शाकाहार भी हिंसा है मगर सूक्ष्म हिंसा है: Vegetarian Diet
Vegetarian Diet

Vegetarian Diet: क्या आप जानते हैं कि शाकाहार भी एक प्रकार की हिंसा है और केवल मांसाहारी ही नहीं, शाकाहारी भी हिंसा को अपनाते हैं? यदि नहीं, तो इस बारे में विस्तार से जानें इस लेख में।

सूक्ष्म इसलिए क्योंकि यह हमें अपनी तन की आंखों से नहीं दिखती। जब भी मांसाहार और शाकाहार पर बहस छिड़ती है तो हर बार शाकाहार का पलड़ा ऊंचा हो जाता है। यहां तक कि जीभ से लाचार मांसाहार लोग भी मानते हैं कि मांसाहार गलत है परंतु उनकी लाचारी इस सत्य को सही होते हुए भी पीछे धकेल देती है। भले ही मांसाहार प्रोटीन-विटामिन व अन्य गुणों से भरा हो परंतु धार्मिकता एवं संवदेनाओं की दृष्टि के सामने वह न केवल गलत है बल्कि एक तरह का पाप भी है।

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मांसाहार को गलत या पाप ठहराने का कारण है मनुष्य का अपने पेट के लिए किसी पशु की हत्या करना। विशेषज्ञ कहते हैं मांस पशुओं का भोजन है, मनुष्यों का नहीं। मनुष्य का पेट और आंत मांस के लिए नहीं बने। साथ ही संवेदनाओं से भरे लोग भी इसे घृणा की दृष्टि से देखते हैं। वह सपने में भी नहीं सोच सकते कि अपने स्वार्थ के लिए किसी पशु-पक्षी को मारा-खाया जाए। यहां तक कि वह तो किसी पशु-पक्षी को हानि पहुंचाने के पक्ष में भी नहीं हैं, मारना-काटना तो दूर की बात है। सच तो यह है वह तो उन्हें भी अपने परिवार की तरह पालते-पोसते हैं, उनकी रक्षा व सेवा करते हैं, जिसे वह अपना धर्म समझते हैं।

धर्म की दृष्टि से देखें या इंसानियत की दृष्टि से बात तो सही है। अपनी जान के लिए दूसरे की जान लेना गलत है और पाश्विक भी। सबको जीने का हक है। मनुष्य जीवन देने के लिए बना है जीवन लेने के लिए नहीं। कोई पशु अपनी भूख के लिए हत्या करता है तो समझ में आता है पर मनुष्य के पास बुद्धि है, हृदय है, भावनाएं-संवेदनाएं हैं उसे किसी पशु की हत्या करना शोभा नहीं देता। फिर भले ही शौक एवं प्रतिस्पर्धा के रूप में शिकार का खेल ही क्यों न हो। इतिहास गवाह है कि राजा-महाराजा शिकार को न केवल एक खेल बल्कि अपनी शान मानते थे। देवताओं के जीवन में भी ऐसी कई घटनाएं मिल जाती हैं। भले ही सोने का हिरण एक प्रपंच था, एक छल एवं षड्ïयंत्र था पर जब मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने उसे देखा था तब उनकी दृष्टिï से वह एक सोने का हिरण था, जिसका वध करने से वह भी नहीं चूके। बहरहाल कारण कुछ भी हो पर सत्य तो यह है कि अपने शौक या स्वाद के लिए पशु हत्या सदियों नहीं युगों पुरानी है। कोई चीज युगों पुरानी हो तो वह सही नहीं हो जाती, गलत-गलत होता है। शायद यही कारण है कि आज भी आहार में मांसाहार को प्राथमिकता नहीं दी जाती, विशेष तौर पर भारत में।

Vegetarian Diet
NON VEGETARIAN FOOD

मांसाहार के प्रति हमारी यह सोच व धारणा इसलिए है क्योंकि इसमें हम किसी की हत्या करते हैं, किसी का खून बहाते हैं। किसी को अपने लिए पालते व काटते हैं और यह सब हमें अपनी आंखों से दिखाई देता है। किसी बकरे का तड़पना, किसी मुर्गी का तड़पना आदि। हम महसूस कर सकते हैं कटने से पहले उनके भय और चीख को। पर क्या कभी आपने सोचा है कि ऐसा ही दर्द, ऐसी ही पीड़ा पेड़-पौधों को भी होती होगी? भले ही वह पशु-पक्षी की तरह चलते-फिरते व उड़ते-कूदते नहीं हैं पर प्राण तो उनमें भी हैं, पलते-बढ़ते तो वह भी हैं। बच्चों की तरह फल-फूल तो वह भी पैदा करते हैं। इन्हें भी तेज धूप, तूफान-पाला आदि सताता है। इन्हें भी भूख लगती है। यह भी दिन-प्रतिदिन, टहनी दर टहनी बढ़ते फैलते हैं। यह न केवल सांस लेते हैं बल्कि हमारे लिए शुद्ध वायु का प्रबंध भी करते हैं। कई परीक्षणों एवं शोधों के कारण यह सिद्ध हो चुका है कि पेड़-पौधे सुनते हैं। भले ही यह चलते नहीं हैं पर इनके फलों एवं फूलों की खुशबू मीलों-मीलों की यात्रा करती है। भले ही इनको तोड़ने-काटने से इनमें खून जैसा लाल रंग नहीं दिखता, न ही इनमें कोई चीख-पुकार पैदा होती है परंतु इसका मतलब यह नहीं कि यह जीवित नहीं, इनका जीवन नहीं?

मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है। वह अपने शरीर की आंख से जो देखता है उसे ही सत्य व सही समझता है। भीतर की आंख अभी उसकी इतनी बलवंत नहीं हुई कि वह यह समझ सके कि पेड़-पौधों में भी जान होती है, उनको भी हमारी तरह जीने का, खिलने-महकने का हक है। वह तो बस उसे भी अपने स्वार्थ एवं स्वाद के लिए तोड़ लेता है और कभी यह नहीं सोचता कि यह भी हिंसा है। सच कहूंं तो यह मात्र हिंसा ही नहीं अपराध भी है और पाप भी। जिस तरह मांसाहार गलत है ऐसे ही शाकाहार भी गलत है या यूं कहें कि शाकाहार भी मांंसाहार से कुछ कमतर नहीं सिर्फ हमने अपने को समझा रखा है। हमें अपनी थाल में कभी सब्जी का दर्द नहीं दिखता, चटनी की पीड़ा नहीं सुनाई देती, न ही गेहूं का छटपटाना महसूस होता है। हमें मतलब है तो अचार के स्वाद से भले ही उन आमों को पकने से पहले अचार के लिए काट दिया हो। उस सलाद को जिसे हम बड़े चाव से कचा-कच खा जाते हैं, भोजन का स्वाद बढ़ाते दले, कुटे-पिसे मसाले, मंदिरों में देवताओं के गले में पड़ी तोड़े गए फूलों की मालाएं, हमारे सौंदर्य प्रसाधनों में कुचले फूलों के अर्क की सुगन्ध, पर्फ्यूम आदि, क्या यह सब हिंसा नहीं है? क्या यह सब अत्याचार नहीं? नहीं, क्योंकि यह सब हमें नहीं दिखता। अभी हम इतने संवेदशील नहीं हुए हैं। हां, हम पत्थरों में भगवान को देख सकते हैं। कण-कण में भगवान को मान कर उसे पूज सकते हैं क्योंकि हमें ऐसा युगों से पढ़ाया, समझाया व बताया गया है।

सच बात तो यह है कि मनुष्य अपनी शारीरिक आंखों में इतना उलझा हुआ है कि कभी उसकी गिरफ्त से ही बाहर नहीं निकल पाया। भीतर भी कोई आंख है, उसका भी दर्शन है इस बात को भी उसने बस सुना भर है लेकिन वहां तक उसकी कोई यात्रा नहीं है। जो वह समझ सके, जान सके और अनुभव कर सके कि शाकाहार भी सूक्ष्म अर्थों में एक हिंसा है बल्कि सच तो यह है यह किसी शिकार से भी बड़ा अपराध है क्योंकि न सिर्फ हम इन साग-सब्जियों को खाते हैं बल्कि बड़े ही दूरगामी फलों को ध्यान में रखकर इन्हें बोते व उगाते हैं। इनकी रक्षा करते हैं। इन्हें हरा-भरा बनाए रखने के लिए जी-तोड़ मेहनत करते हैं। इतना सब करके न सिर्फ हम इन्हें खाते हैं बल्कि बेचते भी हैं, व्यापार कर कमाते भी हैं। एक बेटी जो घर-आंगन में पलती-बढ़ती है हम उसकी विदाई पर खूब रोते हैं परंतु जब हम साग-सब्जियों को, अनाज-फसल को पाल पोस कर बड़ा करते हैं तो जब हम इन्हें तोड़ते-काटते, पीसते-पकाते हैं और तो और अपने मुनाफे के लिए बेचते हैं तब हम क्यों नहीं रोते? तब हमें तकलीफ क्यों नहीं होती शायद हम इन्हें निर्जीव समझते हैं। हमें मनुष्य एवं पशुओं के साथ किया गया ऐसा व्यवहार तकलीफ तो देता है पर पेड़-पौधों के वक्त यह मानकर बैठ जाते हैं कि यह तो बने ही खाने के लिए हैं। यदि यह नहीं खाएंगे तो फिर और क्या खाएंगे?

मांसाहार के मामले में हम अपने धर्म-ग्रंथों व स्रोतों के उपदेशों को आगे कर देते हैं यानी कि ग्रंथों में लिखा है कि मांसाहार गलत है। यदि यह लिखा है तो यह भी लिखा होगा कि पेड़-पौधों में भी भगवान बसते हैं। हर पत्ते में ईश्वर का वास है। तब हम ग्रंथों को क्यों नहीं मानते? क्यों हम किसी कली को फूल बनने से पहले तोड़कर किसी माला में पिरो लेते हैं। जिस तुलसी की मां समझकर पूजा करते हैं उसके पत्तों को तोड़ने में हमें तकलीफ क्यों नहीं होती? जिस पीपल के पेड़ की हम पूजा करते हैं उसके पत्तों को अपनी चौखट पर बंडरवाल बनाकर टांग देते हैं? क्यों अपनी पूजा-अर्चना के लिए हम जिस केले के वृक्ष की पूजा करते हैं उसी के पत्तों व फलों को तोड़ने में हम जरा भी नहीं हिचकिचाते, क्यों? शायद इसलिए क्योंकि हमारे धार्मिक ग्रंथों में, व्रत-पूजा में इनका महत्त्व भी बताया गया है। वरना यह वनस्पति भी पूजनीय हैं, हमारे ग्रंथ भी यही सिखाते हैं पर हम उनकी भी नहीं सुनते। क्योंकि सवाल सुनने का नहीं स्वार्थ का है। हमें जो ठीक लगता है हम वही करते व मानते हैं। लेकिन ऐसी किसी आंख की ओर उन्मुख नहीं हो पाते कि समझ सकें कि शाकाहार भी हिंसा है।

मेरी इन बातों एवं तर्कों का उद्देश्य मांसाहार को बढ़ावा देना तथा शाकाहार को गलत साबित करना बिल्कुल नहीं है। मेरा उद्देश्य है कि शाकाहार लोग जो हमेशा यह सोचते हैं कि वह इसलिए सही हैं क्योंकि वह किसी की हिंसा नहीं करते, अपने स्वार्थ के लिए किसी के जीवन की बलि नहीं चढ़ाते यह गलत है। शाकाहार लोगों को इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि वह मांसाहार वालों से श्रेष्ठï व उच्च हैं न ही उन्हें हेय की दृष्टिï से देखना चाहिए। जैसे मांसाहार एक हिंसा है ऐसे ही शाकाहार भी एक हिंसा है मगर सूक्ष्म हिंसा है। लेकिन इस सत्य को भी वही समझ सकते हैं जो सही मायने में आध्यात्मिक हैं, वरना तथाकथित धार्मिक लोग इस गलतफहमी में जी सकते हैं कि उन्होंने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कभी कोई हिंसा नहीं की तथा उन्हें अपने भोजन के लिए कभी किसी की जान नहीं लेनी पड़ती।

यह सबित करके कि ‘शाकाहार भी एक तरह की हिंसा हैÓ मैं यह भी नहीं कहना चाहता कि लोग आज से शाकाहार भी बंद कर दें। सच तो यह है तार्किक दृष्टिï से मेरी उपर्युक्त बातें भले ही कितनी भी सही हों पर व्यवहारिक दृष्टि से यह गलत है क्योंकि ऐसे तो आदमी भूखा मर जाएगा। वह फलाहार, शाकाहार, मांसाहार कुछ तो खाएगा, वरना जिएगा कैसे? इसलिए मैं किसी के विपक्ष में नहीं हूं न ही किसी एक के पक्ष में हूं। मनुष्य दोनों के लिए स्वतंत्र रहा है और रहेगा। उसे कोई दूसरा नहीं बदल सकता। इस पृथ्वी पर यदि आज हर कोई शाकाहारी हो जाए तो आपको यह जानकर ताज्जुब होगा कि पृथ्वी इतना अनाज व सब्जी आदि नहीं जुटा सकती। बहुत बड़ा तबका ऐसा है जो सिर्फ मांस ही खाता है। यदि वह भी साग-सब्जी पर आ जाए तो पृथ्वी पर उन पशुओं की संख्या इतनी बढ़ जाएगी कि हमें उन्हें जबरन मारना पड़ेगा या फिर उनकी नसबंदियां करनी पड़ेगी ताकि उनकी संख्या नियमित रहे। जैसा आजकल के कुत्तों के साथ किया जा रहा है।

बहरहाल बात इतने से ही खत्म नहीं होती, लोग आहार को इंसान के व्यवहार से भी जोड़कर देखते हैं। कहते हैं न ‘जैसा अन्न वैसा मन्न ‘जैसा आहार वैसा व्यवहार। मैं भी मानता हूं तथा काफी हद तक इससे सहमत भी हूं। पर पूरी तरह नहीं। मात्र आहार काफी नहीं उसके साथ ध्यान भी जरूरी है। भले ही आहार ध्यान का एक हिस्सा है पर यह जरूरी नहीं कि जो मांसाहारी होगा वह ध्यान में नहीं उतर सकता, वह परमात्मा को उपलब्ध नहीं हो सकता। क्योंकि ऐसा होता तो आज सभी शाकाहारी लोग संत हो गए होते तथा इस पृथ्वी पर इतने उपद्रव और युद्धों के जिम्मेदार सिर्फ मांसाहारी लोग होते। परंतु ऐसा नहीं है। सच तो यह है कि पृथ्वी पर धार्मिक लोगों ने धर्म के नाम पर जितने उपद्रव मचाए हैं उतने किसी और ने नहीं। बहरहाल अशुभ कुछ भी नहीं। जो ध्यान में सहायक हो, जो जागने में हमारी मदद करे वह शुभ है, सही व श्रेष्ठ है। आहार को बहाना न बनाएं। आहार के जरिये किसी को सही-गलत या उच्च-दुष्ट नहीं साबित करें। खास तौर पर इस बात पर तो जरा भी नहीं कि मांसाहार एक हिंसा है, शाकाहार नहीं। क्योंकि सूक्ष्म तल पर ही सही शाकाहार भी एक हिंसा है।