन है, तथा उसे किसने गिरफ्तार करके कैद कर रखा है।

उसके हाथों में हथकड़ी और पैर में बेड़ी पड़ी हुई है। कपड़े बिलकुल ही मामूली दर्जे के हैं। एक कंबल बिछाने के लिए तथा दूसरा ओढ़ने के लिए उसे दिया गया है।

भूतनाथ नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1

उससे सिर्फ चार-पाँच हाथ की दूरी पर पानी से भरा हुआ एक मिट्टी का घड़ा तथा पीतल का एक गिलास दिखाई दे रहा है। बस इसके अतिरिक्त उस कैदखाने में कुछ भी नहीं है। हाँ, एक तरफ चिराग जरूर जल रहा है जिसकी रोशनी इस कैदखाने के अंधकार को दूर कर रही है।

कैदखाने की यह कोठरी लगभग पाँच हाथ चौड़ी और आठ या दस हाथ लंबी होगी। तीन तरफ संगीन दीवार और चौथी तरफ लोहे का जंगला है और उसी जंगले में जाने के लिए छोटा-सा एक दरवाजा भी बना हुआ है।

जंगले के आगे एक मुख्तसर-सा दालान, मोरी और दोनों तरफ दो कोठरियाँ हैं तथा कोने में ऊपर चढ़ जाने के लिए छोटी-छोटी सीढ़ियाँ भी दिखाई दे रही हैं जिससे मालूम होता है कि यह कैदखाना किसी मकान के निचले हिस्से में बना हुआ है।

जैपाल कदाचित् इस बात को जानता है कि यह समय रात का है और कुछ ही समय बाद उसकी दुर्घटना होने वाली है। वह सर झुकाए हुए किसी गंभीर चिंता में निमग्न है मगर थोड़ी-सी देर में उन सीढ़ियों की तरफ देख लेता है जो बाहर दालान में ऊपर चढ़ जाने के लिए बनी हुई थीं।

कैदखाने के ऊपर वाली छत पर कुछ धमधमाहट की आवाज हुई और जैपाल ने पुन: सर उठा कर सीढ़ियों की तरफ देखा। एक औरत कोड़ा लिए हुए नीचे उतरी तथा उसके बाद दूसरी और फिर तीसरी औरत भी नीचे उतरी जिनके हाथों में नंगी तलवारें थीं।

इन्हें देखकर एक दफे जैपाल थर्रा उठा और उसके चेहरे पर मुर्दनी छा गई। हम नहीं कह सकते कि उन औरतों को वह पहिचानता था या नहीं।

उन औरतों के चेहरे पर नकाब पड़ी हुई थी और उनका तमाम बदन स्याह लबादों से ढका हुआ था। तीनों औरतें दरवाजा खोल कर कैदखाने के अन्दर आ गईं। जिस औरत के हाथ में कोड़ा था वह आगे बढ़ी और जैपाल के पास खड़ी होकर बोली, “कहिए आपने सोच-विचारकर क्या नतीजा निकला? मेरी बातों का ठीक-ठीक जवाब दोगे या नहीं?”

जैपाल सिंह : हाँ, जो कुछ मैं जानता हूँ वह जरूर कह दूँगा, मगर जिन बातों का मुझे गुमान भी नहीं है उनके विषय में मैं क्या कह सकता हूँ।

औरत : मैं खूब जानती हूँ कि तुम्हें क्या-क्या भेद मालूम है, इसलिए मैं वही बात पूछूँगी जिसका जवाब तुम दे सकते हो। यह बात हम लोगों से छिपी हुई नहीं है कि तुम दारोगा के कैसे दोस्त हो, दारोगा तुम्हें कितना मानता है और अपने पापकर्म तथा भेदों में तुम्हें कहाँ तक साथी बनाता है।

जैपाल सिंह : दुनिया में गप्पें बहुत उड़ा करती हैं मगर उनमें सार कुछ भी नहीं होता या बहुत ही कम होता है। दारोगा साहब का दोस्त बनने के लिए जितनी हैसियत, ताकत, होशियारी, बुद्धिमानी और ऐयारी की जरूरत है उसका सौवाँ हिस्सा भी मुझमें नहीं हैं, ऐसी अवस्था में वे क्यों कर मुझे अपना सच्चा हितैषी या दोस्त मान सकते हैं? मगर हाँ, गप्प उड़ाने वालों की जुबान रोकी नहीं जा सकती और न उसमें से असल तत्व को छाँटकर कोई अपनी दिलजमयी कर सकता है।

औरत : बुरे और दुष्ट तथा दुराचारी लोगों के दोस्त बनने में पंडित होने की कोई आवश्यकता नहीं, कोई विद्धान, बुद्धिमान, होशियार और सच्चा ऐयार दारोगा जैसे पतित और दुष्ट प्रकृति के आदमी का दोस्त नहीं बन सकता।

जो तुम्हारे ऐसे अदूरदर्शी और नालायक हैं वे ही उसके साथी बन सकते हैं। इसी तरह गप्पें भी बेबुनियाद नहीं हुआ करतीं, बिना एकवचन के बहुवचन का होना असंभव है।

किसी विद्वान का कथन है कि जब तक कोई एक चीज नहीं होती तब तक लोग उसे बहुत चीजें कह कर मशहूर नहीं कर सकते।

अस्तु मेरी कही बातों की पुष्टि करके मैं कहती हूँ कि तुझमें किसी तरह की हैसियत, ताकत, होशियारी और बुद्धिमानी नहीं और तू सच्चा ऐयार ही है इसलिए दारोगा से तेरी पटती है और तुझे वह उल्लू समझ कर अपने पाप का साथी और भागी बनाए हुए हैं और वास्तव में तू उसी के योग्य है भी। इसके अतिरिक्त जिस बात को हम लोग जानते हैं उसके छिपाने की कोशिश करना भी तेरा व्यर्थ है।

जैपाल सिंह : (कुछ सोचकर) मैं भी आप लोगों से बहस करना नहीं चाहता, जो कुछ जानता हूँ, उसे सच-सच कह दूँगा क्योंकि आपके हाथ का कोड़ा मुझे किसी तरह पर भी बहाना नहीं करने देगा यह मैं खूब समझता हूँ, मगर आप लोग भी व्यर्थ अन्याय करके मुझे दु:ख नहीं दोगी इसका भरोसा है।

औरत : अच्छा पहिले यह बता कि दयाराम जी कितने दिनों तक दारोगा के कैदखाने में रहे और इन दिनों वे कहाँ हैं?

जैपाल सिंह : इन दिनों वे कहाँ हैं सो तो मैं नहीं जानता मगर यह कह सकता हूँ कि दारोगा के कैदखाने में वे चार-पाँच वर्ष से ज्यादा ही दिनों तक रहे, अभी हाल में उनका कोई दोस्त उन्हें छुड़ा ले गया।

औरत : बेशक् यह बात तूने सच कही, अच्छा यह तो बता कि आजकल उसके कैदखाने में कौन-कौन हैं?

जैपालसिंह : मेरी जानकारी में तो इन दिनों उसके यहाँ कोई भी कैद नहीं है।

औरत : (बिगड़कर) कैद है और जरूर है! तू इस बात को खूब जानता है और कैदियों को अच्छी तरह पहिचानता भी है।

जैपाल सिंह : नहीं नहीं, मैं सच कहता हूँ कि और किसी कैदी के विषय में मैं कुछ भी नहीं जानता, हाँ, भैया राजा की स्त्री जरूर उनके कब्जे में हैं।

औरत : उन्हें उसने कहाँ पर रखा है?

जैपाल सिंह : सो मैं नहीं जानता।

औरत : (सिर हिला कर) बेशक् तू नहीं जानता, क्योंकि कल की मार तुझे याद नहीं है। खैर कोई चिंता नहीं, मेरे हाथ का यह कोड़ा पता लगा लेगा कि कम्बख्त दारोगा ने उन्हें कहाँ पर कैद रखा है, मगर पहिले तुझे यह बताना पड़ेगा कि उसे कितने आदमियों को दारोगा ने कैद कर रखा है और वे इस समय कहाँ हैं! इस विषय में बहाना करना तेरे हक में अच्छा नहीं ।

कैदियों का हाल ठीक-ठीक बता देने ही से मैं तुझे छोड़ दूँगी, नहीं तो समझ रख कि इस कैदखाने में तेरी जिंदगी समाप्त हो जाएगी और इस कोड़े से हर रोज तेरी खातिर की जाएगी।

जैपाल सिंह : (कुछ देर तक सोचकर) मैं नहीं कह सकता कि मेरी बातों पर किस तरह आपको विश्वास होगा तथापि जो कुछ मैं जानता हूँ वह साफ कहे देता हूँ, दारोगा साहब के यहाँ अब भी चार-पाँच कैदी हैं मगर सिवाय भैया राजा की स्त्री के आगे और किसी को भी मैं नहीं पहिचानाता।

पहिले तो वे कैदी उनके घर ही में तहखाने के अन्दर कैद थे परन्तु जब ये दयाराम को कोई छुड़ा कर ले गया है तब से अपने मकान में वे किसी कैदी को नहीं रखते। महाराज से उन्हें अजायबघर की ताली ले ली है और सब कैदियों को उसी अजायबघर में पहुँचा दिया है।

औरत : मैंने भी ऐसा ही सुना है परन्तु तेरी इस बात को मैं आजमाऊँगी, अगर तू सच्चा निकला तो जरूर तुझे छोड़ दूंगी!

जैपाल सिंह : क्या उस अजायबघर को तुम जानती हो?

औरत : मैं खूब जानती हूँ।

जैपाल सिंह : मगर उसके अन्दर जाना बिलकुल ही असंभव है।

औरत : कदाचित् ऐसा ही हो मगर मुझे तुझसे कोई मतलब नहीं, तेरा कहना ठीक होने से ही मैं। तुझे छोड़ दूंगी।

जैपाल सिंह : जबकि वहाँ तक तुम पहुँच ही नहीं सकती हो बल्कि और भी किसी का पहुँचना असंभव है तब मेरी बातों को सच्चाई का हाल तुम्हें जल्दी कैसे मालूम हो सकता है। ऐसी अवस्था में सच कह देने पर भी मैं व्यर्थ की मुसीबत झेलता रहूँगा।

औरत : नहीं, ऐसा नहीं होगा, मैं वहाँ पहुँचने का बंदोबस्त कर लूँगी और तुझे ज्यादा दिनों तक यहाँ सड़ना न पड़ेगा।

जैपाल सिंह : अगर मुझे अपने साथ ले चलो तो मैं इस काम में तुम्हारी मदद भी कर सकूँगा।

औरत : (हँसकर) तेरी मदद की मुझे कोई जरूर नहीं तथापि मैं सोच कर कल इस बात का जवाब तुझको दूंगी।

इतना कहकर वह औरत वहाँ से हट गई। कैदखाने का दरवाजा बंद कर दिया गया और तीनों औरतें जिस राह से आई थीं ऊपर चली गईं। ये तीनों औरतें जमना, सरस्वती और इन्दुमति थी जो कि आजकल इन्द्रदेव के कैलाश-भवन में दिखाई दे रही हैं और जैपाल कैलाश-भवन ही के एक कैदखाने में बंद है जिसे दयाराम, भैया राजा और प्रभाकर सिंह ने भूतनाथ के कब्जे से निकालकर यहाँ भेज दिया था तथा जिसका कुछ हाल ऊपर बयान हो चुक है और होगा।

उस समय दो-ढाई घंटे रात जा चुकी थी, कैदखाने से निकल कर वे तीनों इन्द्रदेव के पास पहुँची जो कि इस समय अपने पूजा वाले कमरे में संगमरमर की एक चौकी पर बैठे श्रीभगवद्गीता का पाठ करते हुए उनकी गुत्थियों को सुलझाने का उद्योग कर रहे थे।

जमना, सरस्वती और इन्दुमति उसके पास जाकर चौकी के नीचे दाहिनी तरफ बैठ गईं। इन्द्रदेव ने मुसकुराते हुए उनकी तरफ देखा और पूछा, “कहो तुम तीनों जैपालसे मिल आईं?’

जमना : जी हाँ, वह तो बड़ा ही डरपोक है, उसमें इतनी हिम्मत कहाँ कि अपने मित्रों के भेदों को छिपाने के लिए जान समर्पण करे या कष्ट उठाये!

इन्द्रदेव : दुनिया में जितने लोभी-लालची और खुदगर्ज आदमी हैं उन सभी का यही हाल है। अच्छा कुछ हाल उसकी जुबानी मालूम हुआ?

जमना : जी हाँ, यह भी उसी बात की पुष्टि करता है अर्थात् कहता है कि ‘दारोगा ने अपने सब कैदियों को अजायबघर में ले जाकर बंद कर दिया है।’

इन्द्रदेव : वास्तव में यही बात ठीक है। जिस दिन मुझे यह खबर लगी कि दारोगा ने अजायबघर की ताली राजा साहब से ले ली है उसी दिन मैं समझ गया कि अब वह अपने कैदियों को वहाँ ले जाकर रखेगा।

पर कोई चिंता नहीं, दयाराम, प्रभाकर सिंह और भैया राजा जिस उत्साह के साथ गये हैं आशा है कि अपने काम में अवश्य सफल-मनोरथ होंगे। यद्यपि वे तीनों बहुत कुछ कर गुजरने के योग्य हैं तथापि मुझे विश्वास नहीं हुआ, आज सवेरे मैंने अपने दो शिष्यों को भी उनकी मदद के लिए भेज दिया है।

जमना : तो क्या मेरा मनोरथ सिद्ध न होगा?

इन्द्रदेव : तुम तो व्यर्थ ही इस मामले में पड़ना चाहती हो। बहुत दिनों तक दु:ख भोगने के बाद ईश्वर ने तुम्हारे लिए अपूर्व सुख का सामान कर दिया है तो अब तुम पुन: दु:ख भोगने का बंदोबस्त करती हो! भला दारोगा और गदाधरसिंह का मुकाबला करना और अजायबघर के अन्दर जाना तुम औरतों का काम है? मैंने तुम दोनों के वास्ते गदाधरसिंह का मुकाबला करने के लिए कितना बड़ा सामान पैदा कर दिया था, और उस समय भूतनाथ को इस का गुमान भी था कि तुम इस दुनिया में हो, तब तो तुम लोगों के लिए कुछ हुआ ही नहीं।

आज गदाधरसिंह हर तरह से होशियार और जानकार हो रहा है तब तुम भला इस समय क्या कर सकती हो? मैं तुम्हारे इस इरादे को कदापि पसन्द नहीं करता।

जमना : (हाथ जोड़कर) आपका कहना बहुत ठीक है। मैं उसी शर्मिन्दगी को मिटाने के लिए इस समय आपसे प्रार्थना कर रही हूँ और दारोगा तथा गदाधरसिंह ने जो कुछ मुझे दु:ख दिया है उसका बदला अपने हाथ से लिया चाहती हूँ अगर मैं ऐसा न कर सकी तो सब तरह का सुख पाने पर भी जिंदगी-भर मेरे दिल में यह दाग बना ही रहेगा। उस समय यदि हम लोगों से भूल हो गई तो क्या सदैव ही भूल हुआ करेगी?

इसके अतिरिक्त जमाने का दु:ख-सुख भोग कर पहिले की बनिस्बत आज हम लोग होशियार हो रही हैं तथा हर तरह का तजुर्बा भी हो गया और सबसे बढ़ कर यह कि आपका भरोसा हम लोगों के साथ हैं।

इन्द्रदेव : बेशक् पहिले की बनस्बित आज तुम लोगों की शक्ति बढ़ी हुई है मगर गदाधरसिंह भी पहिले की अपेक्षा आज चैतन्य है और दारोगा जैसे दुष्ट को अपना साथी बनाए हुए है। क्या दारोगा की होशियारी, मक्कारी और शैतानी गदाधरसिंह से कम है?

जमना : यह सब कुछ सच है परन्तु यदि मेरे दिल की अभिलाषा पूरी न हुई तो इस दुनिया में मेरी जिन्दगी व्यर्थ है, तब तो मुझमें और एक नि:सहाय कंगाल अबला में कुछ भी भेद न रहा।

जमना और सरस्वती की आँखों में आँसुओं की धारा बह चली।

इन्द्रदेव : उन दोनों ने जो कुछ तकलीफें तुम्हें दी हैं उनका बदला यदि तुम्हारे पति अपने हाथ से लेंगे तो क्या इससे तुम दोनों को सन्तुष्टि न होगी!

जमना : नहीं, कुछ भी नहीं, इसके अतिरिक्त उनका भी दिल और दिमाग कुछ आप ही-सा है, वे गदाधरसिंह को कभी भी दु:ख न देंगे।

इन्द्रदेव : मैं तो अजीब संकट में पड़ रहा हूँ, सभी जिद्दियों से वास्ता पड़ा है।

जमना : नहीं-नहीं, यदि आपको संकट है तो मैं जिद न करूँगी और अब इस विषय में कुछ न कहूँगी।

इसके बाद कई पल तक सन्नाटा रहा और तब पुन: इन्द्रदेव ने कहा-

इन्द्रदेव : अच्छा तुम दोनों जाओ और अपना हौसला निकालो परन्तु और हर तरह का बंदोबस्त करने के अतिरिक्त मैं अपना एक आदमी तुम्हारे साथ कर दूंगा।

जमना : (प्रसन्नता के साथ) कौन मेरे साथ रहेगा?

इन्द्रदेव : उसे तुम नहीं पहिचानती और न पहिचान सकोगी।

जमना : तो फिर किस तरह उस पर हम लोगों का विश्वास होगा?

इन्द्रदेव : जिस आदमी को मैं तुम दोनों के साथ करूँगा उस पर विश्वास करने की कोई जरूरत नहीं। मैं स्वयं उस आदमी को तुम्हारे सुपुर्द कर देता परन्तु इस समय वह यहाँ है नहीं और मैं घंटे-दो-घंटे में किसी काम के लिए बाहर जाने वाला हूँ, अस्तु मैं उसके घर पर से होता हुआ जाऊँगा और सब बातें उसे समझा दूंगा। प्रात:काल जब घंटा-भर रात रहते ही तुम दोनों वहाँ से बाहर निकलोगी तो दरवाजे ही पर वह आदमी तुम्हें मिलेगा।

‘दत्त’ के नाम से वह तुमको परिचय देगा और दो अदद तिलिस्मी खंजर भी तुम दोनों को देगा जिसका गुण वह स्वयं तुम्हें बताएगा। उस आदमी को अपने साथ ले लेना और उसकी राय के खिलाफ कभी कोई काम मत करना!

जमना : (प्रसन्नता के हाथ जोड़कर) बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा।

कुछ देर तक उन लोगों में बातें होती रहीं। इसके बाद इन्द्रदेव की आज्ञानुसार वे सब उठकर अपने ठिकाने चली गईं और सफर का इंतजाम करने लगीं।

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