गृहलक्ष्मी की कहानियां : एक दिन दोपहर के समय फोन की घन्टी बजी, हेलो- रोहित का गम्भीर एक्सीडेन्ट हो गया है। रोहित के पिता ने बड़ी गम्भीर आवाज़ में कहा। हाथ तो उम्र के कारण कांपते ही थे दादा जी के हाथ से रिसीवर गिर कर झूलने लगा। और दादा जी वही घम्म से गिर गये। दादी पास ही सो रही थी, घबरा कर उठ खड़ी हुई। दादा जी जोर से चिल्लाये ‘हम बर्बाद हो गये राजेश की मां, हमारी रेखा… हमारी रेखा, हमारी रेखा..’ और दोनों वही दीवार से सिर टिकाये बैठ गये। न तो दिमाग के पास सोचने की क्षमता थी और न शरीर के पास कुछ करने की। बाहर चिलचिलाती धूप और चमकता उजाला था। मगर घर के अन्दर सिर्फ अन्धेरा ही अन्धेरा। आर्यन जो था तो अबोध, परन्तु वक्त ने उसे बहुत समझदार बना दिया था। किसी तरह अपने दादा दादी को सम्भाला और वहां के लिये निकल पड़े।
पहुंच कर देखा तो फोन पर मिलने वाली खबर तो केवल राई भर थी, यह दृश्य तो पहाड़ के समान था। शायद इससे पहले भगवान का ऐसा कहर कभी देखा नहीं होगा। सुहाग की चूड़िया चटकाई जा रही थी। मौत के इस दर्दनाक दृश्य के बारे में कुछ और नहीं कह सकते। ये तो संसार है घाव कितने भी गहरे हों, संस्कार सारे निभाने ही पड़ते हैं। और दादा जी ने भी रोहित के भाई और पिता के साथ साथ रोहित को, या अपनी रेखा की खुशियों को कन्धा दे दिया। हालात से समझौता करता हुआ, हर कोई अपने जीवन का बोझ उठा रहा था। आखिरकार दादा जी ने अपनी रेखा को सास ससुर को सौंपते हुए किस्मत के हवाले कर दिया। रेखा, जो अब न कुंवारी थी, न शादीशुदा, न पत्नी, न कुछ और। केवल एक मां रह गई थी और मुन्नू को माता पिता दोनों का ही प्यार दे रही थी। उसकी तपस्या से शायद भगवान को दया आ गई। उसके सास ससूर रेखा और मुन्नू पर अपनी ममता का खज़ाना लुटाने लगे।
सुबह जब स्कूल का बस्ता जमाने के लिये आर्यन ने कैलेन्डर पर नजर मारी तो दौड़ता हुआ दादी के पास गया। दादी आज तो सोलह मार्च है। दादी- तो मैं क्या करूं, मैं तो तुम्हारे मार्च वार्च नहीं जानती। सीधे सीधे बता आज क्या है। दादी आज हमारे मुन्नू का जन्म दिन है। दादी के जैसे सारे घाव हरे हो गये। मगर आर्यन का उत्साह देखकर अपने आंसूओं को अपनी पलको में ही कैद कर लिया। फिर अपनी कमर में बंधी कपड़े की थैली से पैसे निकालते हुए बोली। ‘आर्यन, बेटा स्कूल से लौटते हुए उसकी पसंद का कोई उपहार ले आना, हम आज मुन्नू के पास चलेंगे।
जैसे ही घर की घंटी बजी, दादी की आंखों के सामने पिछले जन्म दिन के नज़ारे तैर गये। नज़ारा कुछ ऐसा था। जैसे किसी राजकुमार का जन्म दिन मनाया जा रहा है। जैसे ही दरवाजा खुला, आर्यन ने दादी को झकझौरा। ‘दादी दरवाज़ा खुल गया’ और वो वर्तमान में लौट गई। रोहित की मां ने दरवाजा खोला वह पहले की तरह शांत और खुश दिखाई देने का प्रयास कर रहे थे मगर उनकी यह खुशी उनके ग़म को नहीं छुपा पा रही थी। मुन्नू दौड़ कर उनकी गोद में आ बैठा। उपहार पाकर नाचने लगा। जब मुंह मीठा कराने की बारी आई तो रेखा की देवरानी मिठाई की प्लेट ऐसे पटक कर गई, मानो कह रही हो कि पेट भरने के साथ-साथ जन्म दिन की मिठाई की फिजूल खर्ची भी ज़रूरी थी। घर का सारा खर्च अब रोहित के भाई पर आ पड़ा था। रेखा केवल एक नौकरानी का खर्च बचाने जितना सहयोग कर पाती थी।
दादा जी ने हज़ार बहाने बटोरे (हम बूढ़े हैं अकेले है?, आर्यन भी छोटा है, पास में ही एक स्कूल है मुन्नू वहां पढ़ लेगा, वगैरा वगैरा..) और रेखा के सास-ससुर को उन्हें वहां से ले जाने के लिए तैयार कर लिया। रेखा की देवरानी ने भी, उसके ससुर को यह निर्णय लेने में भरपूर सहयोग दिया। मुन्नू के जन्म दिन के साथ साथ रेखा और मुन्नू के, नये जीवन का एक नया दिन शुरू हो गया। अगले दिन वो लोग वहां से चले गये।
अब घर में सब पहले की तरह रहने लगे, बस रेखा की मां नही थी और मुन्नू अपने भविष्य के सवाल ले कर घूमता रहता था। एक दिन दादा जी ने बड़ी हिम्मत जुटा कर रेखा से उसके विवाह की बात की। परन्तु उसके लिये रोहित को भुलाना आसान नहीं था। उसके बाद दादा जी ने भी इस विषय को नहीं छेड़ा। कुछ ही सालों में आर्यन की शादी हो गई। मुन्नू स्कूल जाने लगा। कुछ कृपा आसपास की महिलाओं ने कर दी। वह रेखा को कुछ कपड़े सिलने को दे जाती थी, जिससे उसका मन भी बहल जाता था और कुछ आमदनी भी हो जाती थी। सब जिन्दगी को आसान बनाने का प्रयास कर रहे थे। और कुछ हद तक ज़िन्दगी आसान हो भी गई थी।
रात बहुत हो चुकी थी। रेखा अपना काम खत्म करके सोने जा रही थी। तभी आर्यन के कमरे से निकले शब्दों ने रेखा को बरबस अपनी ओर खींच लिया। ‘सूनो जी मुन्नू बड़ा हो रहा है, उसकी पढ़ाई का खर्च बढ़ता जा रहा है। रेखा दीदी क्यों नहीं समझती कि पहाड़ सा जीवन यहां कैसे कटेगा।’ आर्यन की पत्नी के शब्दों में रेखा और मुन्नू के लिए बोझ के भाव थे।
‘दादा जी एक दिन आप मेरी शादी की बात कर रहे थे’। अगली सुबह रेखा ने दादा जी को चाय का कप पकड़ते हुए कहा। अचानक इस फैसलें का कारण जानने के लिए हर कोई बेचैन था। मगर रेखा ने कुछ भी न बताते हुए अपना फैसला सुना दिया। कुछ ही महीनों की मेहनत के बाद दादा जी ने उसके लिये एक ऐसा घर खोज लिया, जहां रेखा खुश रह सकती थी। और उसकी विदाई का वो दिन आ गया।
कुछ रस्मों के बाद विदाई का दृश्य देखते हुए रेखा की नई सास ने अपना सुर ऊंचा करते हुए कहा ‘सूनो जी, यह मुन्नू कहां चला आ रहा है, रेखा के साथ। हमें अपने बेटे के लिए बहु चाहिए, अपने पोते के साथ किसी और की हिस्सेदारी की ज़रूरत नहीं। एक ही पल में सन्नाटा छा गया। हर कोई बात संभालने की कोशिश कर रहा था। मगर शंति देवी टस से मस नहीं हुई।
अचानक सब की आंखें सीढ़ियों पर पड़ीं, सामने रेखा सीढ़ियों से उतर रही थी। उसके कन्धों पर कपड़ों का एक झोला टंगा था। एक हाथ में मुन्नू का हाथ और दूसरे हाथ में सिलाई मशीन उठाए रेखा बगैर किसी से कुछ कहे उस घर से विदा हो गई, अपनी जिन्दगी की नई राह तलाशने के लिए।
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