Abhishap by rajvansh Best Hindi Novel | Grehlakshmi
Abhishap by rajvansh

मनु ने जब बिस्तर छोड़ा तो उसकी आंखें बेहद थकी-थकी थीं। यों लगता था मानो वह रात भर न सो पाई हो। मानो विचारों का कोई अंधड़ उसे रात भर झंझोड़ता रहा हो। और यह सब हुआ था आनंद के कारण। यह तो ठीक था कि उसने आनंद से संबंध तोड़ लिए थे। किन्तु उसकी आत्मा यह सहन न कर पा रही थी कि आनंद किसी अन्य से संबंध स्थापित करे। मनु ने उसे भारती के साथ देखा था। देखकर लगा था-जैसे आनंद उसे जलाना चाहता था। जैसे आनंद ने भारती से संबंध केवल उसे जलाने के लिए बनाए थे या फिर आनंद उसे चुनौती दे रहा था।

अभिशाप नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1

वह नाश्ते की मेज पर भी विचार मग्न एवं खोई-खोई रही। गोपीनाथ से बेटी का यह मानसिक द्वंद्व छुपा न रहा। बोले- ‘मनु! लगता है-रात भर सो न पाई हो।’

‘यूं ही पापा!’

‘अवश्य ही कोई उलझन रही होगी।’

‘उलझन तो न थी-सर में दर्द था।’

‘टेबलेट क्यों नहीं ली?’

‘ली थी-कोई लाभ न हुआ।’ मनु ने उत्तर दिया।

आमलेट का टुकड़ा मुंह में डालकर गोपीनाथ उसे देखने लगा। मनु के चेहरे पर अब भी उलझनों का जाल था। कुछ क्षणों के मौन के बाद वह फिर बोले- ‘निखिल कैसा है?’

‘ठीक है। उसने शांतिनगर में एक कोठी और खरीद ली है।’

‘अच्छी बात है।’

‘आपका काम तो चल रहा है।’

‘हां।’

‘आप निखिल से मिलते नहीं।’

‘मेरा सीधा संबंध सक्सेना से है। निखिल से मिलने की आवश्यकता ही नहीं रहती। कल शाम आनंद मिला था।’

मनु अपने पिता की ओर देखने लगी। मानो पूछ रही हो कि क्यों? गोपीनाथ फिर बोले- ‘अब तो उसकी हालत काफी सुधरी हुई लगती है। साथ में एक युवती और थी।’

मनु ने रोष एवं घृणा से कहा- ‘भारती होगी।’

‘भारती कौन?’

‘है एक आवारा लड़की।’

‘तुम जानती हो उसे?’

‘नहीं! ठीक से नहीं।’

‘फिर तो तुम्हें उसके बारे में कोई ऐसी-वैसी राय नहीं बनानी चाहिए। हो सकता है तुम्हारा अनुमान गलत हो।’

‘मेरा अनुमान कभी गलत नहीं होता पापा!’

‘हो सकता है।’ गोपीनाथ बोले- ‘वैसे मेरा अनुभव यह है कि तुम्हारे अधिकांश अनुमान गलत ही सिद्ध हुए हैं। यों लगता है-मानो तुम्हारे पास किसी को पहचानने की बुद्धि न हो।’

‘आप! आप किसके विषय में कह रहे हैं?’

‘यूं ही-आनंद की याद आ गई थी। विवाह का प्रस्ताव तो तुम्हीं ने रखा था उसके सामने।’

मनु के चेहरे पर कड़वाहट फैल गई। उसने नाश्ता छोड़ दिया और एक झटके से उठकर घृणा से बोली- ‘पापा! मेरी समझ में नहीं आता कि आप बार-बार आनंद का नाम क्यों दोहराते हैं? क्या रिश्ता रहा है आपका उससे?’

गोपीनाथ ने उठकर निःश्वास ली और शांत स्वर में बोले- ‘रिश्ता तो उससे तुम्हारा भी है मनु! केवल कह देने मात्र से रिश्ते नहीं टूट जाते। उनके लिए पहले भावनाओं को मोड़ना पड़ता है और फिर हृदय को तोड़ना पड़ता है। हम समझते हैं ये सब तुम नहीं कर पाओगी।’

‘मैं-मैं ऐसा कर चुकी हूं पापा!’

‘नहीं, मनु नहीं! तुम ऐसा कर ही नहीं सकतीं। यदि तुमने ऐसा किया होता तो तुम आनंद के लिए पूरी रात न जागतीं।’

‘मैं उसके लिए नहीं जागी। मेरी कल्पना में तो रात भर वह लड़की घूमती रही, जो आनंद के साथ थी।’

गोपीनाथ धीरे से हंस पड़े।

बोले- ‘और जानती हो-तुमने उस लड़की के बारे में रात भर क्यों सोचा? इसलिए क्योंकि वह तुम्हारे आनंद के साथ थी। तुम नहीं चाहतीं कि तुम्हारे अतिरिक्त कोई दूसरा आनंद के समीप आए-उससे प्रेम करे। तुम्हारे मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई उसके लिए। उस लड़की को आनंद के साथ देखकर तुम्हारी रगों में तूफान-सा चीख उठा। और बेटे! हृदय में इस प्रकार का तूफान तभी उठता है, जब कोई अपने प्यार पर डाका डालता है। जब कोई अपने हरे-भरे संसार को उजाड़ने का प्रयास करता है।’

‘बस कीजिए पापा! बस कीजिए।’ मनु ने पीड़ा से होंठ काट लिए और तड़पकर चिल्लाई- ‘मत नाम लीजिए मेरे सामने आनंद का। मैं-मैं उससे घृणा करती हूं पापा! मैं उससे घृणा करती हूं।’

‘किन्तु तुम शायद यह नहीं जानतीं कि अत्यधिक घृणा के पीछे अत्यधिक प्रेम ही छुपा होता है। हम इस संसार में कभी किसी ऐसे व्यक्ति से घृणा नहीं कर सकते-जिसे हमने प्रेम न किया हो। इसलिए तो कहते हैं-जहां घृणा होती है-प्रेम भी वहीं होता है।’

‘पापा! आप मुझे पागल कर देंगे।’

‘पागल तो तुम हो ही।’ गोपीनाथ बैठ गए और निःश्वास लेकर बोले- ‘विधाता ने तुम्हें कितना हरा-भरा संसार दिया था। किसी प्रकार का कोई भी तो अभाव न था तुम्हारे जीवन में। किन्तु तुम्हारी एक भूल ने सब कुछ तहस-नहस कर डाला। एक ऐसी राह, जिस पर तुम्हें जीवन भर चलना था-तुमने निखिल की बातों में आकर छोड़ दी। यह तुम्हारा पागलपन न था तो और क्या था?’

‘बुद्धिमानी थी मेरी। मुझे अपना भविष्य अभी से नजर आ रहा था। आनंद के साथ मैं सुखी न रह पाती।’

इतना कहकर मनु मुड़ी और तेज-तेज पग उठाते हुए कमरे से बाहर चली गई।

गोपीनाथ मुस्कुराते रहे।

भारती अपने स्कूल से निकलकर ज्यों ही मुख्य सड़क की ओर बढ़ी-एकाएक कोई अदृश्य शक्ति उससे पूछ बैठी-कहां जा रही हो भारती?’

‘प्रोफेसर आनंद से मिलने।’ भारती ने मन-ही-मन अदृश्य शक्ति के प्रश्न का उत्तर दिया।

‘क्यों?’

‘उसकी पीड़ाएं बांटने के लिए। उससे यह बताने के लिए कि जीवन घुट-घुटकर जीने का नाम नहीं। मैं उसे अपनी मुस्कुराहटों से नया जीवन देना चाहती हूं। यदि ऐसा न हुआ तो वह जी नहीं पाएगा।’

‘यह क्यों नहीं कहती कि तेरे दिल में उसके लिए प्रेम उत्पन्न हो गया है और तू उसे चाहने लगी है?’

‘नहीं! यह झूठ है। मेरे हृदय में उसके लिए केवल सहानुभूति है।’

‘और तू उसकी पीड़ाओं को बांटना चाहती है?’

‘हां!’

‘किन्तु तेरे यों मिलने से आनंद की पीड़ाएं कम न होंगी। तू भली-भांति जानती है कि उसे ये पीड़ाएं मनु ने दी हैं। केवल मनु ही उसकी पीड़ाएं मिटा सकती है। क्या तू मनु को उसके समीप नहीं ला सकती?’

‘वह कैसे?’

‘मनु को जलाकर, उसके हृदय में ईर्ष्या की आग भड़काकर तू उसे आनंद के समीप आने पर विवश कर सकती है।’

‘मैं समझी नहीं।’

‘सुन-यह ठीक है कि तू आनंद से प्रेम नहीं करती। किन्तु तुझे मनु के हृदय में ईर्ष्या की आग लगाने के लिए आनंद से प्रेम का नाटक करना होगा। तुझे ऐसा कुछ करना होगा कि मनु तुझे आनंद के साथ देखे।’

‘इससे क्या होगा?’

‘मनु ईर्ष्या की आग में जलकर राख हो जाएगी। वह कभी सहन न कर पाएगी कि आनंद से कोई दूसरा प्रेम करे। और जिस दिन ऐसा हुआ, मनु निखिल का साथ छोड़कर आनंद को स्वीकार कर लेगी।’ अब दैवी शक्ति ने उसे सलाह दी।

भारती कुछ भी न समझ पाई।

तभी किसी ने अपनी आवाज से उसकी विचार श्रृंखला तोड़ दी- ‘नमस्ते दीदी!’

भारती ने चौंककर चेहरा उठाया। ये निखिल था-जो गाड़ी से उतरकर अभी-अभी उसके समीप आया था।

निखिल को देखकर भारती के चेहरे पर घृणा फैल गई। किन्तु उसने मुंह से कुछ न कहा और आगे बढ़ने के लिए पग उठाए। ये देखकर निखिल ने उसका मार्ग रोक लिया और बोला- ‘दीदी! मैं आपसे मिलने आया था। स्कूल में पहुंचा तो पता चला कि आप अभी-अभी गेट से निकली हैं।’

‘क्यों-क्या काम था तुझे मुझसे?’

‘क-काम तो कुछ भी न था दीदी! सिर्फ एक छोटी-सी बात कहनी थी।’

‘वह क्या?’

‘दीदी!’ निखिल पलभर तो दुविधा में रहा और फिर बोला- ‘आपका आनंद के साथ यों घूमना-फिरना उचित नहीं।’

सुनते ही भारती की मुखाकृति कठोर हो गई और उसकी आंखों से घृणा की चिंगारियां छूटने लगीं। घृणा से दांत पीसकर वह बोली- ‘तू कौन होता है मुझे ऐसी सलाह देने वाला? क्या रिश्ता है तेरा मुझसे?’

निखिल के हृदय पर चोट लगी।

वह बोला- ‘रिश्ता तो खून का है दीदी! और यह आप भी जानती होंगी कि खून के रिश्ते जीवन में कभी नहीं टूटते। भले ही आप मुझसे कोई संबंध न रखें। भले ही आप यह मान लें कि निखिल मर चुका है, किन्तु समाज और संसार की दृष्टि में मैं आपका भाई ही रहूंगा। कोई यह कह सकता है कि निक्की भारती दीदी का भाई नहीं है।’

‘मैं भूल चुकी हूं कि कोई मेरा भाई थी था।’

‘बेशक भूल सकती हैं दीदी! मम्मी और पापा की बातों में आकर आप सब कुछ भूल सकती हैं। किन्तु मेरा वह बचपन जो आपके साथ बीता है; मेरी वो बचकानी हरकतें जो आपने अपनी आंखों से देखी हैं; मेरी वो तोतली आवाज जिसे सुनकर आपका हंसते-हंसते बुरा हाल हो जाता था। आप यह सब नहीं भूल सकतीं दीदी! कभी नहीं भूल सकतीं।’

भारती ने चेहरा घुमाकर घृणा से कहा- ‘तेरे जैसों को भूलना ही बेहतर है।’

‘किन्तु क्यों? क्या गुनाह किया है मैंने? कौन-सा पाप किया है जिसके कारण आप मुझे भूल जाना चाहती हैं? बस-इतना ही तो हुआ है मुझसे कि मैंने अपनी ईमानदारी, सच्चाई ओर आदर्शों को ठोकर मारकर दौलत से रिश्ता जोड़ा। न जोड़ता तो क्या करता? मारा-मारा फिरता सड़कों पर-कॉलेज की फीस भी न दे पाता-पैबंद लगे कपड़े पहनता-घृणा सहन करता उनकी जिन्हें मैं अपना समझ बैठा था। चारों ओर से उपेक्षा, घृणा, तिरस्कार और अपमान-क्या यह ही लिखा था मेरे भाग्य में? जिंदगी इसी का ही नाम था? मैंने-मैंने यही तो किया कि अपने भाग्य से लड़ाई लड़ी-अपने जीवन का ढंग बदला और अपनी आत्मा को मारकर ही सही-मैं कंगले से दौलतमंद बन गया। क्या आप इसी को पाप कहती हैं?’

भारती ने कुछ न कहा।

निखिल भावावेश में कहता रहा- ‘और यदि आप इसे पाप कहती हैं तो बताइए इस संसार में पाप के अतिरिक्त और क्या है?

यह ऊंचे-ऊंचे महल, आलीशान बंगले, सड़कों पर दौड़ती चमचमाती मोटरें और एक-एक व्यक्ति के पास दस-दस नौकरों की फौज क्या यह सब पाप की कमाई का परिणाम नहीं? क्या आप इसे मेहनत और ईमानदारी का फल कहेंगी? यदि कहेंगी तो बताइए, एक मेहनतकश और ईमानदार मजदूर के पास गाड़ी क्यों नहीं होती? दिन-रात अपना खून-पसीना बहा बहाने वाला एक मजदूर झोंपड़ियों में क्यों रहता है? क्यों सोता है भूखे पेट खुले आकाश के नीचे? क्यों शरीर को कपड़ा और खाने को रोटी नहीं मिलती उसके बच्चों को?

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‘दीदी! यह सब मैंने अपनी आंखों से देखा है और देखकर एक ही बात सीखी है। और वो यह कि इस संसार में शराफत और ईमानदारी का कोई मोल नहीं। व्यर्थ हैं झूठे आदर्श और व्यर्थ है आत्मा की आवाज पर ध्यान देना। मूर्ख हैं वे लोग जो जीवन भर गले में आदर्शों का ढोल और माथे पर ईमानदारी की पट्टी लगाए जीते हैं। कोई उन्हें कौड़ियों के भाव भी नहीं खरीदता दीदी! कोई नहीं पूछता उनकी ईमानदारी और शराफत को। ऐसे लोग जब मरते हैं तो उन्हें कफन तक नसीब नहीं होता, क्योंकि कफन भी पैसे से आता है और ईमानदारी के पास कभी पैसा नहीं होता।

‘अतः मुझे ईमानदारी छोड़नी पड़ी दीदी। ठोकर मारनी पड़ी अपने आदर्शों को। गला दबाना पड़ा अपनी आत्मा का और इन सब बातों का परिणाम यह हुआ कि राजाराम चपरासी का बेटा तीन सौ पैंसठ दिनों के पश्चात जब अपने घर लौटा तो उसका जीवन पूरी तरह से बदल चुका था। अमीर बन चुका था वह। गुजरे हुए जमाने में जो लोग उससे घृणा करते थे, वही उससे प्रेम करने लगे। जिन लोगों ने उसका अपमान किया वही, उसे सम्मान की दृष्टि से देखने लगे। प्रणाम करने लगे उसे। कितनी बड़ी खुशी दी दौलत ने मुझे।’

‘दौलत ने तुझे तेरे परिवार से अलग कर दिया।’ भारती इस बार बोली- ‘इसे तू खुशी कहता है। संसार तेरा अपना हो गया-किन्तु तेरे अपने तो पराए हो गए।’

‘मैं इस परायेपन की चिंता नहीं करता दीदी! क्योंकि मैं जानता हूं कि यह ही पराए फिर से अपने हो जाएंगे।’

‘कब?’

‘उस दिन-जब वे लोग दौलत का महत्व समझेंगे। मुझे विश्वास है कि उस दिन मुझसे घृणा न की जाएगी, बल्कि प्रेम किया जाएगा।’

‘ऐसा कभी न होगा निक्की! यह दौलत तुझे सब कुछ दे सकती है, किन्तु तेरा परिवार नहीं लौटा सकती। और कुछ कहना है?’

‘आनंद के विषय में।’

‘तू कहता है-मैं प्रोफेसर आनंद से मिलना बंद कर दूं?’

‘हां दीदी!’ निखिल बोला- ‘और यह सब मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि आनंद अच्छा आदमी नहीं।’

‘अच्छा तो तू भी नहीं। तूने आनंद से उसकी पत्नी छीन ली। तूने एक सरल हृदय वाले व्यक्ति को जीवन भर का रोग दे दिया। क्या इसे तू अच्छा कह सकता है?’

‘दीदी! आप मेरी बात छोड़िए और…।’

‘बात छोड़ने की नहीं निक्की! बात समझने की है। मनुष्य को चाहिए कि वह दूसरों के गिरेबान में झांकने से पहले अपने गिरेबान में भी झांक कर देख ले।’

‘दीदी! आप…।’

‘फिर भी मैं तेरी बात मान सकती हूं निक्की! मैं तेरी सलाह मानकर आनंद से मिलना बंद कर दूंगी। किन्तु तुझे भी मेरी एक बात माननी पड़ेगी।’

‘वह क्या?’

‘आज के पश्चात् तू मनु से नहीं मिलेगा। तू उससे किसी प्रकार का कोई संबंध नहीं रखेगा।’ भारती ने कहा और ध्यान से निखिल का चेहरा देखने लगी।

निखिल का चेहरा उतर गया।

किसी अपराधी की भांति अपना सर झुकाकर वह बोला- ‘यह-यह असंभव है दीदी! शायद आप नहीं जानतीं कि मैं उसे आरंभ से ही चाहता हूं। वह-वह पहला प्यार है मेरे जीवन का। मैं-मैं उससे दूर रहने की कल्पना भी नहीं कर सकता दीदी!’

‘प्यार-हूं!’ भारती घृणा से बोली- ‘लज्जा नहीं आती तुझे किसी दूसरे की पत्नी को अपना प्यार कहते हुए? उसने आनंद से विवाह किया-अग्नि को साक्षी करके आनंद को अपना पति माना और तू उसे अपना पहला प्यार कह रहा है।’

‘दीदी! मैं-मैं सच कहता हूं।’

‘तेरे झूठ और सच से मेरा कोई संबंध नहीं। मैं तो सिर्फ यह चाहती हूं कि तू मनु से हमेशा के लिए संबंध तोड़ ले। बोल-करेगा तू ऐसा? अपनी दीदी को सही राह दिखाने के लिए तू मनु से संबंध तोड़ देगा?’

निखिल ने इस पर कुछ न कहा।

वह कुछ क्षणों तक तो विचार मग्न-सा खड़ा रहा और फिर मुड़कर आगे बढ़ गया।

सड़क पर उसकी गाड़ी खड़ी थी।

फिर एक क्षण ऐसा भी आया जब निखिल अपनी गाड़ी में बैठा और उसकी गाड़ी भारती की दृष्टि से ओझल हो गई।

अभिशाप-भाग-24 दिनांक 14 Mar. 2022 समय 04:00 बजे साम प्रकाशित होगा

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